आलेख
समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में मानसिक विसंगतियों से जूझते स्त्री पात्र: तबस्सुम जहां
महिलाओं में 80 प्रतिशत बीमारियाँ मानसिक तनाव के परिणामस्वरूप होती हैं और यह मानसिक तनाव आर्थिक व सामाजिक दोनों कारणों द्वारा हो सकता है। कामकाजी महिलाओं को घर व बाहर दोनों तरफ का उत्तरदायित्व भली प्रकार से निभाना होता है। अतः उन्हें मानसिक तनाव का भय अधिक रहता है। इसके अलावा पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को अपनी इज़्जत बचाकर भी चलना होता है। प्रायः देखा गया है कि स्त्रियों में चलने व कामकाज के समय सही मुद्राएँ अपनाते हुए भी अकारण कमर-दर्द या जोड़ों में दर्द परेशान करता है।
आशारानी व्होरा ने इस संदर्भ में लिखा है कि “किसी कार्य को अतिशीघ्र करने में घबराहट होती हो या अकारण दुश्चिंता सताती हो तो ऐसी स्थिति में पतले दस्त या डायरिया की शिकायत भी आरंभ हो जाती है। ‘माइग्रेन’ या मासिक धर्म में अधिक रक्त की स्थिति में यदि डाॅक्टरी जाँच में कुछ न निकले तो इन सब कथित लक्षणों के पीछे प्रमुख कारण ‘मानसिक तनाव’ ही होता है। हाइपरटेंशन पेप्टिक अल्सर जैसी गंभीर बीमारियाँ तो प्रायः तनावजनित ही होती हैं। कभी-कभी ‘दमे’ का कारण भी ‘एलर्जी’ नहीं, अपितु मानसिक तनाव होता है।”1 यद्यपि देखा गया है कि परिस्थितियाँ बदलने या दृष्टिकोण बदलने अथवा मानसिक तनाव दूर होने से ये बीमारियाँ भी ठीक हो जाती हैं। बीमारी का वहम ,हाइपोकांडेसिस की शिकायत निम्नवर्गीय स्त्रियों में प्रायः देखने को मिलती है। विडंबना यह है कि इन स्त्रियों को पूरा दिन घर व बाहर खटना पड़ता है। विश्राम या मनोरंजन के लिए भी इन्हें थोड़ा बहुत समय प्राप्त नहीं हो पाता है। प्रायः कुछ स्त्रियाँ निरंतर चिंताओं व समस्याओं से घिरी रहती हैं और इनके घरों में भी कोई सदस्य इनका हाथ बँटाने, समझाने या सहानुभूति देने वाला नहीं होता है। ऐसी स्थिति में एक अवधि के बाद ऐसी स्त्री का मानसिक तनाव से घिर जाना स्वाभाविक है। खीझ, चिड़चिड़ाहट, क्रोध, बेचैनी, अनिद्रा, मानसिक तनाव के स्वाभाविक परिणाम हैं।
मंजुल भगत के उपन्यास ‘अनारो’ की केन्द्रीय पा़त्र अनारो भी अन्य निम्नवर्गीय कामकाजी स्त्रियों की भांति पूरे दिन काम पर खटती है। शाम को वापस आ कर उसे स्वयं की गृहस्थी संभालनी पड़ती है। घर में बच्चों के अतिरिक्त ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो उसके सुख-दुख को बाँट सके। परिस्थितियों से अकेले ही उसे जूझना पड़ता है। लेकिन, अपने सुख-दुख को बाँट न सकने की स्थिति में वह अंदर ही अंदर घुटती रहती है। आर्थिक अभाव, बच्चों के भविष्य की चिंता, स्वयं की शारीरिक दुर्बलता, परस्त्रीगामी शराबी व भगोड़े पति और अकेलेपन की त्रासदी के परिणामस्वरूप वह भी कई प्रकार के मानसिक तनावों से घिरी रहती है। चिड़चिड़ापन, क्रोध व झुंझलाहट भरा व्यवहार उसमें साफ दृष्टिगोचर होता है। नंदलाल से हुए एक झगड़े के समय तो वह इतना क्रोध के आवेश में आ जाती है कि लगभग उसे एक प्रकार का दौरा-सा पड़ जाता है। होश में आने पर मुहल्ले के लोगों द्वारा उसे स्वयं पर ‘देवी’ आने की सूचना मिलती है। बस्तीवाले उसे बताते हैं ”क्या बतलाये? तूने तो बस, चण्डी माँ का रूप धारण कर लिया था सारा मुहल्ला जुटा गया, पर किसी की क्या मजाल जो तेरे पास फटक जाये। पहले तो तूने खटिया उठा के नंदलाल के दे मारी… धूल सूंघकर वह जो उठा, तो उसके हाथ में कहीं से लाठी आ गयी और उसने दूर से वही दे मारी। तू तो ऐसी गिरी, मानो कोई लहास पड़ी हो। मुँह से तो फेन गिरने लगा… तेरे पास तो सबेरे तक कोई फटका भी नहीं।”2
प्रायः ये माना जाता है कि निम्नवर्गीय स्त्रियाँ घरेलू हिंसा का शिकार होने पर उच्चवर्गीय स्त्रियों की भांति गम खाकर बैठ जाने वाली नहीं होती हैं। अपितु, सशक्त प्रतिकार करती है। अनारो पति द्वारा पीटे जाने पर पूरे मुहल्ले को शोर मचा कर इकट्ठा कर लेती हैं। अनारो की उपर्युक्त दशा केवल उसके ‘भड़ास’ निकालने या मुहल्ले भर को इकट्ठा करने तक सीमित नहीं है। अधिक आवेशित हो जाना, मुँह से झाग निकलना, एक लाश की भाँति भूमि पर धड़ाम से गिर पड़ना, बहुत अधिक समय तक अचेत रहना, होश आने पर कुछ याद न रहना, ये सभी लक्षण ‘हिस्टीरिया’ से संबंधित हैं।
निम्नवर्गीय समाज में अशिक्षा व अंधविश्वास के कारण ‘हिस्टीरिया’ अथवा अन्य मानसिक बीमारियों को ‘देवी प्रकट’ होने से जोड़कर देखा जाता है। इसलिए, उनका कोई भी डाॅक्टरी उपचार नहीं कराया जाता है। इस प्रकार इनकी ये मानसिक बीमारियाँ अंदर ही अंदर बढ़ती रहती हैं। अनारो जैसी स़्त्री जो कभी किसी की गलत बात को सहन नहीं कर पाती और न ही किसी से दबती है वह भी स्वयं को मानसिक बीमारी की चपेट में आने से नहीं बचा पाती है। अपनी पु़त्री के पति के परस्त्रीगामी होने पर वह बेटी की चिंता में दिन प्रतिदिन घुलती रहती है। जिससे अनारो की मानसिक स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। इतना ही नहीं, उसे रात में भयावह और डरावने सपने भी आने लगते हैं। एक बार तो वह भयंकर सपना देखती है कि “मुंडेर पे के सारे कपोत गिद्ध में बदल गए। मुंडेर भला क्या हुई? वहाँ तो एक उजड़ा पेड़ खड़ा था। ठूँठ का ठूँठ। न फूल, न पत्तियाँ। नंगी डालियाँ प्रेत की बाहों-सी अडोल थीं। नीचे खड़ी गंजी रो रही थी।”3 इस प्रकार पु़त्री को दुखी देखकर अनारो को मानसिक आघात लगता है। वह रातों में ठीक-प्रकार से सो नहीं पाती, उसे लगता है कि जैसे ही वह सोने के लिए अपनी आँखें बंद करेगी इसकी बेटी पर कोई मुसीबत टूट पड़ेगी। रात को बिस्तर पर अनारो की दशा किसी मानसिक रोगी की भाँति हो जाती है- “अनारो लगी भँवर में घूमने। ऊपर से घनघोर घन उमड़-घुमड़ के बरसने लगे। अनारो ने बाहें ऊपर को उठा दीं। चिल्लाना चाहा, पर आवाज़ सासों में ही घुट गई।”4
शारीरिक दुर्बलता व अत्यधिक मानसिक तनाव के चलते भी वे अपनी बेटी की कामना के लिए उपवास रखती है और ऐसी स्थिति में उसकी दशा और भी शोचनीय हो जाती है। एक दिन वह अपनी बहन के सामने ही अचेत हो जाती है-“अनारो बेजान-सी एक ओर लुढ़क गई। उसे भान हुआ कि कोहनियों तलक उसकी बाहें काठ की हो गई। पहले-पहल पाँव सुन्न पड़े, फिर घुटनों तलक टांगे ठंडा गईं। नैनों की पुतलियाँ बूड़ती-सी लगीं। लगा, वह कहीं दूर जा पड़ी हो।”5 अनारो की दशा देखकर उसकी बहन चंपा को उस पर ‘देवी आने की’ पूर्व सूचना मिल जाती है। अनारो स्वयं के लिए कभी मंदिर व पूजा-पाठ नहीं करती लेकिन पु़त्री के मंगल के लिए पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, टोना-टोटका मन्त्र सभी प्रकार के कार्य करती है। अपनी पु़त्री गंजी के आत्मनिर्भर बनने पर अनारो की भी चिंता कम होने लगती है और धीरे-धीरे वह भी तनावमुक्त हो जाती है।
सिगमंड फ्रायड (1856-1939) के अनुसार-“साधारण स्वस्थ जीवन में भी दमित वासनाएं और कुंठाएं अपने को व्यक्त करने का प्रयत्न करती रहती है परंतु ‘सुपर इगो’ द्वारा निर्मित प्रतिरोध के कारण ये अपने स्वाभाविक रूप में व्यक्त नहीं हो पाती और कपट वेशों में प्रकट होती हैं। ये कपट रूप स्वप्न और जाग्रत जीवन की भूलें हैं। अधिक प्रबल होने पर हिस्टीरिया, खंडित व्यक्तित्व, अपराध भावना आदि बहुत से मानसिक रोग हो जाते हैं।”6 प्रायः स्त्रियाँ अधिक बीमारियां झेलती हैं जिसका मुख्य कारण संस्कारवश अपने आप को दबाने, पीछे रखने की आदत और इसी कारणवश अपने स्वास्थ्य के प्रति उनकी लापरवाही रहती है। पूरा पोषण न मिल पाने के कारण और शिक्षा से वंचित रहने के कारण उनका मानसिक विकास अवरुद्ध होता है। यहि कारण है कि लड़कियों का सर्वांगीण विकास नहीे हो पाता है। आशरानी व्होरा के अनुसार-“परिवार के लिए त्याग कर उसकी धुरी थामे रखने का दायित्व संभाले, वे भूल गई कि अपनी ओर ध्यान न देने से बच्चे भी कमज़ोर होंगे और धुरी भी कमज़ोर रहकर परिवार-समाज के ढाँचे को ठीक से संभाल नही पाएगी। फिर त्याग के बदले प्रताड़ना मिली तो उसके भीतर दबी कुंठाओं ने दूसरे रूप में बाहर आ, पुरूष और परिवार से अप्रत्यक्ष बदला लेना शुरु किया। काल्पनिक बीमारियां, ओढ़ी हुई बीमारियां और मानसिक बीमारियां इसी का कुफल हैं।”7 राजेन्द्र यादव की कहानी ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ में नायिका ‘लक्ष्मी’ की इसी कुंठा और विक्षिप्त मानसिकता का यथार्थ चि़त्रण किया गया है। लक्ष्मी का पिता ‘लाला रूपाराम’ अपनी लड़की का विवाह इसलिए नहीं करता क्योंकि उसका तर्क है कि लड़की का विवाह होने के साथ ही उसके घर की लक्ष्मी भी चली जाएगी और वह दरिद्र हो जाएगा। अतः अपनी अंधश्रद्वा के कारण वह लक्ष्मी का विवाह नहीं करता और घर की चारदीवारी में कैद रखता है। करुणा शर्मा लक्ष्मी की उक्त स्थिति पर विचार करते हुए लिखती हैं कि “जहाँ लक्ष्मी कैद है कि नायिका अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिए अलग प्रकार का द्वंद्व झेलती हैं वह 25-26 साल से कैदियों का-सा जीवन जीती आ रही है, उसमें पिता का विरोध करने की क्षमता नहीं है। वह मुक्ति तो चाहती है किंतु किसी और के माध्यम से। उसकी यौन भावना की संतुष्टि नहीं हो पाती, अतः वह विक्षिप्त-सी हो जाती है।”8 वस्तुतः घर की चारदीवारी में कैद लक्ष्मी को अपनी कुंठित जैविक आकांक्षाओं को मारना पड़ता है। स्थिति यह है कि पिता की हठ के कारण कंुठित यौन भावनाओं से त्रस्त लक्ष्मी हिस्टीरिया व उन्माद का अवस्था तक पहुँच जाती है। लक्ष्मी को दौरे पड़ने लगते हैं और वह पागलों जैसा आचरण करने लगती है। वह उन्माद की दशा में अपने पिता से कहती है-“ले, तूने अपने लिए रखा है …मुझे खा …मुझे चबा …मुझे भोग।”9
व्यक्तिगत अध्ययनों और विशेषकर ग्रामीण स्त्रियों के अध्ययन के आधार पर मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ (1983) की यह रिपोर्ट सामने आई है कि जिन स्त्रियों में उनका संचित और दमित क्रोध सहनशक्ति के बाहर हो गया है और सामाजिक मुक्ति के अभाव के कारण उनमें भी हिस्टीरिया जैसी बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं। वस्तुतः भारत में हिस्टीरिया का रूप निषिद्व लैंगिक तथा आक्रामक इच्छाओं का प्रेतात्मा द्वारा हावी हो जाने के रूप में प्रकट होता है। इन प्रेतात्माओं से लड़कियों को छुड़वाने के लिए परिवार के सदस्य अक्सर शमशान, बाबाओं तथा दरगाह व मज़ारों के चक्कर लगाने लगते हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ में निम्नवर्गीय स्त्री पात्र ‘रेहाना’ निर्धनता और अशिक्षा के कारण इसी त्रासदी का शिकार है। स्थिति यह है कि “रेहाना की तबियत ज़्यादा गड़बड़ रहने लगी है। उसकी अम्माँ को पक्का यकीन है कि उनकी बिटिया को किसी ने कुछ कर दिया है। रेहाना के मामा समिउल्ला गये थे मखदूम शाह, वहीँ से पाकबत्ती ले आए हैं। उसे जलाकर और लोबान सुलगाकर एक दिन जब बैठाया उन्होंने रेहाना को तो हबुआने लगी वह। पहले तो इध्र-उधर सिर को हिलाया, फिर ज़मीन पर दोनों हथेलियां दबाकर झूमने लगी। अम्माँ ने पीछे से जूड़ा खोल दिया।”10
मनोरोग चिकित्सको का मानना है कि यदि शहरी मध्यम वर्ग के परिवार के किसी लड़के में कोई मनोरोग जैसे स्कूल में ठीक से न पड़ना, घर में बद मिज़ाजी करना तथा अवसाद आदि हो जाए तो उसके परिवार वाले उसके उपचार के लिए क्लिनिक व डॅाक्टर के चक्कर लगाने लगते हैं लेकिन दूसरी ओर लड़की को कुछ हो जाए तो पहले तो लड़की कुछ बताती ही नहीं और यदि बता दिया तो परिवार वाले उसकी समस्या पर ध्यान ही नहीे देते। एक सीमा के बाद लड़कियां अपनी बीमारी ठोस रूप से व्यक्त करती है। विडंबना यह है कि उचित इलाज के अभाव में रेहाना के भीतर अवसाद बड़ता ही रहता है। स्थिति यह है कि कई सालो से अंदर ही अंदर घुटती रेहाना अंत में उन्मादी रूप धारण कर लेती है। “रेहाना ने क्रोध में आँखे तरेरी और फिर झूमने लगी। फिर पूछा तो बोली, ‘हम्मैं बहादुर सहीद लै चलो, वहीं बतायेंनें।”11 इस प्रकार स्पष्ट है कि निर्धनता, अशिक्षा, व अंधश्रद्वा से उपजे तनाव व उन्माद के कारण स़्ित्रयां मानसिक रूप से उत्पीड़न झेल रही है जिसका कुप्रभाव निश्चित रूप से उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।
विसंगति यह है कि गृहस्थी के घरेलू श्रम में पिसती स्त्रियों को न तो संतुलित भोजन मिल पाता है और न ही पर्याप्त विश्राम। इसके अलावा दांपत्य जीवन से मिले कुंठा व तनाव के परिणाम स्वरूप भी इनको अनेक मानसिक व्याधियों को झेलना पड़ता है। स्थिति यह है कि अशिक्षा, अंध्विश्वास, पर्याप्त संतुलित भोजन का अभाव तथा बीमारी में उचित डाक्टरी परामर्श न मिलने से स्त्रियों का मानसिक तनाव बढ़ता ही जाता है जिससे उनका जीवन मानसिक विसंगतियों से घिर जाता है
संदर्भ
1. आशरानी व्होरा, स्त्री सरोकार, आर्य प्रकाशन मंडल, दिल्ली, 2006, पृ0 57-58
2. मंजुल भगत, अनारो, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृ0 36
3. मंजुल भगत, सं. कमल किशोर गोयनका, गंजी, समग्र कथा साहित्य-1,
किताबघर प्र0, दि. 2009, पृ0 251
4. मंजुल भगत, सं. कमल किशोर गोयनका, गंजी, समग्र कथा साहित्य-1,
किताबघर प्र0, 2009, पृ0 254
5. मंजुल भगत. सं. कमल किशोर गोयनका, गंजी, समग्र कथा साहित्य-1,
किताबघर प्र0, दि, 2009, पृ0 254
6. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन,
दिल्ली, 2013, पृ0 266
7. आशारानी व्होरा, स्त्री सरोकार, आर्य प्रकाशन मंडल, दिल्ली, 2006, पृ0 28
8. करुणा शर्मा, कमलेश्वर के कथा साहित्य में स्त्री-विमर्श, नवचेतन प्र0, दिल्ली,
2011,पृ0 190
9. राजेन्द्र यादव, जहाँ लक्ष्मी कैद है, अक्षर प्रकाशन, दिल्ली, 1971, पृ0 221
10. अब्दुल बिस्मिल्लाह, झीनी-झीनी बीनी चदरिया, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,
2011, पृ0 63
11. अब्दुल बिस्मिल्लाह, झीनी-झीनी बीनी चदरिया, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,
2011, पृ0 63
– तबस्सुम जहां