आलेख
समकालीन महिला ग़ज़लकारों के स्त्री पात्र
– के. पी. अनमोल
ग़ज़ल के कथ्य की अगर बात करें तो मेहबूब से गुफ़्तगू, पद और सत्ता की शान में क़सीदे, आत्मकेन्द्रित अनुभवों का गान से होते हुए ग़ज़ल धीरे-धीरे धरातल पर आई। यहाँ से उसे सामाजिक सरोकार दिखाई देने शुरू हुए। आरम्भ में इसने लोक की पीड़ा, उसकी शिकायतों को- हवा-चिराग़, परिंदा-सय्याद, फूल-शजर, नदी-समन्दर आदि प्रतीकों के माध्यम से आवाज़ दी। कालांतर में ग़ज़ल में उसका समय और समाज खुलकर प्रकट हुआ और अब इसके कथ्य का बहुत अधिक विस्तार हो गया है और हो रहा है।
स्त्री, उसके अनुभव, उसका परिवेश, उसके संघर्ष ने ग़ज़ल के कथ्य में आने के लिए बहुत लम्बा इंतज़ार किया। हालाँकि स्त्री के एक रूप- महबूबा ने आरम्भ से ही ग़ज़लों के कथ्य में अपनी जगह बना ली थी लेकिन वह भी सिर्फ दैहिक रूप से या वफ़ा की प्रतिमूर्ति की चाह के रूप में ग़ज़ल में उपस्थित रही, उसकी अपनी पसन्द-नापसन्द, चाहत, सोच या यूँ कहें कि उसका अपना पक्ष कथ्य से नदारद रहा। इसकी वज्ह साफ़ रही कि इस विधा में अभिव्यक्ति अधिकतर पुरुष रचनाकारों के ज़रिये होती रही। महिला ग़ज़लकार हालाँकि बहुत पहले से अपनी रचनात्मकता का लोहा मनवा चुकी थीं लेकिन उन्हें भी हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश ने कभी खुलकर अपने जज़्बात अभिव्यक्त करने की छूट नहीं दी।
वर्तमान दौर के सर्वाधिक लोकप्रिय शायरों में एक मुनव्वर राणा ने ग़ज़ल के कथ्य में माँ को लाकर उस पर शे’रों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त ही नहीं दी बल्कि इन शे’रों को मिसाल की तरह स्थापित किया। उसके बाद धीरे-धीरे अन्य ग़ज़लकारों ने भी स्त्री के अन्य रूपों- लड़की, बेटी, बहन, पत्नी आदि को ग़ज़ल के विषय में सम्मिलित करने के प्रयत्न किये। और अब स्त्री के यह विभिन्न रूप काफ़ी हद तक खुलकर ग़ज़ल में अभिव्यक्ति पा रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि एक पुरुष रचनाकार के संस्कार, उसके अनुभव, उसका परिवेश, उसकी धारणाएं एक महिला रचनाकार से सर्वथा भिन्न होते हैं। इन सब भिन्नताओं के चलते नज़रिये अलग-अलग होना लाज़मी है और जब किसी रचना में, ख़ासकर शे’र में अगर नज़रिया ज़रा भी बदला कि उसका कोण (एंगल) बदल जाता है। ऐसे में अगर एक महिला ग़ज़लकार स्त्री के इन विभिन्न रूपों को केंद्र में रख, कोई शे’र कहेगी तो वह सर्वथा नई फ़िक्र, नया ख़याल लेकर स्त्री के एक ख़ास रूप के अपने पक्ष को रखेगी। वर्तमान समय के खुले परिवेश में वह अपनी बात को अपने से पहले के समय की ग़ज़लकारों से ज़्यादा खुलकर अभिव्यक्त कर सकती है।
ज़ाहिर है, एक महिला रचनाकार स्त्री पात्रों के मर्म को शिद्दत से समझ सकती है, उकेर सकती है। समकालीन महिला ग़ज़लकारों के शे’रों में ऐसी अभिव्यक्ति यदा-कदा देखने को मिलने लगी है, जिसमें वह अलग-अलग स्त्री पात्रों के माध्यम से अपना पक्ष रखती दिखती है। बदलते समय में कम होती बंदिशों में स्त्री खुलकर साँस लेने की उम्मीद तो पालने ही लगी है। आज देश-दुनिया में हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपने-आप को पूरी तरह सक्षम सिद्ध कर दिया है। अब लगभग ऐसा कोई काम नहीं है, जिसे कहा जा सके कि यह एक महिला नहीं कर सकती। अब स्त्री मन यही चाहता है कि उसे अपने अनुसार काम करने, सोचने और निर्णय लेने की आज़ादी मिलनी चाहिए। ममता किरण जी का यह शेर यहाँ लगभग हर महिला की चाहत को शब्द देता है-
मुझको आज़ादी मिले उड़ने की छू लूँ आसमां
अब तमन्ना पर मेरी बंदिश यहाँ कोई न हो
एक नारी के अपने अनुभव को शब्द देते यह शेर ग़ज़ल के कथ्य में विस्तार लेकर आ रहे हैं। वह जिस तरह से दुनिया को देखती है, उसके प्रति धारणा रखती है, वहाँ तक एक पुरुष की सोच का पहुँच पाना लगभग नामुमकिन-सा है। एक औरत की ज़िन्दगी का क्या हिसाब है, निर्मल आर्य जी के शब्दों में देखिए-
अश्क़ों को रख जमा में, सभी ख़्वाब दे घटा
औरत की ज़िन्दगी का ये पूरा हिसाब है
यह मार्मिकता, यह दर्द अनछुआ है। इसे समझा जा सकता है, एक हद तक मेहसूस भी किया जा सकता है लेकिन उस शिद्दत से नहीं, जितना ख़ुद भोगनेवाले ने किया है। इसी कड़ी में नीना सहर जी का एक शे’र देखिए-
इक अजनबी के साथ इक अनजान शह्र में
ताउम्र ठहरने के लिए लायी ज़िन्दगी
एक महिला अपने जीवन का जिया हुआ एक हिस्सा छोड़कर, सारे सम्बन्ध; समस्त जान-पहचान छोड़कर किसी अजनबी के साथ एक अनजान जगह पर आ जाती है तब यह भाव पैदा होना बहुत सहज है। कितनी सच्ची अभिव्यक्ति है यह।
हज़ारों साल से परिवार और समाज के भले की आड़ में अपनी चाह, अपने सपनों को होम करती आ रही स्त्री, ग़ज़ल के साथ अपने दुःख-दर्द बाँटती है, कैसे! यह डॉ. नीलम श्रीवास्तवा का एक शेर बताता है-
ज़ब्त कर सीने में लाखों हसरतें और ख्वाहिशें
कब्र में रस्मो-रिवाजों की मैं दफनाई गयी
एक माँ जब एक औरत के शब्दों में ढलकर किसी रचना में आती है तो किस तरह से समग्र रूप में आती है, डॉ. भावना के ज़रिये देखिए-
बड़ी होकर न जाने कितने वो क़िस्से सुनाएगी
मेरी नवजात बच्ची तो अभी से बात करती है
डॉ. भावना का ही एक और शेर देखिए-
पल में सो जाता है आँचल में बिलखता बच्चा
माँ को क्या ख़ूब सुलाने का हुनर आता है
अब एक महिला रचनाकार के ज़रिये एक बेटी और माँ के बीच के तारतम्य को देखिए, असमा सुबहानी जी कहती हैं-
बोझ पेड़ का तो बस टहनियाँ समझती हैं
माँ की बेबसी जैसे बेटियाँ समझती हैं
जिस तरह माँ की बेबसी क्या हर भाव, हर ज़रूरत बेटियाँ समझती हैं; बेटे कभी नहीं समझ पाते। यहाँ इन्होंने पेड़ और टहनियों की मिसाल रखते हुए एक बहुत अच्छा ख़याल बाँधा है अपने शे’र में।
माँ के साथ जब बात बेटी की हुई है तो बेटी को केन्द्र में रख, हुए कुछ शे’र देख लेते हैं। कहते हैं कि बेटी के साथ-साथ एक चिन्ता भी बढ़ती है, उसकी शादी की चिन्ता। किसी अजनबी के हाथ अपने जिगर के टुकड़े को सौंपने का दर्द एक बाप का दिल ही समझ सकता है। और तिस पर बाप अगर ग़रीब हो तो फिर यह चिन्ता कई गुणा बढ़ जाती है। निरंजना जैन जी के शब्दों में-
बेटी हुई सयानी ब्याहूँगा कैसे उसको
मुफ़लिस का जिस्म उसकी चिन्ता में गल रहा है
बेटी के सन्दर्भ में महाश्वेता चतुर्वेदी जी कहती हैं कि ये बेल के समान होती हैं। पराये घर में जन्म लेती हैं और वहीं पलती-बढ़ती हैं। शेर देखिए-
जन्म लेती है जहाँ पलती व बढ़ती है वहाँ
घर पराये बेल-सी फलती रही हैं बेटियाँ
एक और चिन्ता, और यह चिन्ता हमारे समय की सबसे भयावह चिन्ताओं में एक है और वह है बेटियों की सुरक्षा की चिन्ता। ऐसे दौर में जहाँ आसपास कुछ सुरक्षित न हो और जहाँ सबसे ज़्यादा असुरक्षित बच्चियाँ हों, वहाँ एक माँ कैसे हिम्मत जुटा के अपनी बच्ची के साथ खड़ी रहे! यह एक युद्ध से कम नहीं। ऐसी ही एक फ़िक्र लिए अनामिका पाण्डेय ‘अना’ जी का एक शे’र देखें-
राह बेटी की अब भी मुश्किल है
मुझ में हिम्मत नहीं सरल कह दूँ
यह हमारे समय की अभिव्यक्ति है, हमारे समय का शे’र है।
पत्नी के हवाले से ज़्यादा शे’र देखने में नहीं आये। जबकि इस पात्र पर चुटकुले बहुतायत में देखने को मिल जाते हैं। हालाँकि अनुभव इस रूप के भी कम नहीं हैं लेकिन ग़ज़ल में यह पात्र लगभग उपेक्षित-सा है। एक शेर जो इस सन्दर्भ में मिला उसका ख़याल अपनी मौलिकता की वज्ह से आकर्षित करता है। ख़ुद को लता और साथी को पेड़ बताकर सुनीता काम्बोज जी ने बहुत कोमलता से यह भाव इस शेर में पिरोया है-
मैं लता, पेड़ तुम हो मेरे हमसफ़र
मैं खड़ी कैसे होती सहारे बिना
प्रेमिकाओं को केन्द्र में रखकर हर समय में शे’र कहे गये हैं। ग़ज़ल की इब्तिदा से यह पात्र उसके कथ्य में प्रमुखता से रहा है। हाँ, यह ज़रूर है कि हर दौर में यह अलग-अलग सन्दर्भों में लिया गया हो। प्रेमिका के लिए प्रेमी मन की अभिव्यक्ति भी ख़ूब देखी गयी है लेकिन बात तब बने जब प्रेमी के प्रति प्रेमिका की अभिव्यक्ति देखने को मिले। पिछले दिनों फ़ेसबुक पर एक बहुत प्यारा और अलग तरह का शे’र पढ़ने में आया, जो पढ़ते ही ज़ेहन में अटक गया। मैं उसी वक़्त समझ गया था कि यह शे’र कहीं न कहीं इस्तेमाल ज़रूर होगा। युवा ग़ज़लकार कुमुद साहा जी का यह शेर अपने प्रेमी को उलाहना और अफ़सोस का मिला-जुला रूप है, शेर देखिए-
उसने सिगरेट की तरह फूँक दिया है मुझको
काश होठों पे सजाता मुझे बंशी की तरह
यहाँ जो बंशी और सिगरेट की तुलना है; वह जान है इस शे’र की। बंशी यहाँ एक मिथक के प्रतिनिधित्व में भी आ रही है और उसकी वज्ह से शे’र की गूँज और प्रबल होती है। इस समय के प्रेम और पुराने समय के प्रेम के बीच भी एक तुलनात्मकता है लेकिन सबसे ख़ास बात यह कि यह सब बहुत शान्त तरीक़े से होता है। शे’र अपनी बात रखकर पाठक को कई तरह के भावों के साथ छोड़ देता है।
प्रेमिका की प्रेमी के प्रति अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में एक और शे’र दृष्टव्य है-
तुम्हारे लम्स ने जोगन बना दिया है मुझे
तुम्हारी धुन पे ही पाज़ेब तोड़ जाऊँगी
चित्रा भारद्वाज जी का यह शे’र एक सूफ़ियाना मिज़ाज लिए हुए है। सानी मिस्रा प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचता है।
इसी कड़ी में कुसुम ख़ुशबू जी का एक शे’र भी देख लें-
रुत उदासी की जो आये तो सदा देना मुझे
मैं हँसी बनके तेरे लब पे ठहर जाऊँगी
लड़कियों को कथ्य में लिए हुए शे’र भी बारहा देखने को मिल जाते हैं। यह अवस्था एक महिला के जीवन की लगभग सबसे यादगार अवस्था होती है। लड़कपन के उम्र की यादें, बातें सब कुछ ख़ास ही होती हैं। लड़कपन को नज़र में रखते हुए निर्मल आर्य जी का एक शेर देखिए, जो इस उम्र के एह्सास के कितने नज़दीक जाकर लिखा गया है! यही ख़ासियत होती है एक अच्छे शेर की कि रचनाकार उसके पात्र को बिलकुल आत्मसात करते हुए अपनी बात कहने की कोशिश करे-
एक पिम्पल भी हिला दे लड़कियों के आसमां
इनके जैसे क्यूट होते हैं सभी इनके गुमां
निर्मल आर्य जी का ही एक नसीहत भरा शे’र, जो लड़कियों को एक बहुत प्यारी सलाह देता है-
इनके दिल और नज़र दोनों फिसल जाते हैं
लड़कियों! दिलबरे-जानी पे नज़र भी रक्खो
लड़की को ही पात्र बनाकर संजु शब्दिता ने शे’र कहा है, जो एक भयावह अनुभव की ओर इशारा कर रहा है-
चहकने वाली वो एक लड़की, उदास लम्हों में जी रही है
उसे मिला है जो विष का प्याला, बड़े सलीके से पी रही है
महिला को स्वयं ही अपने हक़, अपनी सुरक्षा के लिए खड़ा होना पड़ेगा। ये दुनिया बहुत स्वार्थी है, यहाँ कोई किसी की मौत नहीं मरता। अब तक सारी उपेक्षाओं, सारी अस्वीकृतियों को अपनी ताक़त बनाकर महिलाओं ने हर तरफ़ अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। नारी शक्ति को उत्साह देता, हुंकार भरता हुआ सिया सचदेव जी का यह शे’र यहाँ पढ़ा जाना बहुत ज़रूरी है-
कोई न डाले निगाहे-ग़लत कि मैं अपने
निहत्थे हाथों को तलवार करने वाली हूँ
स्त्री के इतने सारे अलग-अलग रूप पात्र बनकर शे’रों में आकर अपनी बात अपने तरीक़े से कहते हैं। यह तमाम शे’र एक ख़ास परिवेश के शे’र हैं, जो आधी आबादी के अनुभवजन्य हैं। समय के साथ ऐसी ही अलग तरह की अभिव्यक्तियाँ हमें महिला ग़ज़लकारों के ज़रिये मिलती रहेंगी, इसकी प्रबल सम्भावना है। क्यूंकि आने वाला समय सोच में और अधिक खुलापन लेकर आ रहा है तथा तमाम तरह की पाबंदियाँ अपनी जंजीरें समेटने लगी हैं। महिला पात्रों से जुड़े ये सभी अनुभव हमारे आसपास ही बिखरे पड़े हैं, बस ज़रूरत है इन्हें देखने, समझने और मेहसूस कर पाने की। डॉ. ज़ेबा फ़िज़ा के शब्दों में-
सुनोगे कान लगाकर तो सहमी चीखें भी
सुनाई देंगी मेरे मख़मली तरानों में
– के. पी. अनमोल