उभरते स्वर
सब पे भारी है
अपनी मेहनत से सब पे भारी है
देखो मज़दूर ये बिहारी है
आसमां क्यूँ न छूले महंगाई
बादशाह अपना कारोबारी है
अम्न और शांति रहे कैसे
हर कोई नफ्स का पुजारी है
जबसे दुनिया वजूद में आयी
हक़ व बातिल की जंग जारी है
हमने छोड़ा न सब्र का दामन
बुजुर्गों की यह पासदारी है
मुँह लगते हैं आप क्यूँ इसके
इल्म व तहजी़ब से यह आरी है
तेरी फुर्क़त की मैंने एक-एक सब
बिस्तरे ख़ार पे गुज़ारी है
ये चमन अपना लहलहाता रहे
हम सबों की यह ज़िम्मेदारी है
वक़्त ने जाल ऐसा फैलाया
अपने ही दाम पे शिकारी है
अपने आमाल का नतीजा है
ये कोरोना की जो बीमारी है
‘नाज़’ बाबू ये बेवफ़ा दुनिया
न हमारी है ना तुम्हारी है
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दामन बचाना चाहिये
गंदगी से जैसे हो दामन बचाना चाहिये
नेक राहों के किनारे घर बनाना चाहिये
गहरी होती जा रही है ज़ुल्म की यह तारीकियां
अज्म व हिम्मत का चलो सूरज उगाना चाहिये
आहो ज़ारी से कोई भी मसला होगा न हल
जब ग़मों का दौर आये मुस्कुराना चाहिये
ले रही हैं आज दुनिया चाँद तारों से ख़िराज
तुमको भी सरसो हथेली पे जमाना चाहिये
बाघ बकरी दोनों एक ही घाट पे पानी पिये
दुनिया में ऐसा निज़ामे-आदिलाना चाहिये
जो बहादुर हैं क़फ़न रखते हैं सर पर बांध के
बुजदिलों को पीछे रहने का बहाना चाहिये
कब्ज़-ऐ-कुदरत में जिसके इस जहाँ की जान है
उसके आगे हम सभी को सर झुकाना चाहिये
रूह पजमुर्दा तुम्हारी ताज़ा दम हो जायेगी
अहले-दिल की महफिलों मे आना जाना चाहिये
दे सकोगे ‘नाज़’ क्या नज़राना जानो-माल का
इश्क़ करने के लिये तो दिल दिवाना चाहिये
– एम नाज़ ओजै़र