उभरते-स्वर
सपनों की दुनिया
अपनी भी कुछ अभिलाषाएँ हैं
पथ पर अगणित बाधाएँ हैं
प्रस्ताव नित नए मिले लुभावन
पथ में कंटक लगे सुहावन
धीरज के धागे से बाँधे मन को
सपनों की पथ में बढ़े चले
पर संभावनाओं की इस डगर पर
पर्वत बन खड़ी चुनौतियाँ
चाँद को छूने की चाहत है
अम्बर पर पता हो अपना
क्षितिज के पार की दुनिया में
एक सुंदर-सा घर हो अपना
सपनें भी आकर उकसायें
एक ही जीवन मिला मानव तन
स्वार्थ, कपट रहित हो के
जी लो तुम अपनों संग
सपनें भी अट्टहास करें
प्रतिदिन मुझसे परिहास करें
अभिमान थामकर बैठे हो
कैसे सफलता का स्वाद मिले
ऐसे ही नहीं पूरे होंगे
पाँव अनल पर धर चलना होगा
कदमों में साहस भर कर
पार इसे तुम्हें करना होगा
*******************
नदियाँ
नदियाँ कब विचलित होती हैं
मुश्किल देख के राहों में
आतुरता उतनी ही रहती
मिलने को सागर की बाँहों में
चूमती चट्टानों को इठलातीं
कलकल शोर मचाती बहतीं
पर्वतों को भर अंक में बलखातीं
झरनों संग मनमोहक नृत्य सजातीं
उछल-उछल बन तरंगें
तट को छूकर जाती हैं
कानन कुंज संग मिल गले
सुख-दुख बाँटा करती हैं
समतल पर नेह बन जातीं
उपजाऊ मिट्टी से भर देतीं
सबके जिवन को सरस बनातीं
धरती को सुखदा कर देती हैं
मत रोको राह नदी की
अतिक्रमण की चालों से
क्षुब्ध हुई तो बनेगी प्रलय
बन जायेगी इतिहास धरा
संकरी झझरी नाला बन
उभरी है नगर-नगर
प्रेम से बहना जिसका गुण
वो बन चुकी है कीच डगर
– प्रतिमा त्रिपाठी