घर के पास के विद्यालय से फिल्मी गानों की आवाज आ रही है। वहां शिक्षक-दिवस पर कार्यक्रम आयोजित किया गया है। उन्हें भी विद्यालय की तरफ से कार्यक्रम देखने का न्योता आया। बड़ी खुशी हुई और वे साफ-सुथरे कपड़ों में निश्चित समय पर विद्यालय पहुंच गये। लेकिन कुछ समय के उपरान्त ही वे वापस घर लौट आये। कारण कुछ भी रहा हो, लेकिन जाने क्यों उस माहौल में स्वयं को शामिल करना उन्हें थोड़ा मुश्किल-सा लगा। बच्चों और शिक्षकों के उत्साह में कोई कमी न थी और न ही प्रबंधन में कोई अव्यवस्था। परन्तु जाने क्यों लगा कुछ कमी रह गयी है।
विद्यालय से लौटने के पश्चात भी फिल्मी गानों की आवाज आ रही है क्योंकि शिक्षक-दिवस का कार्यक्रम देर तक चलेगा। यह बात केवल शिक्षक-दिवस के कार्यक्रम की ही नहीं बल्कि विद्यालय के अन्य कार्यक्रमों के आयोजन में भी देखी गयी है। अब ज़रूरी तो नहीं कि हर कार्यक्रम में फिल्मी गाने ही बजाये जायें, वह भी वैसे गाने जो उस पूरे वातावरण से मेल नहीं खाते। हां, यह सच है कि समय के साथ इन्सानी प्रवृत्ति भी बदलती रहती है। बदलाव तो हर कहीं आता है। ऐसा थोड़े ही है कि बदलाव भी आदमी देख कर आता हो। बदलाव सिर्फ समय नहीं उम्र के साथ भी आता है, यह कहना भी गलत नहीं। और हम इसे गलत मानते हैं तो थोड़ा स्वयं सोचे कि क्या हम बच्चे थे तब में, और अब में हमारे अंदर बदलाव नहीं आया? बदलाव प्रकृतिजन्य है और यह ग़लत भी नहीं। लेकिन इसके साथ हम अगर अपने आप को इस हद तक बदल लें कि यह बदलाव ही ग़लत हो तब इसे स्वीकार करना आसान नहीं होगा।
यहां उनके घर के समीप स्थित विद्यालय की बात कही जहां शिक्षक-दिवस मनाया जा रहा है। यह बात सिर्फ उनके घर के समीप के विद्यालय की ही नहीं बल्कि लगभग यह दशा प्रत्येक विद्यालय की है। विद्यालय जिसे विद्या का प्रारंभिक केन्द्र कहा जाता है, वहाँ सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं मिलता, अपितु उसके वातावरण में नैतिक ज्ञान भी छिपा होता है। यहाँ वह प्रारंभिक ज्ञान मिलता है, जहाँ से जीवन का द्वार खुलता है। अगर इसके वातावरण में कुछ भी कमी रह जाये तो हम स्वयं सोचें कि क्या होगा? बच्चे विद्यालय के परिवेश में अपने बचपन का लगभग आधा समय गुज़ारते हैं। उनकी नैतिक शिक्षा का प्रारंभ भले ही घर से होता है, शिक्षा का मूल्य तो वे विद्यालय के परिवेश, शिक्षकों एवं सहपाठियों से ही सीखते हैं।
वस्तुतः बदलाव को समय के साथ ही उम्र से भी जोड़ा जाता है। इसकी वज़ह यह है कि जब हम स्वयं बच्चे थे, तब अपने शिक्षकों की कमियाँ निकाला करते थे, उनके आदर्श शिक्षक न हो पाने की कमियाँ। लेकिन जब हम बड़े होकर स्वयं इस काबिल बनते हैं कि बच्चों को शिक्षा दे पायें, तब उन बातों को अक्सर भूल जाते हैं। यह नहीं सोचते कि हम बच्चों को वह परिवेश नहीं दे पा रहे जो उनके लिए आवश्यक है एवं उनके भविष्य के लिए बेहतर है। हम केवल अपनी रूचियों को ही अभिव्यक्त करने में लगे रह जाते हैं।
हाँ, इसमें भी कोई दो राय नहीं कि आज के बच्चे आदर्श शिक्षकों को बुर्जुआ और बौड़म कहकर उनकी खिल्लियाँ उड़ाते हैं। इसका कारण क्या है, वे स्वयं भी नहीं जानते होंगे। देखा जाये तो कारण सिर्फ यही हो सकता है कि सभी शिक्षकों में केवल दस फीसदी शिक्षक ही अगर अपने आदर्शों पर चलने की कोशिश में लगे हों तो उन्हें कौन पूछे? वैसे भी दुनिया दिखावे की है और इस चकाचौंध में दीपक की लौ अगर टिमटिमा कर रह जाती है तो इसमें अजूबा क्या है? समय के साथ आदमी की सोच बदलती है और कार्यप्रणाली भी। वर्षों पहले जहाँ शिक्षा प्रकृति के बीच होती थी, अब वहीं यह चहारदीवारी के बीच कृत्रिम दुनिया में होती है। वैसे यह कृत्रिमता तो समय की माँग है, लेकिन क्या इसी में डूब जाना, क्या हद को पार कर जाना नहीं?
विद्यालय में गाने जोर-शोर से बजते हैं, जिन पर थिरकते बच्चे इस बात से अनजान हैं कि वे कर क्या रहे हैं- सिर्फ भोंडा मनोरंजन? इसकी जगह पर बच्चों के योग्य मनोरंजक गाने और कर्णप्रिय धुनें भी तो बजायी जा सकती हैं। रही बात मनोरंजन की तो बच्चे उन सभी चीजों में दिलचस्पी लेते हैं जो भली लगती हैं। लेकिन यह तो शिक्षक पर ही निर्भर है कि मनोरंजन के साथ बच्चों को शिक्षा भी दें जो उनके हित में हो और जो उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने में मदद करे।
– रश्मि पाठक