आलेख/विमर्श
सत्यमेव जयते!
हम सभी भारतीय जानते हैं, भारत का राष्ट्रीय प्रतीक, उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई. पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गये सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, जिसके नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है- ‘सत्यमेव जयते’, जो भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। यह मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है-
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्।
अर्थात् ‘सत्य’ की ही विजय होती है; असत्य की नहीं। ‘सत्य’ के द्वारा ही देवों का यात्रा-पथ विस्तीर्ण हुआ, जिससे होकर आप्तकाम ऋषिगण वहाँ आरोहण करते हैं, जहाँ ‘सत्य’ का परम धाम है।
सत्य और अहिंसा का विचार आए और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी याद न आए, यह हो नहीं सकता! इस वर्ष सारी दुनिया उनकी 150वीं जयंती मना रही है। 2 अक्तूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे मोहनदास करमचंद गाँधी ने बचपन में ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाटक देखा और सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की जीवन कथा से प्रभावित होकर सत्य को ही अपना परमेश्वर मानने का निश्चय किया और ता-उम्र सत्य की बुनियाद पर हर असंभव कार्य को संभव करने का साहस किया। दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटकर बैरिस्टर गाँधी भारत को स्वतंत्र कराने के लिए आज़ादी की लड़ाई के पथ-प्रदर्शक बने। इसमें सत्य और अहिंसा को उन्होंने अपना शस्त्र बनाया।
आज भी गाँधी जी को सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है। उन्होंने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। गाँधीजी ने कहा था कि- “सत्य ही ईश्वर है एवं ईश्वर ही सत्य है।” यह वाक्य ज्ञान, कर्म एवं भक्ति के योग की त्रिवेणी है। गाँधीजी के मतानुसार ‘सत्य’ एक बेहद सात्विक किन्तु जटिल शब्द है। ढाई अक्षरों से निर्मित यह शब्द उतना ही सरल है, जितना कि ‘प्यार’ शब्द, लेकिन इस मार्ग पर चलना उतना ही कठिन है, जितना कि सच्चे प्यार के मार्ग पर चलना।
गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में लिखा है, “सत्य को मैंने जिस रूप में देखा, जिस मार्ग से देखा, उसे उसी तरह प्रकट करने का मैंने सतत प्रयत्न किया है और पाठकों के लिए उसका वर्णन करके चित्त में शांति का अनुभव किया है क्योंकि मैंने यह उम्मीद रखी है कि इससे पाठकों में सत्य और अहिंसा के प्रति अधिक आस्था उत्पन्न होगी। सत्य से भिन्न कोई परमेश्वर है, ऐसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया। आज तक के अपने प्रयोगों के अंत में मैं इतना तो अवश्य कह सकता हूँ कि सत्य का संपूर्ण दर्शन संपूर्ण अहिंसा के बिना असंभव है। ऐसे व्यापक सत्य-नारायण के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए जीव मात्र के प्रति आत्मवत् प्रेम की परम आवश्यकता है। जो मनुष्य ऐसा करना चाहता है, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र से बाहर नहीं रह सकता। यही कारण है कि सत्य की मेरी पूजा मुझे राजनीति में खींच लायी है। जो मनुष्य यह कहता है कि धर्म का राजनीति के साथ कोई संबंध नहीं है, वह धर्म को नहीं जानता। ऐसा कहने में मुझे कोई संकोच नहीं होता, न ही ऐसा कहने में मैं कोई अविनय करता हूँ।”
अहिंसा से उनका अभिप्राय है, किसी को भी मन, वचन, कर्म से तकलीफ नहीं पहुँचाना। उनका मानना था कि अहिंसा के बिना सत्य की खोज करना संभव नहीं है। वे कहते थे, “यदि मैं बिल्कुल अकेला भी होऊँ तो भी सत्य और अहिंसा पर दृढ़ रहूँगा क्योंकि यही सबसे आला दर्जे का साहस है, जिसके सामने एटम बम भी अप्रभावी हो जाता है।” हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बिहार के चंपारण का नील सत्याग्रह (1917), गुजरात (तब बोम्बे स्टेट) में खेड़ा का किसान सत्याग्रह (1918), असहयोग आंदोलन (1920), दांडी का नमक सत्याग्रह (1930), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) या भारत छोड़ो आंदोलन (1942) हो, शांति और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही उन्होंने भारतीय प्रजा में व्यापक जन जागृति फैलाई और राष्ट्रीय चेतना जगाई। समाज-सुधारक के रूप में भी उनका योगदान अनुपम है।
आज़ादी के समय का चित्र उनकी सोच से विपरीत उभर आया। उन पर अन्य राजनीतिज्ञों के विभिन्न दबाव थे, उन्हें अनेक विपरीत परिस्थियों का सामना करना पड़ा क्योंकि सभी तो उनकी सोच वाले नहीं थे। इतिहास में अनेक ऐसे सत्य उजागर होने से रह जाते हैं। क्यों न आज राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं पर भी विचार किया जाए, जिन पर बहुत कम बातें हुई हैं या जिसके बारे में आम जनता बहुत कम जानती है। गोपाल कृष्ण गोखले गाँधी जी के राजनैतिक गुरु थे, पर टॉलस्टॉय शायद उनके आध्यत्मिक गुरु थे। अपनी आत्मकथा में गाँधीजी ने यह भी लिखा है कि कैसे रूस के महान साहित्यकार लियो टॉल्सटॉय की किताब ‘द किंगडम ऑफ गॉड इज विदइन यू’ (ईश्वर की सत्ता तुम्हारे अंदर ही है) ने उनकी ज़िंदगी बदल दी। यह किताब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जोहानिसबर्ग से डरबन की ट्रेन यात्रा के दौरान 1 अक्टूबर, 1904 को पढ़ी थी। इससे प्रभावित होकर उन्होंने 1 अक्टूबर, 1909 के दिन टॉल्सटॉय को पहला ख़त लिखा। इसमें गाँधीजी ने ट्रांसवाल, साउथ अफ्रीका में अपने द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन का ज़िक्र किया, जो टॉलस्टॉय की विचारधारा से प्रभावित था।
9 सितम्बर 1828 के दिन रूस के राजपरिवार में जन्मे काउंट लियो टॉल्सटॉय ने पूरी ज़िंदगी सादगी और सरलता से गुजारी। उन्होंने अपनी सारी सुख-सुविधाएँ त्यागकर गरीबों, पीड़ितों और वंचितों के लिए काम करना शुरू किया। 1891 में अपनी जायदाद का ज्यादातर हिस्सा अपनी पत्नी और बच्चों में बाँटकर वे ग्रामीण जीवन से जुड़ गये और दुनिया भर के धर्मों को मानने वालों के साथ संगत करने लगे थे। उनकी सोच ने महात्मा गाँधी के सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।
गाँधीजी लियो टॉल्सटॉय के विचारों को मूर्त रूप देने लगे थे। विचारों की इसी समानता ने दोनों को एक-दूसरे के करीब ला खड़ा किया। उनके बीच पत्राचार होता रहा। टॉल्सटॉय ने गाँधीजी को अपना आख़िरी ख़त 20 सितम्बर 1910 को लिखा, “अब जब मौत को मैं अपने बिलकुल नज़दीक देख रहा हूँ तो मैं कहना चाहता हूँ जो मेरे ज़ेहन में साफ़-साफ नज़र आता है और जो आज सबसे ज़्यादा ज़रूरी है और वह है- ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ (इसे आप ‘सत्याग्रह’ भी कह सकते हैं) जो कि कुछ और नहीं बल्कि प्रेम का पाठ है। प्रेम इंसान के जीवन का एकमात्र और सर्वोच्च नियम है और यह बात हर इंसान की आत्मा भी जानती है। इसी प्रेम की उद्घोषणा सभी संतों ने की है फिर वह चाहे भारतीय हो, चीनी हो, यहूदी हो, यूनानी हो या रोमन हो।
इससे ठीक विपरीत जर्मनी में वुटेमबर्ग के एक यहूदी परिवार में जन्मे दुनिया के महानतम वैज्ञानिकों में से एक माने जानेवाले अल्बर्ट आइंस्टीन, गाँधीजी के जीवन दर्शन से बेहद प्रभावित थे। ये तो हम सब जानते हैं कि दो अक्टूबर, 1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिवस पर आइंस्टीन ने अपने संदेश में लिखा- “आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-माँस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।” इस कथन के पीछे की कहानी जानना भी उतना ही ज़रूरी है।
शुरू में अल्बर्ट आइंस्टीन दो महान वैज्ञानिक आइज़क न्यूटन और जेम्स मैक्सवेल को ही अपना आदर्श मानते थे। वे अपने कमरे में इन दोनों वैज्ञानिकों की पोर्ट्रेट रखते थे, लेकिन अपने सामने दुनिया में तरह-तरह की भयानक हिंसक त्रासदी देखने के बाद आइंस्टीन ने अपने कमरे में लगे इन दोनों वैज्ञानिकों की पोर्ट्रेट के स्थान पर दो नई तस्वीरें टांग दीं। इनमें एक तस्वीर थी महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटज़र की और दूसरी थी महात्मा गाँधी की। उन्होंने कहा कि “समय आ गया है कि हम सफलता की तस्वीर की जगह सेवा की तस्वीर लगा दें।”
पदार्थ विज्ञान की गुत्थियों को सुलझाते हुए भी आइंस्टीन धर्म, अध्यात्म, प्रकृति और कल्पनाशीलता जैसे विषयों पर लगातार चिंतन करते रहे। और जब-जब भी उन्हें लगा कि विज्ञान और एकांगी तर्कवाद अपने अहंकार पर सवार होकर समूची मानवजाति के लिए ही संकट बन सकता है, तब-तब उन्होंने अहिंसा, विनम्रता, सेवा और त्याग की बातें कीं। ऐसे अवसरों पर उनके सामने बार-बार महात्मा गाँधी का जीवन एक आदर्श उदाहरण के रूप में सामने आता रहा। लियो टॉल्सटॉय की तरह उन्होंने भी गाँधीजी को पत्र लिखे।
गाँधी जी के बारे में उन्होंने लिखा, “नैतिक पतन के हमारे युग में गाँधी अकेले ऐसे स्टेट्समैन थे, जिन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में भी मानवीय संबंधों की उस उच्चस्तरीय संकल्पना का प्रतिनिधित्व किया, जिसे हासिल करने की कामना हमें अपनी पूरी शक्ति लगाकर अवश्य ही करनी चाहिए। हमें यह कठिन सबक सीखना ही चाहिए कि मानव जाति का भविष्य सहनीय केवल तभी होगा, जब अन्य सभी मामलों की तरह ही वैश्विक मामलों में भी हमारा कार्य न्याय और कानून पर आधारित होगा, न कि ताकत के खुले आतंक पर, जैसा कि अभी तक सचमुच रहा है।”
आइंस्टीन के धर्म-विषयक विचारों पर गाँधीजी के जीवन का प्रभाव बहुत अधिक था। स्वार्थ-त्याग और सेवा का जीवंत उदाहरण बन चुके गाँधी उनके अवचेतन में कहीं न कहीं मौजूद थे, तभी उन्होंने अपने प्रसिद्ध लेख ‘साइंस, फिलॉसॉफी एंड रिलीजन’ में शुद्ध धार्मिक व्यक्ति की पहचान ऐसे व्यक्ति के रूप में की- “जो निजी आशाओं और आकांक्षाओं के बन्धन से मुक्त होकर चलने का प्रयास करता है, जो प्रकृति में निहित तार्किकता को विनम्रता से पहचानते हुए चलता है, जिसने स्वयं को स्वार्थों से मुक्त कर लिया है और ऐसे विचारों तथा भावनाओं में लीन रहता है, जो निज से परे होती हैं।”
दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, म्यामांर की आंन सांग सू ची, यासर अराफ़ात जैसे लोगों ने भी गाँधी-मार्ग को अंततः मनुष्यता का विकल्प बताया है। अमेरिका के ‘गाँधी’ कहे जानेवाले अमेरिकी नागरिक अधिकारों के संघर्ष के प्रमुख नेता डॉ० मार्टिन लूथर किंग, जूनियर (15 जनवरी 1929 – 4 अप्रैल 1968) गाँधी जी को अपना मार्गदर्शक मानते थे। किंग जूनियर लिखते हैं, “ज्यादातर लोगों की तरह मैंने भी गाँधी के बारे में सुना जरूर था, लेकिन उन्हें गंभीरता से पढ़ा नहीं था। जैसे-जैसे मैं उन्हें पढ़ता गया, वैसे-वैसे उनके अहिंसक प्रतिरोध के अभियानों के प्रति मैं अत्यधिक मंत्रमुग्ध-सा होता गया। गाँधी संभवतः इतिहास के ऐसे पहले शख्स होंगे, जिन्होंने ईसा मसीह के प्रेम की नीति को महज व्यक्तियों के बीच की नीति से ऊपर उठाकर बड़े पैमाने पर एक शक्तिशाली और प्रभावी सामाजिक बल के रूप में स्थापित कर दिया। प्रेम गाँधी के लिए सामाजिक और सामूहिक परिवर्तन का एक शक्तिशाली उपकरण था। प्रेम और अहिंसा पर इस गाँधीवादी जोर में ही मैं सामाजिक सुधार का वह तरीका खोज पाया जिसे मैं कब से ढूंढ़ रहा था।”
अमेरिका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति रह चुके बराक हुसैन ओबामा भी गाँधीजी के अहिंसा जैसे तर्क और ‘सत्याग्रह’ जैसे आचरण से ज्यादा प्रभावित हैं। नवम्बर 2015 में एक सभा में उन्होंने युवाओं को प्रेरित करने के लिए महात्मा गाँधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर का ज़िक्र किया था।
हाल ही में 25 सितंबर 2019 के दिन न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गाँधीजी पर अपने विचार रखते हुए कहा, “महात्मा गाँधी ने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का बीड़ा उठाया, जो सरकार पर निर्भर न हो। उन्होंने वह दिशा दिखाई जिसमें लोग स्वावलंबी बनें। उन्होंने लोकतंत्र की असली शक्ति पर बल दिया। लोगों की आंतरिक शक्ति को जगाकर उन्हें स्वयं परिवर्तन लाने के लिए जागृत किया। अगर आज़ादी के संघर्ष की जिम्मेदारी गाँधीजी पर न होती, तो भी वे स्वराज और स्वावलंबन के मूल तत्व को लेकर आगे बढ़ते। गाँधीजी की यह सोच आज भारत के सामने बड़ी चुनौतियों के समाधान का बड़ा माध्यम बन रही है।”
भारत का आम आदमी, भारत के राजनीतिज्ञ, भारत के पत्रकार, भारत के न्यूज चैनल्स या सोशल मीडिया, जो भी चर्चा करते हुए गाँधीजी पर अपना अभिमत व्यक्त करते हैं, उन्हें पूरी छूट है पर किसी व्यक्ति विशेष पर अपनी राय देने से पहले यह ज़रूरी होता है कि वे उस व्यक्ति के जीवन के हर पहलू के बारे में जाने फिर अपनी राय दें। गाँधीजी ने जो कहा, उसका पालन करते हुए ही अपना जीवन बिताया।
गाँधी मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाने वालों को अपना आचरण गाँधी की भांति बनाना होगा, तभी गाँधी के सपनों को सच कर पाएँगे। उनका कार्य देश की आज़ादी तक ही सीमित नहीं था। आज हमें एक ऐसा माहौल कायम करने की आवश्यकता है, जहाँ गाँधी मूल्यों के प्रति आस्था बनी रहे। आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सत्य, अहिंसा और सामाजिक कल्याण के पाठ ही विश्व शांति के लिए सच्ची प्रेरणा बन सकते हैं।
संदर्भ- गाँधीजी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’, satyagrah.scroll.in और कुछ अन्य वेब साइट्स
– मल्लिका मुखर्जी