मूल्याँकन
संवेदनाओं का सूक्ष्मता से अंकन करता संग्रह: चुप्पियों को तोड़ते हैं
– के. पी. अनमोल
नवगीत ने अपनी बिम्ब-प्रतीक योजना, भाषाई संरचना और समकालीन विषयों की प्रस्तुति के कारण गीत विधा से कुछ आगे का रास्ता तय किया है। आज इस धारा के पास अपना एक इतिहास है, जिस पर गर्व किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य के ऐसे अनेक नवगीत हैं, जो अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं। इसी तरह नवगीतकारों में अनेक नाम हैं, जो अपना मुक़ाम रखते हैं। माहेश्वर तिवारी, नचिकेता, शान्ति सुमन, कुमार रवीन्द्र, बुद्धिनाथ मिश्र इनके कुछ उदाहरण हैं।
आज गीत-नवगीत की नयी खेप इस विधा को और आगे के आयाम देने के लिए अपनी तरह की कहन और ढंग से सृजनरत है। अनेक युवा नवगीतकार हैं, जो इस समय नवगीत को बुलन्दियाँ देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस कड़ी में एक नाम है- योगेन्द्र प्रताप मौर्य। जौनपुर (उ.प्र.) निवासी योगेन्द्र प्रताप जी का पहला नवगीत संग्रह ‘चुप्पियों को तोड़ते हैं’ पिछले दिनों बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है। यह संग्रह कई मायनों में विशिष्ट कहा जा सकता है। उनमें से एक यह कि यह संग्रह स्पष्ट करता है कि नवगीत का भविष्य किस तरह सुरक्षित हाथों में है। कुल 55 नवगीतों के इस संग्रह से गुज़रते हुए यह एह्सास होता है कि नवगीत भी ग़ज़ल विधा की ही भांति समाज के अंतिम व्यक्ति तक अपनी पहुँच बना रहा है। इन रचनाओं में लोक की उपस्थिति है, लोक जीवन की महक है। वर्तमान समाज की विसंगतियाँ, हास-उल्लास है, चिंताएँ-समस्याएँ हैं।
प्रस्तुत संग्रह सामान्य वर्ग के इंसान की अभिव्यक्तियों को शब्दबद्ध करता दिखाई देता है, साथ ही इसके गीतों में ग्राम्य अथवा ठेठ देहाती जीवन का परिवेश जीवन्त होकर आता है। इसका कारण शायद रचनाकार का ग्रामीण जीवन में रचा-बसा होना हो। इस पुस्तक के नवगीतों में आये पात्रों पर नज़र डालें तो मेरी उपरोक्त बात प्रामाणित होती दिखती है। गीतों के पात्र- चाय-पान की गुमटी वाले हरिया, सीधे-सादे रामबुझावन, सगड़ी खींचता होरी, अलगू की औरत, बूढी दादी आदि हैं, जो सीधे-सीधे लोक जीवन से सम्बद्ध हैं।
एक तरफ जहाँ संग्रह की रचनाओं में विभिन्न सरोकार और चिंताएँ दिखाई पड़ती हैं, वहीँ इनका रचाव और परिवेश बाँधे रखने का काम करता है। पुस्तक में क़ानून की विवशता, गुंडागर्दी और बलवाई का ज़ोर, जन-सामान्य में व्याप्त भय तथा असंतोष, भ्रष्टाचार, रीति-रिवाज़ों और संस्कृति के अपकर्ष पर चिन्ता, संस्कारों एवं नैतिक मूल्यों का ह्रास, गाँव और किसानों की समस्याएँ, बढ़ती महँगाई, बच्चों पर पढ़ाई का ज़रूरत से ज़्यादा बोझ, तकनीक के बढ़ते प्रयोग से पर्यावरण का विनाश, बदलती जीवनशैली के प्रति चिन्ता, बढ़ती बेरोज़गारी का दंश, नई पीढ़ी में नशे की लत, व्यवस्था के प्रति रोष, त्यौहार-उत्सवों का चित्रण, आपसी सद्भाव पर बल, विकास और ख़ुशहाली के सपने आदि वे तमाम विषय कथ्य के रूप में मौजूद हैं, जिन्हें समकालीन साहित्य में होना चाहिए। इस तरह यह काव्य संग्रह अपनी गीति रचनाओं में वह सब रचता है, जो लोक को सचेत करने के लिए रचना ज़रूरी है।
इन सरोकारों के अलावा पुस्तक की रचनाओं से उठती लोक जीवन की महक अन्तर्मन को सराबोर कर जाती है। गीत का जन्म ही लोकगीतों से हुआ है, इस लिए गीत से लोक को अलग करके देखा जाना संभव नहीं। संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए यह स्पष्ट होता है कि रचनाकार का लोक जीवन से गहरा जुड़ाव है।
छिपा हथेली में
क्या-क्या है
बाँचे यहाँ पुजारी
बहना बैठेगी डोली में
एक बरस के अन्दर
झूरी खुश है उसे मिलेगी
बीवी सबसे सुन्दर
उगता सूरज
ले आएगा
कुमकुम, पान, सुपारी
यहाँ एक युवा के मन की उन तरंगों का चित्रण है, जो युवावस्था की दहलीज़ पर आकर हिलोरें लेती हैं। ‘पुजारी का हथेली बाँचना’ तथा ‘सूरज का कुमकुम, पान-सुपारी लाना’ लोक जीवन की विशिष्ट गतिविधियाँ हैं, जो गीत के सौन्दर्य में मिठास भरती हैं।
पुस्तक में वर्तमान यथार्थ अपने समस्त खुरदुरेपन के साथ उपस्थित मिलता है। आम जीवन धरातल पर भूख और बेरोज़गारी की समस्या से त्रस्त है तो ये समस्याएँ इस संग्रह की रचनाओं में मुँह बाये खड़ी मिलती हैं। यहाँ रचनाकार फूल-पत्तियों और बादलों पर आसक्त न होकर पाठकों को ठण्डी छाँव में बहलाने की बजाय सार्थक चिन्तन-मनन की ओर उन्मुख करता दिखता है। यही एक साहित्यकार का दायित्व होता है।
पीड़ा देती
भूख पेट को
नहीं अन्न के दाने
बूढी काकी
ओसारे में
कैसे गाए गाने!
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टॉवरों पर
विषधरों का
हो गया देखो बसेरा
गाँव-घर में
भुखमरी अब
डालती है रोज़ डेरा
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डिगरी वाली
फ़ाइल लेकर
रोज़ भटकते बंदे
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इंतज़ार में
दुखती आँखें
ढूँढ रहीं नौकरियाँ
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छीन लिया है
तकनीकी ने
सब हाथों से काम
भटक रही है
यहाँ दिहाड़ी
हुई सुबह से शाम
खाली हाथों
घर लौटा दिन
भूखे बीती रैन
गीत ‘हो गये वे ही कलंकित’ में रचनाकार साहित्यिक मंचों के साथ-साथ धार्मिक आयोजनों के दूषित होने पर चिन्ता व्यक्त करता हुआ कहता है कि वे जो पूजित थे, कलंकित हो गये हैं। चुटकुलों के आक्रमण के बाद कविता का मंचों से निर्वासन और अंधश्रद्धा के दम पर फलीभूत होता ढोंगियों का कारोबार हमारे समय की बड़ी विसंगतियाँ हैं। इन्हें नज़रन्दाज़ कर हम भारी ख़ामियाजा भुगतेंगे।
था प्रगति पर
‘मंच’ लेकिन
आज जड़वत हो चुका है
‘मन्त्र’ से
‘सत्संग’ तक सब
कटघरे में
खो चुका है
ढोंगियों के
कारनामों से-
शहर है रक्तरंजित
एक साहित्यकार का धर्म होता है निराशा के घेरों में आशा का संचार करना। वह युगों-युगों से ऐसा करता आया है। यहाँ भी योगेन्द्र जी का साहित्यकार अपने समय की जनता के निराश मन में आशा और सृजन के बीज बोता हुआ दिखाई देता है। आज जनता आज़ादी के 70 सालों बाद ख़ुद को चारों तरफ से ठगे जाने का एह्सास कर एक अजीब निराशा के घेरे में क़ैद हो रही है लेकिन कवि उसे उकसाते हुए इन पक्तियों के माध्यम से उसके मानस में ऊर्जा का संचार करता है-
हम नहीं हैं
मूक मानव
चुप्पियों को तोड़ते हैं
वेदना मन में
जगी है
किन्तु कब ये नैन रोते
हम धधकती
भट्ठियों में
हैं सृजन के बीज बोते
यह पुस्तक का शीर्षक गीत भी है। ढीली पड़ी नसों में आशा का बिगुल फूँकता यह गीत शीर्षक का हक़दार है। इसी तरह के एक और गीत की कुछ पंक्तियाँ देखिए-
तानाशाही
नहीं चलेगी
अब आँधी-तूफ़ानों की
बिस्तर बाँध
निशा लौटेगी
होंगे नए सवेरे
पाबन्दी के
किले ढहेंगे
टूटेंगे सब घेरे
दूर तलक
आवाज़ सुनायी
देगी बंद ज़ुबानों की
आज का युग बदलाव का युग है। इस समय हर एक क्षेत्र में बदलाव दिखाई दे रहे हैं। एक ज़रूरी बदलाव हमारे समाज में देखा जा रहा है- स्त्री का बंधे-बंधाये घेरे से बाहर निकलना। आज स्त्रियाँ तमाम क्षेत्रों में पुरुष के साथ चलती दिखाई दे रही हैं। इस सकारात्मक परिवर्तन को गीतकार यूँ प्रकट करते हैं-
निशिदिन गढ़तीं
यहाँ बेटियाँ
नए-नए प्रतिमान
तोड़ प्रथाएँ
निकली घर से
अब तो बाहर बेटी
जैसे मुट्ठी में
यह दुनिया
उसने आज समेटी
जल-थल नाप
उड़ातीं नभ में
देखो आज विमान
यह प्रशंसा गान एक सुखद परिदृश्य सामने रखता है। यह परिदृश्य बीते सालों में बहुत बदला है लेकिन इस बदलाव के लिए बहुत संघर्ष, बहुत जीवट की ज़रूरत पड़ी है और इसीलिए इस बदलाव की क़ीमत भी बढ़ जाती है। गीत के आगे के बंद में रचनाकार यह भी स्पष्ट करते हैं कि इस स्थिति तक पहुँचने के लिए स्त्री ने स्वयं ही अपनी नाव पार लगाई है। तमाम तकलीफ़ें, रुकावटों का ख़ुद सामना किया है-
अपनी रक्षा
का जब बेटी
बीड़ा स्वयं उठाती
मन में
घर कर बैठे तानों
को तारे दिखलाती
इस धरती को
हर बेटी पर
होता है अभिमान
पेड़ सदियों हमारे मित्र रहे हैं, मित्र भी ऐसे कि जो अपनी हर कीमती चीज़ हमें सौंपते आये हैं। हर सुख-दुख में हमारा साथ निभाते आये हैं। ये वे सच्चे मित्र हैं, जिन्हें हर अवसर पर याद रखा जाना चाहिए था लेकिन हाय मानव स्वभाव, उसने हर ऊँचाई के बाद अपनी जड़ों को छोड़ा और अब वह ज़माने की रफ़्तार के साथ ऐसा बह गया कि उसे कुछ होश नहीं कि कौन उसका सच्चा हमदर्द है। अफ़सोस की बात तो यह कि इतने अहसानों के बावजूद उसने अपने इस साथी को ऐसे बिसरा दिया, जैसे वह उसका कुछ है ही नहीं। इसी हमदर्द की महत्ता बतलाता एक बेहद ज़रूरी और मार्मिक गीत संग्रह में दिखता है-
द्वार पर
जो नीम
वर्षों से खड़ा है
धूप, वर्षा,
आँधियों से
खेलता है
वक़्त की हर
मार ख़ुद ही
झेलता है
लग रहा
परिवार का
बेटा बड़ा है
विस्तृत कथ्य और ज़रूरी सरोकार लिए यह संग्रह गीत परम्परा को सार्थक गति देता हुआ प्रतीत होता है। लोकगीतों से साहित्यिक गीतों तक की सदियों की इस अनवरत यात्रा में लोकरंजन के साथ जो एक प्रधान तत्व है- चिन्तन, वह इस संग्रह में दृढ़ता से उपस्थित है। यह संग्रह अनेक विमर्शों को अपने अन्दर समेटे है, जो आज की ज़रूरत है। ख़ासकर ग़ज़ल और गीत जैसी विधाओं जिन्हें धरातल से विरक्त विधाएँ कहकर सालों से नकारा जाता रहा है, उनमें सरोकारों की ऐसी प्रबल अभिव्यक्ति मिलना इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफ़ी है। इतना ही नहीं, योगेन्द्र मौर्य अपनी इस सार्थक प्रस्तुति में कथ्य के साथ-साथ शिल्प पक्ष में भी मज़बूती से खड़े मिलते हैं। गीत की पहली ज़रूरत लय का ध्यान रखते हुए वे परिष्कृत भाषा का इस्तेमाल करते हैं। साथ ही बिम्ब व प्रतीकों की अद्भुत योजना हमारे सामने रखते हैं। गीत से नवगीत के इस नयेपन का भी वे बख़ूबी ध्यान रखते हैं और अपनी भाषा-शैली से कई बार चोंकाते हैं-
हवा यहाँ
कर रही मुखबिरी
बनके सबकी दाई
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बादलों की
मटकियों को
कंकड़ों से फोड़ते हैं
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वादों से
बनती सत्ताएँ
ठहरी ‘हिलती दुम’ हैं
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आम-आदमी
टूटा-चिटका
यहाँ काँच के प्याले-सा
कथ्य, कहन और भाषा-शैली के मानकों पर खरा उतरते हुए संवेदनाओं का सूक्ष्मता से अंकन करता यह संग्रह पूरी तरह आज के समय की सार्थक अभिव्यक्ति जान पड़ता है।
समीक्ष्य पुस्तक- चुप्पियों को तोड़ते हैं
विधा- नवगीत
रचनाकार- योगेन्द्र प्रताप मौर्य
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्करण- प्रथम 2019
मूल्य- 150 रूपये
– के. पी. अनमोल