दिल्ली में इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली एक और घटना ने फिर से यह प्रश्न खड़ा कर दिया कि आख़िर किस समाज का हिस्सा हैं हम एवं क्यों और किसके लिए जी रहे हैं? एक तड़पते हुए व्यक्ति को देखकर क्यों, किसी की संवेदनाएँ उद्वेलित नहीं होतीं? ऑटो वाला अपनी गाड़ी में लगे निशान को लेकर चिंतित है, रिक्शे में बैठे लोग निर्धारित स्थान पर पहुँचने की जल्दी में होते हुए भी मोबाइल चोरी की अनुमति दे देते हैं। लाश के इर्द-गिर्द चलती दुनिया के माथे पर शिकन तक नहीं रेंगती? ये कैसी वीभत्स तस्वीर है?
परंतु ‘दिल्ली अब दिल वालों की नहीं रही’, सिर्फ इतना कह देने भर से समस्या से हाथ नहीं झाड़ा जा सकता? हो सकता है, दिल्ली का दिल भर हो गया हो! जब अपराधी निश्चिन्त घूमें, जमानत आसान हो और पुलिस का डर न रहे तो संवेदनाशून्य हो जाना दुःखद है पर दुर्लभ नहीं।
क्या बात सचमुच दिल्ली की ही है? बुलंदशहर, रोहतक, बंगलौर, मुज़फ्फरनगर ये सब तो नाम भर हैं। हर प्रदेश, हर शहर, गाँव, कस्बे में नित नए अपराध सबकी नींद उड़ा देते हैं। जीना कितना मुश्किल हो गया है या फिर ये कहिये कि मरना आसान हो चला है। ऐसा नहीं कि यह सभी घटनाएँ इन दिनों ही घट रहीं हैं, ये तो वर्षों से चला आ रहा है। अंतर मात्र इतना है कि अब मीडिया और सोशल साइट्स की सक्रियता से नोटिस में भी आने लगा है।
संवेदनाएं यूँ ही समाप्त नहीं होती जा रहीं, ये एक अनवरत प्रक्रिया से गुजर रहीं हैं।
हर घटना के लिए सरकार(कोई भी हो) को ही पूरी तरह से उत्तरदायी ठहराना सही नहीं। हम नारे लगाते हैं, हड़ताल करते हैं, तोड़फोड़ करते हैं और आवश्यकतानुसार दुर्बुद्धि का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट करने से भी नहीं चूकते। हमें अपने अधिकारों का तो खूब भान है लेकिन देश के प्रति अपने कर्त्तव्य अत्यंत सहजता से भूल जाते हैं। यहाँ ‘हम’ का तात्पर्य उन तमाम नागरिकों से है, जो-
* ‘बेटी बचाओ’ का आह्वान कर बेटों को ‘गलतियों’ की पूरी छूट देते हैं।
* जो बच्ची, युवती और वृद्धा से बलात्कार का दोषी उनके वस्त्र-चयन को ठहराते हैं।
* ‘सफाई अभियान’ की प्रशंसा करते हुए, पान की पिचकारी कहीं भी उछाल देते हैं। धीरे-धीरे वो दीवार एक सप्ताह के भीतर ही किसी दुर्गंधयुक्त कलाकृति में परिवर्तित हो जाती है। फिर ये व्यवस्था को कोसते हुए नाक सिकोड़कर उसी रास्ते से गुजरते हैं।
* ‘सुलभ शौचालयों’ की सुलभ गंदगी को खरीखोटी सुनाकर, पानी चलाना भूल जाते हैं।
* सार्वजानिक स्थानों पर खाली रैपर्स के हवाई-जहाज उड़ा अपने बचपन को जीवित रखने की भौंडी कोशिश करते हैं।
* पानी की बोतल को खाली करते ही चुपचाप किसी कोने में खिसका आते हैं।
* ‘नो-पार्किंग’ के ठीक सामने पार्किंग कर अपने वीर होने की पुष्टि करते हैं।
* जहाँ फोटो लेने की मनाही हो, उसी जगह पर विभिन्न मुद्राओं में अपना पोर्टफोलियो तैयार कर अपलोड भी कर देते हैं।
* राष्ट्रीय स्मारकों पर अपने पहले, दूसरे और हर सच्चे प्रेम की निशानी छोड़ आते हैं।
इसे अपना दुर्भाग्य ही समझिये कि देशप्रेम का बिगुल बजाने वाले उक्त देशवासियों की संख्या अभी तक पर्याप्त मात्रा में उपस्थित है। अतः देश को इन सभी मानसिकताओं से ‘स्वतंत्र’ होना भी शेष रह गया है। उसके बाद आशा की जा सकती है।
अब कुछ बातें सरकार/विपक्ष दोनों से-
* अगर समस्या को दूर करने में वाक़ई दिलचस्पी है। तो उस पर चर्चा कुछ इस तरह करें कि देशवासियों का समय और पैसा नष्ट न हों।
* पुलिस को उसके हिस्से का सम्मान और वेतन दिलवाइये कि इन पर आलस्य, बेईमानी और रिश्वतखोरी का आरोप न लगे।
* अपराधी के हृदय में, अपराध के परिणामस्वरूप भीषण सजा का भय उत्पन्न कीजिये।
* हर क़िस्म, हर उम्र के बलात्कारी की एकमात्र सजा फांसी तय हो और वो भी एक सप्ताह के भीतर ही।
* कानून द्वारा सही समय पर उचित न्याय देने की दिशा में भी पहल हो क्योंकि सबसे अधिक मख़ौल इसकी बंधी पट्टी और लचर ढाँचे का ही बनाया जाता है।
* भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठिन कानून बने और लागू भी हो।
* पुरुषों के मस्तिष्क में ये बात बिठाई जाए कि उनके घर के बाहर की स्त्रियों की संरचना भी उनके परिवार की स्त्रियों जैसी ही है। वैसे ये प्रत्येक नागरिक की व्यक्तिगत जिम्मेदारी अधिक है।
एक अनुरोध सभी सम्माननीय नागरिकों से-
* अपने परिवार के सदस्यों को शिक्षित बनाएँ।
* उन्हें भाषा और व्यवहार की सभ्यता सिखाएँ।
* धर्म, जाति, भाषा, लिंग से इतर प्रत्येक मनुष्य का सम्मान करना सिखाएँ।
* अन्धविश्वास, पाखंड के मायाजाल से निकलें।
* कार्य के प्रति समर्पण और मेहनत सिखाएँ।
* दयालुता, करुणा, संवेदना का ज्ञान कराएँ।
* भेदभाव से मुक्त हो जाएँ।
* ईर्ष्या, द्वेष दूर भगाएँ।
* दीवार पे पान की पीक , सड़क पर गन्दगी न फैलाएँ।
* चौराहों से जानवर हटवाएँ।
* बुजुर्ग और शारीरिक रूप से अक्षम को रास्ता दिखलाएँ।
* सड़क पर कराहते इंसान को समय पर अस्पताल पहुंचाएँ और फिर एम्बुलेंस के रास्ते से हट जाएँ।
पहले इंसानियत अपनाएँ, फिर समाज बनाएँ/ बचाएँ। पर पानी सिर से ऊपर निकले, तब तक संभल जाएँ। अन्यथा मरते दम तक ऐसे ही चीखें-चिल्लाएँ। आँसू बहाएँ।
आजादी?
उसकी बातें छोड़ें अभी….पहले देश को तो ठीक से अपनाएँ।
जब ठीक-सा लगने लगे, तब ढोल ताशे बजाएँ, नाचे गाएँ और खूब जम के आजादी के गीत गुनगुनाएँ।
लेकिन उसके पहले तक सोमवार की छुट्टी ही मनाएँ।
एक अतिरिक्त अवकाश मुबारक़ हो! 🙂
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चलते-चलते: इधर सुरक्षा के नाम पर शाहरुख़ खान के साथ हुए दुर्व्यवहार (घंटों पूछताछ) के मामले ने तूल पकड़ा है। ये हम भारतीय ही हैं, जो अपने नेता, अभिनेता, उद्योगपति या यूँ कहूं कि पैसों और ग्लैमर की चकाचौंध में रहने वाले हर इंसान को भगवान की तरह पूजते हैं। उनके साथ सेल्फी खिंचवाकर धन्य हो जाते हैं पर इनमें और हममें जो मुख्य अंतर है वो कार्यक्षेत्र का है। परंतु जहाँ नियमों की बात हो ये भी सामान्य नागरिक ही हैं और रहने ही चाहिए। अमेरिका ने तीसरी बार इस बात की पुष्टि की। पर एक-सा नाम होने के कारण किसी को परेशान करना सही नहीं। विचार करें, ये तो शाहरुख़ थे जो छोड़ दिए गए, अगर इसी नाम का कोई सामान्य व्यक्ति होता तो उसका क्या हश्र होता? परिवर्तन ‘यहाँ’ होना आवश्यक है। ‘सब एक हैं’ की सोच से कोई नुकसान नहीं होने वाला। एकता को बल ही मिलेगा।
बीते दिनों में कविता, पुरस्कार और नकली-असली आई डी के तमाशे ने खूब टी.आर.पी. बटोरी और हर मुद्दे की तरह अपने पीछे कई अनुत्तरित प्रश्न छोड़ता हुआ, यह किस्सा भी अब ठंडा होता जा रहा है। आभासी दुनिया का सच और झूठ अधिकांशतः गड्डमगड्ड हो जाता है। यहाँ साथियों/ सहमति/असहमति की संख्या के आधार पर विजेता तय होते हैं। पर पार्श्व में चलते किसी नीरस बैकग्राउंड स्कोर की तरह बजते हुए सबको अपनी जीवंत उपस्थिति का अहसास कराना कभी नहीं भूलते।
इन सबके साथ ओलंपिक भी गति पकड़ चुका है पर उसकी विस्तृत चर्चा करने के लिए सभी परिणामों तक रुकना उचित रहेगा। फिलहाल भारतीय दल को शुभकामनाओं की नितांत आवश्यकता है, सो वही भेज रहे। 🙂
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– प्रीति अज्ञात