संघर्ष……….अभी जारी है!
साहित्य की समृद्धि में महिलाओं की क्या भूमिका है?
इस विषय पर जब भी मनन करती हूँ तो यही अनुभूति होती है कि महिला साहित्यकारों की बात तो बाद का किस्सा है। साहित्य की समृद्धि के लिए तो महिलाओं की इस दुनिया में मौजूदगी ही काफी है। सोचिये, अगर स्त्री न होती तो साहित्य कैसे जन्मता? प्रेम कविताएँ कैसे रची जातीं? किसकी विरह वेदना का मान होता? कौन कविताओं का श्रृंगार बनता और कैसे माँ का जय-जय गान होता? कैसे घर-परिवार और रिश्तों की कहानियाँ जन्म लेतीं? किसके नख-शिख का वर्णन होता? चाँद से किसकी तुलना होती और किसकी ज़ुल्फ़ों-सी घटा होती? नदियाँ बन कौन बहता? किसके नैनों में सावन होता? कौन फूलों की पंखुरी-सा खिल जाता, कौन लाजवन्ती-सा लजाता? बताइये, आख़िर फिर साहित्य में क्या लिखा जाता? तो सबसे पहले तो इस ओर ध्यान आकर्षित होना चाहिए कि लेखिका/ कवियत्री हो न हो, नारी की उपस्थिति मात्र ही साहित्य-सृजन की धुरी है। वो आपकी हर सोच, हर शब्द, हर अभिव्यक्ति में है।
यदि हम इतिहास को खंगालकर देखें तो प्रारम्भ से ही हर क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी रही है, चाहे वह युद्ध भूमि हो या राजनीति। सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के लिए भी उसकी भूमिका को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वो सत्ता भी संभालती रही, घर-बार भी, उसने लड़ाइयाँ भी जीतीं और खेती-बाड़ी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण जो भी रहा हो पर वे अपने अधिकारों के प्रति हमेशा सजग रही हैं। यदि स्त्री अबला, असहाय, पीड़ित और शोषित वर्ग का हिस्सा रही है तो उसने देश में व्याप्त कुरीतियों, अत्याचार, अनाचार के विरुद्ध भी खुलकर बोला है और यह कहना गलत न होगा कि उनकी लेखनी की अभिव्यक्ति में विद्रोह के स्वर भी सदैव ही मुखरित होते रहे हैं।
जब हम साहित्य में महिलाओं की चर्चा करते हैं तो मध्य युग में झाँकने पर मीराबाई का नाम तुरंत ही मस्तिष्क में कौंधता है, इनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता के साथ प्रेम का गहन और आत्मिक रूप देखने को मिलता है, जो कि आज भी उतनी ही श्रद्धा के साथ हम सबको प्रिय और प्रेरणादायी रहा है। प्रेम कविताओं के अतिरिक्त उन दिनों नैतिक और सामाजिक मूल्यों पर भी सबकी कलम बराबर बोलती थी और जो भी लिखा जाता था वह जीवन के ठोस यथार्थ की मिट्टी से निकला हुआ होता था। इसमें पीड़ा थी और उससे निकलने की छटपटाहट भी पर बंधनों को तोड़ने की अभिलाषा कहीं भी पनपती दिखाई नहीं देती थी। एक शालीन दायरे के भीतर रहकर ही रचनाओं का जन्म हुआ करता था। आज के दौर की कविताओं में घर-परिवार, रिश्ते, फूल, तितलियाँ, मुट्ठी भर धूप और आम ज़िंदगी से जुड़े विषय सर्वोपरि दिखाई देते हैं, संभवत: यही कारण है कि कभी-कभी कुछ रचनाओं में दोहराव का आभास होता है। कुछ महिलाएँ समाज की पुरानी, दकियानूसी परम्पराओं, दहेज़ प्रथा, भ्रूण हत्या, राजनीति पर भी खुलकर लिख रहीं हैं। थोड़े संकीर्ण दायरे के होते हुए भी इनमें देशकाल और समाज के प्रति विद्रोह के स्वर सुनना एक अच्छा संकेत है पर मुख्यत: यह कहानियों में व्यापक तौर पर दृष्टिगोचर होता रहा है।
मीरा बाई भक्तिकाल की सबसे लोकप्रिय कृष्णभक्त कवियत्री थीं। चूंकि इनके क्रियाकलाप तत्कालीन परंपरा के अनुकूल नहीं थे, इसलिए इन्हें विद्रोही भी कहा गया पर ये अत्यंत आध्यात्मिक प्रवृत्ति की थीं और इनके पदों को भजन की तरह आज भी गाया जाता है। इनके द्वारा रचित प्रमुख संग्रह बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ हैं। ‘पदावली’ इनकी प्रमाणित काव्यरचना है।
महादेवी वर्मा जी, जिन्हें आधुनिक मीरा भी कहा जाता है, छायावादी युग की प्रमुख स्तम्भ थीं और कवि निराला ने इन्हें हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती कहा था। दुःख-पीड़ा, विरह, प्रेम, विषाद महादेवी वर्मा के काव्य के मूल स्वर हैं और भावतरलता और प्रतीकात्मकता इनकी विशेषता रही है। लेकिन इसमें कुंठित भाव न होकर नारी सुलभ स्नेह, धैर्य, त्याग और परोपकार की असीम उत्कंठा बरबस आपका मन जीत लेती है।
मैं नीर भरी दुःख की बदली!
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा कभी न अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी थी कल मिट आज चली
महादेवी वर्मा ने समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति भी अपनी लेखनी की आवाज़ खूब बुलंद की है।
राष्ट्रीय चेतना के लिए सजग रचनाकारों में आधुनिक युग की सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम पूरे सम्मान के साथ लिया जाता है। कौन भूल सकता है-
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥
या फिर ये याद कीजिये –
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
शिवानी, हिन्दी की सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थीं। इनकी हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू तथा अंग्रेज़ी पर भी अच्छी पकड़ थी। इन्हें किरदारों का अद्भुत चरित्र चित्रण करने और कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि जागृत करने का श्रेय भी दिया जाता है।
साहित्य के मजबूत स्तम्भ के रूप में कृष्णा सोबती जी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है, पंजाब के ग्रामीण जीवन पर केंद्रित इनका उपन्यास ‘ज़िंदगीनामा’ खासा चर्चित रहा। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में निर्मला जैन जी विशिष्ट स्थान रखती हैं। मन्नू भंडारी जी द्वारा लिखित ‘आपका बंटी’ हिंदी के सफलतम उपन्यासों में से एक है। जब कथाकारों की बात आती है तो उषा प्रियंवदा का नाम भी तुरंत ज़हन में उभरता है। इन्होने अपनी अभिव्यक्ति से आधुनिक जीवन शैली की छटपटाहट को सशक्त स्वर दिए हैं। ‘पचपन खम्बे लाल दीवारें’, ‘ज़िन्दगी और गुलाब के फूल’ इनके प्रमुख उपन्यास हैं।
समकालीन महिला साहित्यकारों की सूची में पद्मा सचदेव, अचला नागर, चंद्रकांता, चित्रा मुद्गल, निर्मला देशपांडे, पुष्पा भारती, ममता कालिया, मालती जोशी, मृणाल पाण्डे, मृदुला गर्ग, मेहरुन्निसा परवेज, मैत्रेयी पुष्पा, सरोजनी प्रीतम, सूर्यबाला जी प्रमुख हैं। इसके अलावा भी अनगिनत सशक्त, संवेदनशील आवाजें हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य की समृद्धि में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है और अभी भी उनकी लेखनी उतनी ही सक्रिय है। यदि हम हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं में भी देखें तो अंग्रेजी में कमला दास, बर्निता बागची, रीता बनर्जी, शोभा डे, सोनिया फलेरियो, मधुर जाफरी, पुपुल जयकर, झुम्पा लाहिड़ी, मंजुला पद्मनाभन, अरुंधति रॉय के नाम उभरकर आते हैं। संस्कृत में लीला देवी, उर्दू में इस्मत चुग़ताई, बांग्ला में सुष्मिता बनर्जी, बानी बासु, आशापूर्णा देवी, महाश्वेता देवी के नामों से हम सभी परिचित हैं। अन्य प्रादेशिक भाषाओं की लेखिकाओं ने भी भारतीय साहित्य को बुलंदियों तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया है।
एक सत्य यह भी है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष लेखकों की संख्या कहीं ज्यादा है। इसका प्रमुख कारण भावनात्मक है कि स्त्री चाहे कितनी ही बड़ी साहित्यकार क्यों न बन जाए, लेकिन लेखन उसकी प्राथमिकता सूची में तीसरे या चौथे स्थान पर ही आएगा। क्योंकि उसकी सूची परिवार से शुरू होकर वहीं ख़त्म होती है। आप एक माँ हैं, पत्नी हैं, बेटी हैं यदि इन सब ज़िम्मेदारियों को आप बखूबी निभा रही हैं और सामाजिक स्तर पर भी कार्यशील हैं तो ही आपका लेखन सार्थक है। हमें यह भी ध्यान रखना है कि हमारी लड़ाई पुरुष वर्ग के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ है, जिसमें समाज का हर वर्ग सम्मिलित है। स्त्रियों के पास समय का अभाव हो सकता है लेकिन उनकी कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता पर किसी को संदेह नहीं, इसीलिए अब महिला साहित्यकारों को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जा रहा है जितना कि अन्य वर्ग को। सोशल साइट्स का आगमन इनकी कार्यक्षमता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ है, महिलाओं में बढ़ती ब्लॉगिंग की रूचि इसका जीता-जागता प्रमाण है।
प्रश्न करना मनुष्य का सहज स्वभाव है और महिला रचनाकारा भी इससे अछूती नहीं रहीं। इन दिनों जो कविताएँ लिखी जा रहीं हैं, वो आपके मस्तिष्क में एक प्रश्न बन विचरण करतीं हैं। उसमें महानगरों, वहाँ की स्त्रियों से जुडी समस्याएँ हैं, एक जुझारूपन है, संघर्ष है और विचलित हृदय भी। यहाँ यदि कोई बात खटकती है तो यही कि चूंकि अधिकतर लेखिकाएं शहरों से हैं इसलिए ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़ी रचनाएं अब भूले-भटके ही देखने को मिलती हैं। यदि हम परिवर्तन की ठंडी छाया में सांस लेना चाहते हैं तो सर्वप्रथम हमें अपनी जड़ों को सींचना होगा।
इसी विषय पर समस्त महिलाओं को समर्पित कुछ पंक्तियाँ-
अभी जारी है…..!
संघर्ष सिर्फ़ वही नहीं
जो प्रत्यक्ष और दृष्टिमान है
एक लड़ाई भीतर भी
चला करती है कहीं!
अब नि:संकोच हो बोलती वो
हर विषय पर
युद्धरत-सी, इस समाज और
उसके व्यर्थ के रीति-रिवाजों से
करती वाद-विवाद, तर्क-कुतर्क,
सहती ताने, अपमान के असंख्य तीर,
कुछ व्यंग्यात्मक नज़रें भी
पर अब न रही वो ‘बेचारी’ है
सबको दिखती है, ये
‘अस्तित्व की खोज में, अचानक
प्रारंभ हुई, एक बेतुकी सोच’
करते हैं हतोत्साहित
आत्मा को चीरने की हद तक
‘जीती’ नहीं है वो कभी
इस पुरुष प्रधान समाज में
हर रिश्ते ने की ‘मौत’ उसकी
हर हाल में वो ही ‘हारी’ है
कर्तव्यों को निभाना
साक्षात परम धर्म उसका
अंतत: ‘भारतीय नारी’ है
तो आओ, बांधो ज़ंजीरों से,
कर दो छलनी
शब्दों के अचूक प्रहार से
उड़ाओ मखौल उसके हर
कमज़ोर विश्वास का
करो लहुलुहान उसे,
घृणित तीखे उपहास से
जी न भरे तो, बिछा दो राहों में
अनगिनत ज़हरीले काँटे भी
पर जीतेगी वही
अब हर हाल में, देखना सभी
न ठहरी, न ठहरेगी, कहीं भी कभी
जान गई अपने ‘होने’ का मतलब
और इसीलिए
‘असत्य’ पर ‘सत्य’ का
‘भ्रम’ पर ‘यथार्थ’ का
‘द्वंद्व’ पर ‘अपनत्व’ का
‘घृणा’ पर ‘प्रेम’ का
‘निराशा’ पर ‘आशा’ का
‘पराजय’ पर ‘विजय’ का
‘पीड़ा’ पर ‘उल्लास’ का
‘दर्द’ पर ‘मुस्कान’ का
‘हताशा’ पर ‘उत्साह’ का
‘आर्तनाद’ पर ‘आह्लाद’ का
‘संशय’ पर ‘विश्वास’ का
‘मायूसी’ पर ‘उम्मीद’ का
‘अहंकार’ पर ‘स्वाभिमान’ का
कर्तव्यों की गठरी संग
अधिकारों की दौड़ का
इस संवेदनहीन दुनिया में
मानवता की खोज का
हर अधूरा संघर्ष……………..
………………अभी जारी है!
संघर्ष……….अभी जारी है!
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चलते-चलते: देखते ही देखते ‘हस्ताक्षर’ ने अपने दो वर्ष भी पूर्ण कर लिए। इन दो वर्षों में चार सौ से भी अधिक स्थापित एवं नवोदित रचनाकारों ने पत्रिका को सुसज्जित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पत्रिका को देखने/पढ़ने वालों का आँकड़ा भी तीन लाख को स्पर्श करने वाला है।
इस असीम स्नेह के लिए ‘हस्ताक्षर टीम’ की ओर से अपने सभी पाठकों और लेखकों का हार्दिक धन्यवाद एवं अभिनन्दन। आप हैं, तो हम हैं। आशा है, भविष्य में भी आप सभी का सकारात्मक एवं रचनात्मक सहयोग हमें प्राप्त होता रहेगा।
होली के गुलाल-सा रंगीन सबका जीवन हो और हर पल एक मीठी गुझिया-सा उल्लास भरे। इसी आशा के साथ-
होली की अशेष शुभकामनाएँ!
– प्रीति अज्ञात