संदेश-पत्र
दर्द में मजे लूटने वालों की भी कमी नहीं!
प्रिय दौपदी,
तुम स्त्री हो या पुरुष, फिलहाल ये भी तय नहीं हो सका है। अभी जबकि मैंनें तुम्हें प्रिय कहकर संबोधित किया तो मैं जानती हूँ न जाने कितनी भृकुटियाँ तन गई होंगी। कितने लोगों के चेहरे पर एक विद्रूप हँसी कौंध गई होगी। तुम्हारे अस्तित्व को लेकर सब सशंकित जो हैं। मैंनें जानबूझकर ‘चिंतित’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है। क्यों नहीं किया, इसकी सत्यता से तुम बीते वर्षों में भलीभाँति परिचित हो चुकी होगी कि कोई, किसी का नहीं होता!
मैं नहीं जानती कि दौपदी सिंघार नाम के साथ जितना भी छपता आ रहा है वो तुमने लिखा या किसी और ने! वो असह्य पीड़ा और दु:ख के पल तुमने भोगे या किसी और ने! मुझे ये जानने में दिलचस्पी भी नहीं! ये घटनाएँ सदियों से घटती रही हैं और यह निश्चित है कि जो कहा गया वो किसी-न-किसी पर तो बीता ही! मेरा सिर शर्म से झुकाने के लिए इतना ही काफ़ी है।
स्त्री हूँ, दर्द से जुड़ाव जल्दी होता है….समझ सकती हूँ। रोंगटे खड़े हो जाते हैं, रूह काँप उठती है। इंसानियत का ऐसा घिनौना रूप देख हृदय जार-जार हो उठता है। तुम्हारे प्रति पूरी संवेदना है और इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी उतना ही सम्मान है। तुम्हारे अंदर जो ज्वालामुखी फूट रहा था, उसका लावा बह चुका! जो लिखा, निस्संदेह जरुरी ही रहा होगा सो, उससे शिकायत नहीं कोई। लेकिन सच कहो, क्या इस आहत हृदय से निकले शब्दों को साहित्य का नाम देना ख़ुद दौपदी की रचनात्मकता को समाप्त कर देने जैसा नहीं होगा? तुम यदि एक रचनाकार हो तो ये बात स्वयं ही जानती होंगी और यदि नहीं हो तो मैं विनम्रता से बताना चाहूँगी कि जब क्रोध और आक्रोश में भरे शब्दों का स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहता तो वे धीरे-धीरे आपकी सृजनक्षमता को लीलने लग जाते हैं। हर तरफ एक नकारात्मकता घिर जाती है, कल्पनाशक्ति कमजोर होने लगती है और शब्दकोष में वही गिने-चुने शब्द रह जाते हैं।
आज जो वाह-वाही कर रहे हैं न दौपदी! वो तुम्हारे बोलने को लेकर कह रहे हैं। तुम्हारी हिम्मत की प्रशंसा हो रही हैं। ये उस करारे तमाचे की बात हो रही है जो एक बार मारना जरुरी था। लेकिन अब तुम्हारा अपने शब्दकोष को समृद्ध करना और अपनी लेखनी को परिष्कृत कर, उसे सभ्यता, शालीनता का जामा पहनाना भी उतना ही आवश्यक बन पड़ा है क्योंकि लोग तुम्हारी तरफ देख रहे हैं। तुम्हारे अंदर के रचनाकार को जानना-सुनना चाहते हैं।
हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमें अगली पीढ़ियों को सौंपकर भी जाना है। हमारे देश की अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा है जहाँ साहित्य को उच्च स्थान दिया गया है। ये साहित्य ही है, जो समाज का निर्माण करता है। ये साहित्य ही है, जो विध्वंस भी कर सकता है। वो भी साहित्य ही था, जिसने हमें भाषाई मर्यादा और बोलने का सलीक़ा सिखाया। तुम्हें अनुमान भी न होगा कि आपके आक्रोश के प्रतिक्रियास्वरूप अश्लील रचनाओं की बाढ़-सी आ गई है। साहित्य गाली-गलौज पर उतर आया है। बीते सप्ताह में कुछ भी अनाप-शनाप लिखकर कविता की तरह परोसा जा रहा है। गंदे मजाक चल रहे हैं, कविता गलत हाथों में पड़ अब सीधा गुंडई पर उतर आई है।
इन सब बातों का तात्पर्य तुमको निराश करना नहीं बल्कि यह बताना है कि तुम्हारी इसी निडरता के कारण तुम कइयों की उम्मीद बन खड़ी हो सकती हो। उनकी नसों में हौसला भर सकती हो। उन अनगिनत गाथाओं को मुखर कर सकती हो। इस संघर्ष और लड़ाई में सब तुम्हारे साथ हैं। तुम्हारी ताक़त भी बनेंगे। पर ये तभी संभव है जब तुम अपनी पहचान असल रखो और एक बार शांत मन से स्वयं से विमर्श करो कि देश को क्या देकर जाना चाहोगी? अपनी लेखनी को थोड़ा नरम करने पर मंथन अवश्य करें जिससे लोग रचनाकर्म को लेकर भ्रमित न हों। सकारात्मक परिवर्तन का स्वागत है लेकिन यह भी हमें ही देखना होगा कि भाषा की मर्यादा और अस्तित्त्व पर आँच न आये तथा हिंदी साहित्य भी संरक्षित रहे। आखिर आने वाली पीढ़ियों को कविताएँ-कहानियां सकुशल और मूल रूप में पहुंचाने का उत्तरदायित्व हम सबका ही तो है।
खुश रहें, खुशियाँ बाँटें! क्योंकि यहाँ दर्द में मजे लूटने वालों की भी कमी नहीं!
सादर
प्रीति ‘अज्ञात’
* * यदि यह सब किसी योजना के तहत हुआ है, तो मेरी कही सारी बातों का कोई औचित्य नहीं। मेरे पास सिर्फ़ अफसोस ही रह जाने वाला है। यक़ीन मानिये, मुझे इसकी भी आशंका उतनी ही है। सचमुच आज से पहले, इतने असमंजस में कभी नहीं लिखा।
– प्रीति अज्ञात