संदेश-पत्र
परिवार में सब सदस्यों का महत्वपूर्ण स्थान होता है पर कभी ग़लतफ़हमियाँ संबंधों में दरार डाल देतीं हैं । ऐसे में अपने विवेक से काम लेना चाहिए। बहु के साथ संबंध सुधारने के लिए सास की एक पाती अपनी पुत्रवधु के नाम!
प्रिय नेहा ,
प्यार
बड़ी हिम्मत करके यह पत्र लिख रही हूँ। पता नहीं तुम पढ़ोगी भी या नहीं। प्लीज़ एक बार पढ़ ज़रूर लेना, भले ही उसके बाद फाड़ देना। जब तुम बहु के रूप में इस घर में आईं थीं तो सारा घर चहक उठा था। छोटा सा तो परिवार था। बड़े दिन बाद घर में यह मंगल अवसर आया था। विवाह के पश्चात सब चले गए और रह गए वही हम चार लोग, दो तुम और दो हम।
दिन में काम से निबट कर, याद है हम कितनी बातें करते। फिर शाम को चाय का मज़ा लेते। तब तो पापा भी नींद निकाल कर साथ ही चाय पीते। फिर खाने की तैयारी हम दोनों मिल कर करते। रात को जब बेटा ऑफ़िस से लौटता, कितना मज़ा आता डिनर के साथ गप्पें मारते। याद है कितनी साड़ियों और चादरों पर हम ने साथ बैठ कर कढ़ाई की। तुम्हारी कढ़ाई लाजवाब होती। मुझे तुमसे बहुत कुछ सीखने को मिला।
खाने के विषय में मुझे मालूम था कि तुम्हें बनाने का बहुत शौक़ नहीं था। यह बात जब तुम अपने माँ,पिताजी और भाभी सरोज के साथ पहली बार हमारे यहाँ आईं थीं तभी सरोज ने बताई थी। हम को तुम्हें जानने का अवसर तो मिला नहीं था क्योंकि बेटे ने तुम्हें पसंद किया था। हाँ तुम्हारी सरोज भाभी ने कहा था कि हमारे मामा जी यानी कि तुम्हारे पाप की आर्थिक स्थिति ठीक ठीक थी इसलिए इन बच्चों ने ज़्यादा कुछ देखा नहीं है , अब आप जैसा चाहे नेहा को सिखा सकती हैं। तब मैंने तुम्हें थोड़ा थोड़ा खाने के बारे में समझाना शुरू किया। लगता है इसका कुछ उल्टा असर हुआ। जब मैं यह कहती कि ऐसा कर लो तो तुम चिढ़ने लग जातीं और कहतीं ,”पता है मुझे।” मैंने एकाध बार तुम्हें टोका भी कि जब भी मैं तुम्हें कुछ भी सिखाने की कोशिश करती हूँ तुम खीजने क्यों लगती हो?
फिर तो तुम्हारे चिढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया। मुझसे बात भी कम करने लगीं। मैं कुछ कहती तो कंधे उचका कर कहतीं, “हमको क्या करना है। “ मैंने पूछा भी कि “क्या बात हो गई है? क्यों तुम ऐसे बिहेव कर रही हो? “
तुम जवाब नहीं देतीं थीं। मेरा मन दुखी हो जाता था। छोटा सा हमारा परिवार, उसमें तनातनी रहे तो किसे अच्छा लगेगा। मैंने बहुत जानने की कोशिश की, अपने आपको टटोला भी कि मुझसे कहाँ ग़लती हो गई पर समझ ही नहीं पाई।
कई बार ऐसा होता है न कि हमें अपनी ग़लती दिखाई नहीं देती पर मैं तो चाहती थी कि कोई मुझे बताए। घर की शांति के लिए ज़रूरी था कि संबंधों में सुधार के लिए प्रयत्न किया जाय। पर तुम तो दिन पर दिन और खिंचती चली गईं। तुमने पैर छूना , प्रणाम करना बंद कर दिया। मेरे बेटे ने तुम्हारा ध्यान भी इस तरफ़ दिलाया पर तुमने जवाब नहीं दिया। ज़बर्दस्ती किसी से आदर नहीं करवाया जा सकता यदि उस व्यक्ति के मन में बड़ों की कोई इज़्ज़त न हो।
फिर याद है जब हम चारों इस विषय में एक रात चर्चा करने के लिए बैठे। आमने सामने बात करने से काफी ग़लतफ़हमियाँ दूर हो जाती हैं। शुरुआत मैंने ही की और तुमसे पूछा कि तुम्हारी नाराज़गी का कारण क्या है? तुमने जवाब दिया कि मैं तुम्हें ग़रीब घर की समझती हूँ। मैं तो यह सुन कर हक्की बक्की रह गई क्योंकि हम ने अपने माँ बाप से यही सीखा कि ग़रीब अमीर कुछ नहीं होता,इंसान बड़ा होता है। ज़िंदगी भर इसी में विश्वास रखा। मैंने कहा कि मैंने तो ऐसा कभी नहीं सोचा। तुम्हें क्यों ऐसा लगा तो तुम बोलीं,” कुछ मेहमानों के सामने मेरे माता पिता के लिए आपने कहा, ”दे आर वैरी सिंपल पीपल। आप का मतलब था कि वे ग़रीब हैं।” मैं तो हैरान हो गई कि सिंपल का मतलब ग़रीब कब से हो गया। सिंपल का मतलब होता है सीधे सादे लोग। पर तुम नहीं मानी और दिल से लगा कर बैठ गईं।
इसी प्रकार की और भी अनेक बातें जो मैंने सीधे रूप में कहीं, वह भी तुमने उल्टे रूप में लेकर ग़लतफ़हमियाँ पाल लीं। मैंने घर की सुख शांति के लिए तुमसे बिना शर्त माफ़ी भी माँगी। पर ऐसा लगा कि तुमने संबंध तोड़ने का मन में ठान ही लिया है।
बेटा, मत भूलो कि भारतीय घरों में भगवान के बाद बड़ों का स्थान आता है। परिवार के वे अभिन्न अंग होते हैं और उनके आशीर्वाद से घर फूलता फलता है। तुम ऐसा नहीं मानतीं क्योंकि तुमने कहा था कि केवल मेरा पति और मेरा बच्चा ही मेरा परिवार है।
तुम्हें अपनी राय बनाने का पूरा अधिकार है। और तुम्हें बदलने का ख़्याल भी मैंने क्या, मेरे बेटे ने भी छोड़ दिया है क्योंकि तुमने ख़ुद कहा कि न तो मैं कुछ भुलाऊंगी और न ही किसी को माफ़ ही करूँगी। बेटी, ये दोनों ही बातें जीवन को मधुर बनाने और सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। कोशिश करके तो देखो।
ऐसा लगता है कि तुम ख़ुद किसी ग्रंथि से ग्रसित हो। हीन भावना यानी कि इन्फीरियोरिटी कॉम्पलैक्स ने तुम्हें बुरी तरह जकड़ रखा है। शायद बड़ी बहु के अमीर घर से होने के कारण भी तुम स्वयं को छोटा मानने लगीं। मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ कि हमारे परिवार के किसी भी सदस्य के मन में तुम्हारे लिए ऐसी भावना नहीं है। सब तुम्हें बहुत प्यार करते हैं। तुम्हारी बहुत तारीफ़ करते हैं और बहुत प्रतिभावान मानते हैं।
बेटी, मेरी तुम्हें एक सलाह है। तुम्हारी पूरी ज़िंदगी सामने है। तुम्हारा बारह साल का बेटा है। सोचो उस पर इस तरह के वातावरण का क्या प्रभाव पड़ रहा है। हम उसे क्या संस्कार दे पा रहे हैं। उसे एक अच्छा इंसान, अच्छा नागरिक और परिवार का योग्य सदस्य बनाने का दायित्व हमारा है। मैं नहीं चाहती कि इतिहास स्वयं को दोहराये और भविष्य में तुम्हें मेरी जैसी परिस्थिति का सामना करना पड़े।
बेटी , मेरी तुमसे विनती है कि जो कुछ हमारे बीच में कटुता रही है, उसे भुला कर एक नई शुरुआत करें। इस में पूरे परिवार की भलाई है। सुख और शांति के समन्वय से घर का वातावरण प्रसन्न हो उठेगा। मुझे विश्वास है कि तुम अपनी ज़िद छोड़ कर परिवार का अभिन्न अंग बन जाओगी। फिर देखना जो हमें मिलेगा वह अनमोल होगा।
आशा है अपनी इस माँ को तुम निराश नहीं करोगी। कल सुबह ही हम अपनी भूमिका से घर को सही अर्थों में घर बना देंगे जिसमें प्यार ही प्यार होगा।
स्नेहाशीष,
तुम्हारी माँ
– अन्नदा पाटनी