आलेख
संत ब्रह्मानंद सरस्वती के काव्य में भारतीय संस्कृति का चित्रण
– डाॅ. मुकेश कुमार
संत ब्रह्मानंद सरस्वती भारतीय संस्कृति के उपासक थे। इसी संस्कृति के कोमल एवं कठोर संस्कार, सनातन एवं नूतन जीवन मूल्य, भावबोध और कर्मबोध, उद्दान्त जीवन चिन्तन और भावुकतापूर्ण रस साधना अनेक अवसर पर उनकी विचार सारणी को विशिष्ट बनाने में समर्थ हुए। वे एक मानवतावादी संत थे। जिसने सत्य, परोपकार, संयम, सच्ची मित्रता, नैतिकता, यज्ञ, गौरक्षा आदि पर बल देकर समाज को पाठ पढ़ाया। उन्होंने विश्वकल्याण के लिए यज्ञ पद्धति पर बल दिया।
भारतीय संस्कृति में देव एवं अवतार का सन्निवेश है। भारतीय मनीषियों ने प्रकृति को दिव्य गुणों से सम्पन्न मानकर उसकी देवता के रूप में उपासना की है। इन्द्र, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु इत्यादि देवरूप में पूजे जाते हैं। ब्रह्म, विष्णु, महेश को क्रमश: सृष्टि के उत्पन्नकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता के रूप में स्वीकार किया गया है।
हमारे देश के ऋषि मुनियों एवं मनीषीजनों ने लोगों में धर्म के प्रति आस्था जगाने का प्रयास किया है। उन्होंने धर्म के तत्व, महत्त्व तथा जीवन पर उसके प्रभावों का मूल्रू समझा है और आमजन को बताया है कि धर्म के सहारे जीवन सफल हो सकता है। भारतीय संस्कृति में सनातन धर्म का मूलभूत उद्देश्य है, श्रेष्ठ एवं संस्कारित मानव का निर्माण करना। इस दिशा में प्रातः स्मरणीय संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी को शत् शत् वंदन। हमारी सनातन संस्कृति में ऊँ शब्द अत्यंत पवित्र और महिमापूर्ण माना जाता है। ऊँ शब्द के उच्चारण में तीन वर्ण अ$उ$म् आते हैं, जिसमें अ वर्ण सृष्टि का द्योतक है, उ स्थिति दर्शाता है और म् लय का सूचक है। ये तीनों वर्ण मिलकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश का बोध कराते हैं। इसलिए एक ऊँ के उच्चारण से तीनों शक्तियों का एक साथ आह्वान होता है।
जब सूर्य उदय होता है तो अन्धकार का विनाश निश्चित ही होता है। कस्तूरी अपनी सुगन्ध वातावरण में फैलाकर सारे पर्यावरण को सुगन्धित बना देती है उसी प्रकार विश्व कल्याण के लिए व अज्ञान के अन्धकार को समाप्त करने के लिए इस पवित्र धरा पर महापुरुषों का जन्म अवतार रूप में होता है। इसी प्रकार की पुण्य आत्म संत ब्रह्मानंद सरस्वती का जन्म 24 दिसम्बर, सन् 1908 ई. को हरियाणा प्रांत के ग्राम चूहड़माजरा कुरुक्षेत्र में हुआ। अब यह गाँव कैथल जिले में है।
महान संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी माता-पिता और गुरु का दर्जा सबसे ऊँचा मानते हैं। उन्होंने माता-पिता को गुरु के समान बताया क्योंकि आज के इस आपाधापी युग में माता-पिता का अधिकतर अनादर होता है, तो स्वामी जी ने कहा है कि-
माता-पिता-गुरु, इन तीनों से विद्या शुरू।
इन तीनों को जो फटकारे, वे फिरते हैं मारे-मारे।।1
नाम स्मरण की महिमा का आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। संसार में जो भी साधक हुए उन्होंने नाम स्मरण की महिमा का सहारा लिया है। अन्य साधकों, संतों की भांति संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने भी नाम स्मरण को विश्वकल्याण का मार्ग बताया है। वे ओंकार की उपासना पर अधिक बल देते हैं। उन्होंने कहा है-
ओंकार सबसे है उत्तम, सबसे बड़ा है नाम।
ओउम् जप से शुद्ध होवे आत्मा, पूर्ण हों सब काम।।2
संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी भारतीय संस्कृति के उपासक थे। वे शिष्टाचार नीति आदि का पालन करते थे-
नीति के प्रयोग चार साम-दाम-दण्ड-भेद।
युक्ति से प्रयोग करो दुनियां के मिटेंगे खेद।।3
संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने कहा है- नीति, नियम धर्म परम्परागत आचारों, प्रथाओं के विरुद्ध आचरण करना असदाचार है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। वे कहते हैं-
दुःख नहीं देना, झूठ मत बोलो, करो चोरी का त्याग
बुरे कार्य से डरते रहना, नहीं किसी से लाग।।4
स्वामी जी ने सत्य आचरण की बात कही है। संत ब्रह्मानंद जी ने सत्य से बढ़कर किसी तप को नहीं माना है। सत्य ही स्वर्ग का साधन है। सत्य के आधार पर संसार टिका हुआ है। सत्य से ही इन्द्र भगवान जल की वर्षा करते हैं। इस संसार में झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं है-
मृदु एवं सत्य भाषण मनुष्य को स्वर्ग ले जाता।
सत्य से बढ़कर कोई तप नहीं होता।।
सत्य ही स्वर्ग का साधन होता है।
सत्य के ही आधार पर संसार टिका हुआ है।
सत्य से ही इन्द्र देव जल बरसाता है।
झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं होता।।5
बहुआयामी भारतीय संस्कृति के उपासक संत ब्रह्मानंद जी ने कहा है कि वेदों में सत्य की जीत बताई गई है क्योंकि झूठ सबसे बड़ा पाप है। झूठ के पैर नहीं होते, जो झूठ की पगड़ी बांधकर चलता है, उसका परिणाम हमेशा बुरा ही होता है।
सत्य की हमेशा जीत है,
झूठ चले नहीं पैर।
झूठ मंडासा बांधकर
किसी को मिली है खैर।।6
मित्रता का निर्वाह करना सबसे कठिन कार्य है। इसकी पहचान करना कोई सरल कार्य नहीं होता क्योंकि आज के इस भौतिकवादी, आपाधापी युग में सच्चा मित्र मिलना बहुत कठिन है। आज मित्रता केवल स्वार्थ की रह गई। स्वामी ब्रह्मानंद जी ने सच्चे मित्र के सम्बन्ध में बताया है-
सन्मुख दोष वर्णन, पीछे गुणों का गान।
गुण को पहले, दोष को पीछे, कहने में रहे ध्यान।
जिस इस गुर को याद किया, वही मनुष्य प्रमाण।।7
स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाया। नैतिकता समाज का मेरुदण्ड है। व्यक्ति, समाज सभा को नैतिक मूल्यों का पालन करना आवश्यक है। इसी सम्बन्ध में संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने कहा है-
झूठ कपट छल चोरी जारी।
इन पाँचों से बचो नर नारी।।8
ब्रह्मचर्या का पालन करना बहुत आवश्यक है। संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने अपने योग के माध्यम से ब्रह्मचर्य का पालन किया। वे समय पर अपनी दिनचर्या करते थे। उन्होंने समय के महत्त्व को बताते हुए गृहस्थियों को उसके पालन करने का उपदेश दिया-
सवेरे तीन बजे उठकर करो जलपान।
मल मूत्र को त्याग कर दन्त धावन सान।
आसन लगाकर, कर प्राणायाम।
भूल कभी न कर सुबह शाम।
तेरे लिए होगा शुभ परिणाम।
जपते रहना ओउम् शुभ नाम
तेरे सब होंगे पूर्ण काम।
तुझे मिलेगा मुक्ति धाम।।9
संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने सोलह संस्कार को भारतीय संस्कृति का एक अंग माना है। मनुष्य का शरीर और आत्मा के उत्तम होने के लिए अर्थात् गर्भाधान से लेकर शमशानान्त तक विधिपूर्वक दाह करने पर्यन्त सोलह संस्कार होते हैं। यह संस्कार भारतीय संस्कृति के प्राण हैं। इसी प्रकार महान संत ब्रह्मानंद जी ने कहा है-
सोलह कला सोलह संस्कार।
इनको भूल दुःखी संसार।।10
स्वामी जी ने नाम और विधि के आधार पर नामकरण विधि का वर्णन किया है। नामकरण करने के लिए अनेक विधि को ध्यान में रखा जाता है। कोई भी ऐसा नाम नहीं रखना चाहता जो दुराचारी व्यभिचारी व्यक्ति का उद्बोधक हो। नामकरण संस्कार की एक पद्धति है जो प्राचीन काल से चली आ रही है जिसमें तिथि नक्षत्र का ध्यान रखा जाता है-
नाम विधि में कितने अक्षर यह भी यहाँ बताना है।
किनको नाम में लाना चाहिए, किनको किया मना है।।
स्वर तो सारे ले लिए, व्यंजनों को जिताना है।
वेद विधि से बात बताई, सिर को नहीं खपाना है।।
प्रथम वर्गों के दो-दो अक्षर, इनको देवो छोड़।
अन्तस्थ और ऊष्म को उन बाकियों में देवो जोड़।।
सम में लड़का विषम में लड़की, नामकरण का तोड़
नाम बड़ा है ब्रह्म का उसे मिलन को दौड़।11
अतिथि सत्कार गृहस्थ का परम धर्म माना गया है। भारतीय संस्कृति में आतिथ्य एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। अतिथि को भगवान का रूप माना जाता है। परमात्मा प्राप्ति जीवन में जितनी आवश्यक है लौकिक व्यवहार में अतिथि भी उतना ही आवश्यक माना जाता है। अतिथि का आदर सत्कार करना चाहिए। अतिथि को यज्ञ आदि के सम्मान आवश्यक समझना चाहिए। अतिथि को परमात्मा के बराबर समझ कर उसकी सेवा करनी चाहिए। संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने अतिथि सत्कार को प्रेम भावना का माध्यम माना है और वे कहते हैं-
आइए बैठिए, पीजिए पानी,
हाथ जोड़कर करें नमस्कार।
इससे बढ़ता सबका प्यार।।12
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि संत ब्रह्मानंद सरस्वती जी भारतीय संस्कृति के परम उपासक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में दया, परोपकार, शिक्षा, यज्ञ, अतिथि सत्कार, सोलह संस्कार, नामकरण विधिपूर्वक मानव जीवन को जीने की कला सिखायी है। उनके साहित्य में भारतीय संस्कृति के विभिन्न बिन्दु मिलते हैं, जो जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं।
संदर्भ:
1. सम्पा. डाॅ. बाबूराम, संत ब्रह्मानंद ग्रंथावली, पृष्ठ 196
2. वही, पृष्ठ 198
3. सम्पा. डाॅ. बाबूराम, संत ब्रह्मानंद ग्रंथावली, पृष्ठ 200
4. वही, पृष्ठ 201
5. वही, पृष्ठ 195
6. वही, पृष्ठ 203
7. वही, पृष्ठ 203
8. वही, पृष्ठ 231
9. वही, पृष्ठ 223
10. वही, पृष्ठ 220
11. वही, पृष्ठ 213
12. वही, पृष्ठ 217
– डाॅ. मुकेश कुमार