जो दिल कहे
‘संगच्छध्वं’ अर्थात प्रकृति और संस्कृति
जब मनुष्य आदिम युग से निकलकर सामाजिक रूप से अपने को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हुआ तब मानव समूह का समाजीकरण प्रारम्भ हुआ और तब हमारे ऋषि-मुनि, आदि-पूर्वज इस बात को समझ गए कि अगर लम्बे समय तक अनवरत उच्च कोटि के जीवन को जीना है, तो न सिर्फ मनुष्य बल्कि सृष्टि के सभी तत्वों को एक साथ लेकर चलने का उद्धम करना होगा। इसी भाव में लोक कल्याण अथवा विश्व कल्याण संभव है। सबको साथ लेकार चलने की परिकल्पना को सर्वप्रथम भारतीय समाज के लोगों ने आत्मसात किया।
विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक हमारी सभ्यता है जो हजारों-लाखों वर्षों से न सिर्फ अक्षुण्ण ही है बल्कि विश्व की अन्य सभ्यताओं के उद्गम में मार्गदर्शक की अग्रणी भूमिका में भी रही है। कितनी आश्चर्यजनक बात है कि जिस नदी, पहाड़, पशु-पक्षी, देवी-देवता, गृह-नक्षत्र की पूजा हमारे आदिपूर्वज किया करते थी; आज हजारों वर्षों के बाद भी उसकी पूजा हम हूबहू उसी स्वरुप और श्रद्धा के साथ करते हैं।
विश्व कल्याण के लिए भरत के विराट चिंतन को सम्पूर्णता में प्रामाणिक रूप से समझने के लिए हमें प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों को एवं वेद-पुराण में उल्लेखित श्लोकों और ऋचाओं का अध्ययन करना होगा।
ऋग्वेद के पांचवें अध्याय में वर्णित है-
संगच्छध्वं संवदध्वं
सं वो मनांसि जानताम
देवा भागं यथा पूर्वे
संजानाना उपासते।
सामानों मन्त्रः समितिः समानी
समानं मनः सहिचित्तमेषाम
समानं मन्त्रमाभिमंत्रये वः
समानेन वो हविषा जुहोमि।।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।
उपरोक्त ऋचा का भावार्थ है कि हम सब साथ-साथ चलें एवं बढ़ें। देवताओं एवं पूर्वजों ने आपसी सहमति से अपने हिस्से आये भाग को ग्रहण किया, इसलिए वे पूजे जाते हैं। उसी प्रकार हम एकमत होकर अपने-अपने हिस्से को स्वीकार करें। हम सबका ह्रदय, मन, विचार व चित्त एक जैसा हो। सब मिलकर समान रूप से ऐसे ज्ञान का सृजन करें, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कल्याण हो।
इन्ही बातों को आत्मसात करते हुए हमारे पूर्वजों ने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया और भारतीय संस्कृति ने कभी किसी को पराया नहीं समझा। भारतीय संस्कृति सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में देखती है; जिसकी चर्चा महा उपनिषद के चौथे अध्याय में है
“अयम निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम”
अर्थात तेरा-मेरा की धारणा छोटे एवं संकुचित विचारधारा को मस्तिष्क की उपज है। उदार चरित्र वालों के लिए तो पूरा विश्व ही एक परिवार है। आपको जानकर सुखद अनुभूति होगी कि उपरोक्त वाक्य संसद भवन के प्रवेश कक्ष में ही अंकित किया गया है।
पश्चिम के शक्तिशाली राष्ट्र जब समूची दुनिया का वर्गीकरण करते हुए प्रथम, द्वितीय एवं तीसरी श्रेणी की दुनिया के आधार पर विमर्श कर रहे थे तब हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने “वसुधैव कुटुम्बकम” का उदाहरण प्रस्तुत कर सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक चुनौती पेश कर दी। 2002 में अटल बिहारी बाजपेयी ने एशिया-प्रशांत मंच पर मानवाधिकार संस्थानों की बैठक में “वसुधैव कुटुम्बकम” को उद्धृत करते हुए कहा था कि मानवाधिकार के संबंध में भारतीय समझ जितनी पुरानी है, उतनी सार्वभौमिक भी है।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत के दौरे पर आये थे और संसद भवन में प्रवेश करते समय जब उनकी निगाहे इस ब्रह्मसूत्र पर गयी तो उन्होंने सिर्फ इसका अर्थ ही नहीं पूछा बल्कि संसद को संबोधित करते समय इसे अपने भाषण में उद्धृत भी किया था।
आज आबादी के आधार पर भारत दुनिया का सबसे बड़ा देश है। विविधतायें एवं विभिन्नताएं ही भारतीय संस्कृति की खूबसूरती भी है। समस्त भारत के अलग-अलग प्रान्तों के लोगों का रहन-सहन, खान-पान, भाषा, वेशभूषा तथा धार्मिक मान्यताएं भिन्न हैं। इसी विभिन्नता के कारण समूची दुनिया को हमें देखकर आश्चर्य होता है कि जिस देश में इतनी मत-भिन्नता हो, वहां के जन-समूह को एक सूत्र में कैसे बाँध कर रखा जा सकता है। उनका ये सोचना जायज भी है क्योंकि किसी की भी सोच पर उसके सामाजिक ढाँचे का भी काफ़ी हद तक प्रभाव रहता है। पश्चिमी देशों में रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा एवं पूजा पद्धति में समानता होते हुए भी आपस में काफी असमानता है क्योंकि समूचा पश्चिमी जगत कबीलाई संस्कृति में पनपा है। वहां के लोग, बहुआधिक्य में समानता होते हुए भी खंड-खंड होकर कबीलों की तरह अलग-अलग देशों के रूप में विकसित हुए हैं; जबकि भारत विविधताओं के वाबजूद एक ही चैतन्य का संकुल है, जिसका विभिन्न रूपों में प्रगटीकरण होता है।
भारत के मानस की तुलना किसी अन्य राष्ट्र से नहीं की जा सकती है, क्योंकि भारतीय समाज जैसा और कोई समाज इस वसुधा पर है ही नहीं। इस आशय को समझना कठिन नहीं है। अभी पिछले ही पखवाड़े (लगभग पूरा नवंबर माह) में कार्तिक मास चल रहा था। इस माह में भारतीय चिंतन और दर्शन का स्थूल प्रकटीकरण के उदाहरण कई रूपों में दृष्टिगोचर हो रहे थे। कार्तिक मास के ठीक एक दिन पहले शरद पूर्णिमा का अवसर आता है; जिसका व्यापक प्रभाव मानव शरीर एवं मस्तिष्क पर पड़ता है। कार्तिक अमावस्या को दीपावली पर्व का आयोजन होता है। वृहदारण्यक उपनिषद में प्रयुक्त एक सूक्त “तमसो मां ज्योतिर्गमय” को आधार मानकर इसे आम जनमानस उत्सव के रूप में मनाता है।
भारतीय सूक्ष्म चिंतन के स्थूल रूप में मुर्तन (Personification) के लगभग सारे दृष्टांत लगभग पुरे भारतवर्ष में दिखते हैं। विभिन्न आयोजनों के माध्यम से; जिसमें आदिकाल से बिहार की भूमिका निर्णायक ही नहीं अपितु मार्गदर्शक गुरु की तरह रही है।
शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक के मध्य जितने भी अनुष्ठान की जो भी परंपरा है उनका प्रत्यक्ष संबंध हमारे जीवन एवं दैनन्दिनी से है, जिसका केंद्र बिंदु होता है मनुष्य, समाज और प्रकृति। चाहे वह कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को मनाई जाने वाली गोवर्धन की पूजा कर अन्नकूट–महोत्सव होता हो, या फिर कार्तिक मास के शुक्लपक्ष के द्वितीय को आयोजित होने वाली यमद्वितीय(भैया-दूज) हो या कार्तिक मास के शुक्ल षष्ठी जो मुख्यतः सूर्योपासना से जुडी हुई है। या फिर कार्तिक शुक्ल अष्टमी को विशेष रूप से आयोजित की जाने वाली गाय पूजन हो या कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन आँवले के वृक्ष के निचे पूजा एवं ब्राहमण भोजन का महात्म हो या कि कार्तिक शुक्ल एकादसी के पवित्र दिवस पर क्षीर सागर में शयन कर रहे भगवान् विष्णु का जागना(देवोत्थापनी एकादसी ) हो या भीष्म पंचक व्रत हो या कार्तिक पूर्णिमा का पवित्र गंगा स्नान। दीपावली, छठ, कार्तिक स्नान,से लेकर सामा-चकेवा, कोजगरा आदि जैसे लोक उत्सव उसी चिंतन के परिचायक हैं।
बिहार के सोनपुर में आयोजित होने वाले सबसे बड़े पशु मेले का जिक्र करना अत्यंत ही आवश्यक है। यह मेला विश्व के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में प्रसिद्ध है; किंतु यह केवल इसका एक पक्ष है। सोनपुर मेले की जो वृहद् तस्वीर हमारे मन में उभरती है वह यह कि ये भारतीय समाज के परस्पर लोकाचार एवं प्रकृति प्रेम का द्योतक है। अन्य समाज के लिए जो पशु मात्र एक जानवर हैं, वह हमारे लिए पशुधन हैं। पंडित दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद (Integral Humanism) के सिद्धांत में व्यष्टि-समिष्टि-सृष्टि की बात करते हैं। अर्थात कोई भी मनुष्य(व्यष्टि) अकेला नहीं रह सकता। जीवन जीने की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे समाज(समिष्टि)पर निर्भर रहना पड़ता है फिर यह समाज नाम की संस्था अपने बल पर टिक नहीं सकती। इसके लिए उसे प्रकृति पर निर्भर रहना पड़ता है। निर्भरता की अनिवार्यता के कारण प्रकृति में व्याप्त हर चराचर का सम्मान आवश्यक है।
सृष्टि में विधाता की वैज्ञानिक दृष्टि सर्वत्र द्रष्टव्य है। यहाँ अनगिनत विविधताएँ हैं, किंतु कुछ भी निरर्थक नहीं है। हर वस्तु की कुछ न कुछ सार्थकता है, उपयोगिता है। ऐसी विविधताओं से भरी सृष्टि में ‘मानव’ उसका चरम निदर्शन है। मानव के साथ शेष प्रकृति का सहचरी भाव भी है और अनुचरी भाव भी। यह दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, यथा- मनुष्य वृक्ष-वनस्पतियों का पौधारोपण करके, उन्हें खाद-पानी देकर उनका पालन-पोषण करता है, तो वृक्ष-वनस्पति अपने बीज, फल आदि भोज्य पदार्थ प्रदान कर मानव के पालन-पोषण का आधार बनते हैं। इसी प्रकार मनुष्य प्रकृति के प्रति श्रद्धावनत होता आया है। दिव्य और उपयोगी शक्तियों के प्रशस्ति पूज्य भाव से ओत-प्रोत रहना स्वाभाविक भी है। इसी के परिणामस्वरूप वृक्ष-पूजा, नदी-पूजा सदा से की जाती रही है। वैदिक साहित्य में इसके निदर्शन भरे पड़े हैं।
अपनी श्रद्धा और आदरांजलि समर्पित करते हुए मानव को वृक्ष-पूजा, नदियों के पूजा के समय उन्हें दिव्य शक्तियों का अनुभव होता रहा है, जिसके कारण उसकी अन्तश्चेतना प्रभावित होती है। किसी भी तत्व में दिव्यत्व का अनुभव हमारी आत्मा को शांति प्रदान करता है। प्राचीन मान्यता है कि पेड़-पौधे और नदियों में देवी देवताओं का निवास रहता है। जहाँ तक वृक्ष-नदियों के सांस्कृतिक महत्व की बात है, हमारे पूर्वजों ने इसे शुभ-कार्य तथा उत्सवों से जोड़कर रखा है ताकि इसे पूजनीय बनाये रखा जा सके। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा-स्नान एवं अन्य नदियों में स्नान की महत्ता इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
हमारी धरती रत्नगर्भा है। इसके गर्भ में अकूत संपत्ति छुपी हुई है। प्रकृति ने मनुष्य को जीवन-यापन के लिए बहुत कुछ दिया है लेकिन उसकी भी एक मर्यादा है। आज अंधाधुंध कटते जंगल, सिमटती नदियाँ और फैलते शहर हमें विवश कर रहे हैं कि हम भविष्य के बारे में गंभीरता पूर्वक चिंतन करें। यदि हम अपने बच्चों को प्रकृति के साथ रहना नहीं सिखायेंगें तो कल हम और वे सिर्फ परिणामों के साथ रहने के लिए अभिशप्त हो जायेंगें।
– नीरज कृष्ण