धरोहर
श्री अरविन्द……..वरेण्य महर्षि !
श्री अरविंदो ने एक बार अपने शिष्यों को अर्ध-गंभीर भाव में कहा था कि ‘वे उनके द्वारा निर्जीव शब्दों में अपनी हत्या (to be murdered in cold print) नहीं कराना चाहते’। उन्होंने यह भी कहा था कि अपने निजी जीवन के संबंध में केवल वे ही लिख सकते हैं। वास्तव में एक योगी का सच्चा जीवन आंतरिक होता है। उसकी कुछ लहरें, घटनाओं के रूप में हमें दिखाई देती है और जिसके सहारे ऐसे ऋषियों पर लिखने में मदद मिलती है।
भारतीय गगन के ज्योतिपिण्डों में महर्षि अरविन्द का उल्लेख सादर किया जा सकता है। कपिल, कणाद, गौतम, जनक, रामकृष्ण की तरह साधक शानियों की पंक्ति में स्थान पानेवाले महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ते में श्रीमती स्वर्णलता देवी की कोख से हुआ । इनके पिता का नाम श्रीकृष्ण घोष था। वे पाश्चात्य संस्कृति में आमूलचूल रँगे व्यक्ति थे। अतः, उन्होंने अपने पुत्रों विनयभूषण, मनमोहन तथा श्री अरविन्द को दार्जिलिंग के ‘लॉरेटो कॉन्वेण्ट’ स्कूल में पढ़ने मेज दिया। श्री अरविन्द वहाँ केवल दो ही वर्ष तक पढ़ पाये थे कि उनके दोनों भाई विलायत भेजे जाने लगे तो श्री अरविन्द को भी उनके साथ कर दिया गया।
अरविन्द के दोनों भाई मेनचेस्टर ग्रामर स्कूल में दाखिल कराये गये। उस समय अरविन्द की उम्र केवल सात साल थी। इसलिए उन्हें ड्रिवेट- दम्पति के साथ रख दिया गया। ड्रिवेट साहब लेटिन भाषा के पारंगत विद्वान थे। जब उन्हें अरविन्द – जैसा योग्य शिष्य मिला तो वे बड़ी रुचि से उन्हें लेटिन पढ़ाने लगे। थोड़े ही दिनों में अरविन्द ने लेटिन में दक्षता प्राप्त कर ली। इस बीच वे बाइबिल, शेक्सपियर, शेली, कीटस आदि की रचनाएँ पढ़ते रहे। सन् 1885 ई० में ड्रिवेट – दम्पति आस्ट्रेलिया चले गये तो अरविन्द का नाम लन्दन के सेण्ट पॉल स्कूल में लिखवाया गया। उस स्कूल के हेडमास्टर बालक अरविन्द की परिपक्वता पर बड़े ही विस्मित हुए और उन्होंने उन्हें स्वेच्छया ग्रीक पढ़ाना आरम्भ कर दिया।
अरविन्द ने सेण्ट पॉल स्कूल में चार वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद उन्हें केम्ब्रिज के किंग्स कॉलेज में अध्ययन के लिए ८० पौण्ड वार्षिक की छात्रवृत्ति मिली। किंग्स कॉलेज में अध्ययन करते समय उन्होंने समग्र यूरोप के इतिहास का अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने इटालियन, ऋच, जर्मन तथा स्पेनी भाषा सीखने में भी समय लगाया। उन्होंने बड़ी कम उम्र में इतनी भाषाएँ सीखी तथा अंगरेजी, ग्रीक और लेटिन भाषाओं में एक साथ काव्य निर्माण भी प्रारम्भ किया। यह जानकर आश्चर्य होता है कि जबतक वे किंग्स कॉलेज के छात्र रहे, प्रतिवर्ष ग्रीक-लेटिन की काव्य – प्रतियोगिता में प्रथम घोषित होते रहे।
अरविन्द ने पिता के आदेश पर इण्डियन सिविल सर्विस की परीक्षा दी। तथा उसमें वे विशिष्टतापूर्वक उत्तीर्ण हुए। उन्होंने उससे सम्बद्ध घुड़सवारी की परीक्षा की अवहेलना की और अन्त में वे असफल घोषित हुए। अरविन्द सरकारी नौकरी में कोल्हू के बेल की तरह नहीं जतना चाहते थे। अतः उन्हें उसमें असफल होने का लेशमात्र भी दुःख नहीं हुआ।
21 वर्ष की आयु में फरवरी, 1863 ई० में अरविन्द इंगलैण्ड से भारत लोटे। इस 21 वर्ष की अवस्था में केवल सात वर्ष तक वे भारत में रहे और शेष 14 वर्ष उन्होंने इंगलेण्ड में ही गुजारे थे। भारत के सात वर्ष में भी उनके दो वर्ष अँगरेज शिक्षकों और बालकों के साथ गुजरे थे। अतः श्री अरबिन्द के ऊपर यूरोपीय प्रभाव का गहरा होना स्वाभाविक था। किन्तु, उनकी माता का संस्कार उनके साथ काम कर रहा था और तबतक भारत की किसी भाषा से परिचय न पाने पर भी उनकी आस्था भारतीयता के मजीठ रंग में ही रंगी हुई थी।
इंग्लेंड से आते ही श्री अरविन्द ने महाराजा सयाजीराव गायकवाड के अनुनय पर बडौदा राज्य की सेवा स्वीकार कर ली। वे बडौदा राज्य के कई पदों पर कार्य करते रहे, लेकिन शिक्षा की ओर ध्यान रहने के कारण उन यहाँ के कॉलेज में फ्रेंच भाषा का अध्यापक बनाया गया। कालान्तर में बड़ोदा कॉलेज के उपप्राचार्य भी बनाये गये। बड़ोदा में ये जब ये तभी उनका बिवाह 29 मई, 1901 में श्रीमती मृणालिनी देवी से हुआ। मृणालिनी देवी सीता-सावित्री के आदर्श को चरितार्थ करनेवाली थीं। अरविन्द को वस्तुतः ऐसी ही जीवन संगिनी की आवश्यकता थी जो निःशंक भाव से उनका साथ दे सके।
बड़ोदा में तैरह वर्ष तक रहने के बाद नौकरी छोड़कर वे कलकत्ता सन् 1906 ई० के अगस्त मास में चले आये। यहाँ वे बंगाल नेशनल कॉलेज में अँगरेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। 34 वर्ष की उम्र में उन्होंने राजनीतिक बवण्डर में प्रवेश किया और प्रायः चार वर्ष तक वे इसमें पूर्णतः लिप्त रहे। कलकत्ते में वे राष्ट्रीय दल का संचालन करने लगे। श्रीअरविंद ने New Lamps for Old शीर्षक के अंतर्गत कई लेख लिखें उन्होंने यह सब अज्ञात लेखक के रूप में लिखा। करीब दो लेख प्रकाशित होते ही चारों तरफ जोरदार हलचल मच गई। लोग पूछने लगे ऐसी सशक्त भाषा में शासन की व देश के नेताओं की ऐसी चुभती हुई आलोचना का लेखक कौन है?
उसी समय विपिनचन्द्र ने ‘वन्दे मातरम्’ नामक पत्र निकाला था और श्रीअरविंद घोष को सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया। श्री अरविंद किसी ऐसे ही अवसर की प्रतीक्षा भी कर रहे थे। इसलिए तत्काल सहमत हो गए बाद में जब श्री अरविंद वंदे मातरम के संपादक हो गए तब उन्होंने दिन प्रतिदिन अपने विचारों को स्पष्ट करने वाले ज्वलंत लेख लिखे, जिससे पत्रिका का प्रभाव सारे भारतवर्ष में फैल गया। सर्वत्र शिक्षित वर्ग ‘वंदे मातरम’ पत्रिका के लिए काफी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। कोलकाता से प्रकाशित हिंदुस्तान के प्रमुख एंग्लो इंडियन दैनिक पत्र ‘स्टेट्समेन’ ने लिखा था- ‘…..वंदे मातरम के लेख सरकार विरोधी गंध से भरे हैं पर वे ऐसी चतुराई और मार्मिकता के साथ लिखे गए हैं जैसे उसके पूर्व भारतीय पत्रकारिता उपलब्ध नहीं करा पाई थी। जिसे हम राष्ट्रीयता की पराकाष्ठा कहते हैं उसकी यह सबसे अधिक प्रभावशाली आवाज थी पर उसके शब्दों का चयन इतनी चतुराई से किया गया था कि यह लेख कानून की सीमा का उल्लंघन नहीं करते थे’। वंदे मातरम में संपादक का नाम प्रकाशित नहीं होता था, फिर भी सब लोग जानते थे कि यह आलेख अरविंद घोष के सिवाय किसी और के नहीं थे। सरकार अब अधिक चुप न रह सकी बिना किसी सबूत के ही पुलिस ने श्री अरविंद को वंदे मातरम के संपादक के रूप में गिरफ्तार कर लिया। इससे जोरदार प्रतिक्रिया हुई। यह सोचते हुए कि श्री अरविंद को अवश्य ही सजा होगी, सिर्फ रविंद्र नाथ टैगोर ने उन्हें अपनी प्रसिद्ध कविता ‘अरविंद, रविंद्र का नमस्कार स्वीकार करो’ लिख कर अभिवादन किया। 1960 में उन्हें दूसरी बार फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में एक वर्ष तक रोक रखा गया। श्री अरविंद को छोड़ दिए जाने पर वे जनता की नजरों में अधिक तेजी के साथ सामने आए और उन्हें ‘वंदे मातरम’ का असली संपादक मान लिया गया।
श्री अरविन्द के भाई वारीन्द्र ने बँगला में ‘युगान्तर’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया था। अरविन्द ने इन पत्रों में अपने ओजस्वी लेखों से जनजागरण का मार्ग प्रशस्त किया। सन् 1907 ई० में देश में दो प्रमुख आन्दोलन की धाराएँ थीं – एक नरमदल, दूसरा गरमदल। नरमदल के माननेवालों में सर फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले तथा कृष्णस्वामी प्रमुख थे और गरमदलवालों में लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और श्री अरविन्द अग्रणी।
श्री अरविंद की लेखनी का ही कमाल था कि अचानक 1860 में एक रात श्री अरविन्द को बताया गया कि लाला लाजपत राय को पंजाब से बाहर ले जाया जा रहा है। उसी समय उन्होंने एक संदेश लिखा- “भाषणों और नम्र वाणी के दिन गए। पंजाब के बहादुरों ! सिख जाति के सपूतों ! जो लोग तुम्हें मिट्टी में मिला देना चाहते हैं, उन्हें दिखा दो कि एक लाजपत के स्थान पर सैकड़ों लाजपत खड़े हो जाएंगे और कोई जगह खाली नहीं रहेगी।“ ज्योंही यह संदेश वंदे मातरम में प्रकाशित हुआ त्यों ही सारे देश में ज्वालामुखी का विस्फोट हो उठा। उनकी लेखनी से प्रायः ऐसी ही आग्नेय चिंगारियां फूटा करती थी।
तीव्र राजनीतिक गतिविधियों में उनकी व्यस्तता के कारण उनका नियमित प्राणायाम बाधित हुआ, दूसरी क्रियाओं में बाधा पड़ने लगी थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने देखा कि उनकी प्रगति रुक गई है। तब 1908 के जनवरी में उनकी मुलाकात ग्वालियर के योगी विष्णु भास्कर लेले से हुई। जो काफी विख्यात योगी थे। लेले ने उन्हें सलाह दिया कि वे हमेशा के लिए राजनीतिक कार्य छोड़ दे और योग मार्ग अपना लें। यद्यपि योग अरविंद उसके लिए तैयार नहीं थे, फिर भी कुछ समय के लिए गतिविधियों को स्थगित करना स्वीकार कर लिया।
लेले ने उन्हें प्रशिक्षण देते समय कहा-“….. बैठ जाओ, देखो और देखो और तुम्हें दिखेगा कि तुम्हारे सभी विचार बाहर से तुम्हारे अंदर घुसते हैं। वे जैसे ही घुसने लगें उन्हें पीछे धकेल दो।“ श्री अरविन्द ने ठीक वैसा ही किया जैसा लेले ने उन्हें कहा था। श्री अरविन्द के शब्दों में, मैंने पहले कभी नहीं सुना था कि हमारे विचार देखे जा सकते हैं या वे बाहर से आती हैं। लेकिन बिना प्रश्न किए ही मैंने उनके निर्देशों का अनुसरण किया मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि ‘एक के बाद एक विचार बाहर से मेरे अंदर आ रहे थे। मैं उन्हें अंदर घुसने से पहले ही दूर फेंकने लगा’। तीन दिन के अंदर मेरा मन विचारों से खाली हो गया था। एक पूर्ण शांति मेरे मन में भर गई। वह शांति मुझ में अभी भी है।
श्री अरविन्द ने मन की इस पूर्ण शांति को कभी नहीं खोया। उस समय के बाद से उनके सभी भाषण ‘वंदे मातरम’, ‘धर्म’, ‘कर्मयोगी’, ‘आर्य’ जैसी पत्रिकाओं के उनके लेख, फिर उनके विविध प्रकार के पत्र उसी शास्वत शांति व निश्चलता की देन थी। वह केवल एक यंत्र बन गए।
श्री अरविन्द का योग अन्य योगों से इस तरह भिन्न है कि अन्य योग संसार को कोई असत्य वस्तु, माया या इच्छा और कष्ट और बंधन से जकड़ा हुआ मानते हैं। इसलिए व्यक्ति या तो संसार छोड़ देता है और सन्यास ले लेता है या निर्वाण की खोज करता है। श्रीअरविंद इस बात को अपूर्ण सत्य मानते हैं। बल्कि जब कोई उच्चतर चेतना में उठता है तब वह देखता है कि विश्व केवल भगवान की सृष्टि नहीं है बल्कि संसार में प्रत्येक वस्तु साथ रूप में भगवान ही है- ‘सर्व खलु इदं ब्रम्हम’। किन्तु चूँकि हमलोग अज्ञान में रहते हैं इसलिए सत्य से वंचित रहते हैं। अज्ञान से ही दुख, कष्ट और द्वन्द उत्पन्न होते हैं।
श्री अरविन्द कहते थे ‘मैं पहले कवि और राजनीतिज्ञ हूँ, योगी या दार्शनिक नहीं’। सुशिक्षित वर्ग में वे योगी या ऋषि के रूप में अधिक प्रसिद्ध हैं। अपने निजी कथन के अनुसार भी अपने जीवन काल के बाद के हिस्से में योगी बने किंतु कविता तो प्रारंभिक बचपन से लेकर जीवन के अंतिम दिनों तक उनके साथ रही। श्री अरविन्द अपनी बड़ी कविताओं और नाटक- प्रेम और मृत्यु, उर्वशी, मुक्तिदाता, परसियस और सावित्री- एक कहानी और ऐतिहासिक घटना- बड़ौदा में रहते हुए लिखे। उन्होंने बहुत सी कविताएं और नाटक लिखे। बाजी प्रभु जो एक विवरणात्मक कविता है, सशक्त देशभक्तिपूर्ण वीरता की प्रेरणादायक है। श्री अरविन्द ने कई बंगाली कविताएं भी लिखी जो नए शैली में हैं- गीत काव्य, गूढ़ और रहस्यवादी। एक बड़ा काव्य ‘उषा की विलुप्ति’ भी है जो महाभारत की घटना पर आधारित है। श्री अरविंद की अमर कृति सावित्री 24000 पंक्तियां की है जिसमें कवि ने अपनी सारी शक्ति और योग्यता को यथार्थतः उड़ेल दिया, जिनकी उन्होंने धीरे-धीरे और बड़ी सावधानी से बड़े-बड़े परिवर्तन और वृद्धि करते हुए रचना करने में समयाभाव के कारण कई दशक लगा दिये।
श्री अरविन्द की वृहद और जटिल साहित्यिक कृतियों में दार्शनिक चिंतन, कविता, नाटक और अन्य लेख सम्मिलित हैं। उनकी अन्य दार्शनिक कृतियाँ हैं—
एस्सेज़ ऑन गीता (1928), 2. द लाइफ़ डिवाइन (1940). 3. द सिंथेसिस ऑफ़ योगा (1948), 4. द ह्यूमन साइकिल (1949), 5. द आईडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी (1949), 6. ए लीजेंड एण्ड ए सिंबल (1950), 7. ऑन द वेदा (1956), 8. द फ़ाउन्डेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर……।
पांडिचेरी आने के बाद वे सांसारिक कार्यों से अलग होकर आत्मा की खोज में लग गए। पांडिचेरी आने के बाद अरबिंदो घोष अंत तक योगाभ्यास करते रहे और उन्हें परमात्मा से साक्षात्कार की अनुभूति हुई। उनके आध्यात्मिक अनुभवों से असंख्य लोग प्रभावित हुए। उनका दृढ़ विश्वास था कि संसार के दु:ख का निवारण केवल आत्मा के विकास से ही हो सकता है जिसकी प्राप्ति केवल योग द्वारा ही संभव है। वे मानते थे कि योग से ही नई चेतना आ सकती है। श्री अरविन्द घोष की मृत्यु 5 दिसम्बर, 1950 में पाण्डिचेरी में हुई थी।
– नीरज कृष्ण