आलेख
श्रीधर पाठक के काव्य में राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना
– डॉ. मुकेश कुमार
बहुआयामी प्रतिभा के स्वामी, पारगामी ऋतम्भरा प्रज्ञा के अनुयायी, भावयित्री एवं कारयित्री प्रतिभा के धनी, राष्ट्रीय चेतना एवं भारतीय संस्कृति के उन्नायक पं. श्रीधर पाठक का जन्म 11 जनवरी सन् 1860 ई. को आगरा ज़िला के जोंधरी नामक ग्राम में हुआ। आपके पिता जी का नाम पं. लीलाधर और पितामह का नाम धरणीधर शास्त्री था। आपकी जाति सारस्वत ब्राह्मण थी।
श्रीधर पाठक जी की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई। हिन्दी प्रवेशिका करने के उपरांत सन् 1880 में एंट्रेस की परीक्षा इन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की। 1881 में ई. तक आप सेंसस जनगणना कमिश्नर के कार्यालय में 60 रुपए प्रति मास के वेतन पर कलकत्ते में नौकरी करते रहे। भारतेन्दु काव्य परिपाटी का अगला विकास श्रीधर पाठक, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, बालमुकुंद गुप्त, नाथूराम शर्मा ‘शंकर’, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही आदि की रचना धर्मिताओं में देखा जा सकता है। आपका द्विवेदीयुगीन काव्य में मूर्धन्य स्थान माना जाता है। श्रीधर पाठक हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि हैं, जो हृदय सरल, उदार, नम्र, सहृदय, प्रकृति प्रेमी तथा भारतीय संस्कृति के परम उपासक आदि नाम से जाने जाते हैं। पाठक जी कविता को ही अपना धर्म व कर्म
मानते हैं।
श्रीधर पाठक जी प्रकृति के बड़े प्रेमी कवि माने जाते हैं। उन्होंने प्रकृति की छटा में भ्रमण किया। वे कई बार नैनीताल, काश्मीर व देहरादून आदि जगहों पर जाते रहते थे। उन यात्राओं का इनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। आपकी पहली दो मौलिक रचनाएँ खड़ी बोली में लिखी गई तथा तीसरी रचना ब्रज भाषा में लिखी। श्रीधर पाठक जी खड़ी बोली के साथ-साथ ब्रज भाषा में भी कविता करते थे। आपकी कविताओं में राष्ट्रीय प्रेम व भारतीय संस्कृति का यशोगान मिलता है। इनकी रचनाओं का छायावादी कवि सुमित्रानंद पंत के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। श्रीधर पाठक को वृद्धावस्था में दमे का रोग हो गया था। वे सन् 1928 में स्वर्ग सिधार गए। अपने पीछे इन्होंने दो पुत्र और एक कन्या को छोड़ा। इनकी पुत्री सुश्री ललिता पाठक प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर रहीं। श्रीधर पाठक की रचनाएँ इस प्रकार से हैं-
“भारत-गीत, गोपिका-गीत, मनोविनोद, जगत् सचाई सार, काश्मीर सुषमा, एकांतवासी योगी, श्रांत पथिक और ऊबड़ ग्राम।“1
द्विवेदी युग राष्ट्रीयता के विकास का एक महत्त्वपूर्ण युग है। इस युग में राष्ट्रीयता के अनेक स्वर छूटे। जिसमें ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त व रामचरित उपाध्याय, रामनरेश त्रिपाठी आदि। पं. माखन लाल चतुर्वेदी जी ने तो राष्ट्रीय एवं भारतीय संस्कृति की पूर्ण आलख जगाई। पुष्प की अभिलाषा कविता मंे कहा है-
”चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं, प्रेमी माला मंे बिंध प्यारी को ललचाऊँ।
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ।
चाह नहीं, देवांे के सर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ में देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।“2
इसी कड़ी के बीच राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने ‘भारत-भारती’ काव्य रचना की प्रथम पंक्ति मंे आर्यों के आगमन, उनके क्रियाकलापों का विवेचन किया उनकी पूर्ण रचना राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत है-
”मानस भवन में आर्यजन, जिसकी उतारे आरती
भगवान! भारत वर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोभदाविनी वह भारती हे भगवते।
सीतापते! सीता पते! गीता मते! गीता मते!“3
श्रीधर पाठक की रचनाओं मंे राष्ट्रीय चेतना की प्रखर ध्वनि सुनाई देती है। उन्होंने भारत के जातीय जीवन का सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष को उभारा है। उनकी कविता में देशप्रेम, लोक कल्याण, कत्र्तव्य-परायणता, राष्ट्रीय सेवा आदि बिन्दु मिलते हैं। भारतीय संस्कृति विश्वबन्धुत्व की भावना, अहिंसा, आत्मशुद्धि, सत्य, परोपकारी आदि के चित्र मिलते हैं। पाठक जी ‘भारत-गीत’ में कहते हैं-
”स्वर्गिक शीश फूल पृथ्वी का
प्रेम मूल, प्रिय लोकत्रयी का,
सुललिता, प्रकृति-नटी का टीका
ज्यों निशि का राकेश!
जय जय प्यारा, देश हमारा,
जय जय शुभ्र हिमाचल शृंगा
कलरव निरत कलोलिनी गंगा
भानुप्रताप चमत्कृत अंगा
तेज पुंज तपदेश
जय जय प्यारा, भारत देश
जग में कोटि कोटि जुग जीवे
जीवन सुलभ अमी रस पीवे,
सुखद वितान सुकृत का सीवे,
रहे स्वतंत्र हमेशा!
जय जय त्यारा, भारत देश!!“4
श्रीधर पाठक की रचनाओं में राष्ट्रीय भावना, राष्ट्र प्रेम भारत की गौरवगाथा का यशोगान किया है। राष्ट्र प्रेम के गीत जय-जय प्यारा, भारत देश गाने लगे। राष्ट्र भक्ति के साथ-साथ देशभक्ति का भी रिश्ता बन गया। जिसमें पराधीनता से मुक्ति और स्वाधीनता के लिए पुकार के स्वर गूंजे-
”वंदनीय वह देश, जहां के देशी निज अभिमानी हों।
बांधवता मंे बंधे परस्पर, परता के अज्ञानी हों।
निंदनीय वह देश, जहां के देशी निज अज्ञानी हों।
सब प्रकार परतंत्र, पराई प्रभुता के अभिमानी हों।।“5
श्रीधर पाठक जी देशानुराग को व्यक्ति का सबसे उज्ज्वल गुण मानते हैं और परतंत्रता को उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य। नवयुवकों से ये ऐसी आशा करते रहे कि वे आर्यों के गौरव की रक्षा कर भारत वर्ष की कीर्ति का विस्तार करेंगे। इसमंे भारत के नगर ग्राम वन-उपवन, सरिता सरोवर, मैदान, पहाड़ों को दृष्टि पथ मंे लाते हुए परतंत्रता के दिनों में उसकी आत्मा की स्वतंत्रता की घोषणा इन्होंने की है-
”जय नगर ग्राम अभिराम हिंद।
जय जयति-जयति सुखधाम हिंद।।
जय सरसिज-मधुर-निकर हिंद।
जय जयति हिमालय-शिखर हिंद।।
जय जयति विंध्य-कंदरा हिंद।
जय मलय-मेरु-मंदरा हिंदं
जय शैल-सुता सुरसरी हिंद।
जय यमुना-गोदावरी हिंद।।
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद।
जय जयति-जयति प्राचीन हिंद।।“6
प्रत्येक राष्ट्र की निजी संस्कृति होती है जो उसको एक सूत्र में पिरोये रखती है-रीति-रिवाज, साहित्य, शिक्षा, कला, रहन-सहन, जीवन-दर्शन एवं मान्यताओं सभी का समाहार संस्कृति के अन्तर्गत हो जाता है। संस्कृति मानव के जीवन-वृक्ष का सुगन्धित पुष्प है। उसकी सुगन्ध में राष्ट्र की अस्मिता अन्तर्निहित होती है। वस्तुतः वह अतीत के महापुरुषों के सहस्त्रों वर्षों को ज्ञान तथा जीवन मंे उत्तरोत्तर उन्नति की युक्तियों का संचय है। सांस्कृतिक एकता राष्ट्रीय चेतना की आत्मा है उसकी विशृंखलता मानों राष्ट्रीयता के विनाश का संकेत है।
भारतीय संस्कृति में अनेकता में एकता की भावना, प्राचीन काल से ही रही है। चार पवित्र धाम, सात पुण्यतोया नदियाँ, सात पवित्र पर्वत, सात पवित्र नगर, शैवों के बारह ज्योतिर्लिंग तथा सूर्य के बारह प्रसिद्ध मन्दिर सम्पूर्ण भारत में बिखरे हुए हैं। प्रकृति की रम्यता का सुंदर वर्णन किया है। यहाँ पर कवि द्वारा प्रकृति की सुंदर छटा का कल्पना युक्त वर्णन किया है। प्रकृति की कल्पना नारी रूप में कर उसे सजीवता प्रदान की गई-
”प्रकृति यहाँ एकांत बैठि,
निज रूप संवारति।
पल-पल पलटति भेस
छनकि छवि छिन-छिन धारती।।
विमल अंबु-सर-मुकुरन,
महँ मुख-बिम्ब निहारति।
अपनी छवि पै मोहि
आप ही तन-मन बारति।।
सिहरति विविध विलास,
भरी जोबन के मद सनि।
ललकति, किलकति, पुलकित,
निरखति, थिरकति बनि ठमि।।“7
श्रीधर पाठक द्वारा ‘जगत सचाई सार’ रचना में प्रकृति के विविध तत्त्वों के व्यापक दर्शन किए हैं। सु संदेश में तो इन्होंने रहस्यवादी, प्रकृति की सुंदर छटा का वर्णन किया है। कहीं-कहीं कल्पना भी की है और संगीतमय लय को दर्शाया है-
”कहीं मैं स्वर्गीय कोई बाला, सुमंजु वीणा बजा रही है।
सुज्ञे के संगीत की सी कैसी सुरीली गुंजार आ रही है।
कभी नयी वान प्रेममय है, कभी प्रकोपन, कभी विनय है।
दया है दाक्षिणय का उदय है अनेक बानक बना रही है।।
भरे गगन में हैं जितने तारे, हुए हैं मदमस्त गत पै सारे।
समस्त ब्रह्मांड भर को मानो, उँगलियों पर नचा रही है।।“8
श्रीधर पाठक जी ने गोल्ड स्मिथ के काव्य-ग्रंथों के पद्य-बुद्ध अनुवाद द्वारा हिन्दी में इन्होंने एक नयी काव्य चेतना का शुभारंभ किया। ‘एकांतवासी योगी’ का अनुवाद तो इन्होंने सन् 1886 में ही प्रस्तुत किया। भाषा सरल सहज व बोधगम्य है। स्थान-स्थान पर प्रयोग पाए जाते हैं।
”उसी भाँति सांसारिक मैत्री केवल एक कहानी है,
नाम मात्र से अधिक आज तक नहीं किसी ने जानी है।
अपना स्वार्थ सिद्ध करने को जगत मित्र बन जाता है।
किन्तु काम पड़ने पर, कोई कभी काम नहीं आता है।।“9
सारांश रूप में कहा द्विवेदी युगीन काव्यधारा में श्रीधर पाठक का उदात्त स्थान है। इनके काव्य में राष्ट्रप्रेम, देशप्रेम, विश्वबन्धुत्व की भावना, परोपकारी, नैतिकता, आदि बिंदु को अपनी रचनाओं में स्थान दिया वे भारतीय संस्कृति के परम उपासक रहे। उनके साहित्य का अध्ययन करने से आदर्शता की भावना जागृत होती है। अतः प्रेम, प्रकृति और देशभक्ति के अतिरिक्त समाज सुधार की भावनाओं से इनकी रचनाएँ ओतप्रोत हैं।
संदर्भ –
1. विश्वम्भर ‘मानव’ आधुनिक कवि, पृष्ठ 29
2. वही, पृष्ठ 59
3. मैथिलीशरणगुप्त, भारत-भारती, पृष्ठ 4
4. डाॅ. बच्चन सिंह, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ 225
5. वही, पृष्ठ 228
6. विश्वम्भर मानव, आधुनिक कवि, पृष्ठ 33
7. वही, पृष्ठ 30
8. वही, पृष्ठ 32
9. वही, पृष्ठ 33
– डाॅ. मुकेश कुमार