स्मृति
श्रद्धांजलि- चंद्रकांत देवताले
हिन्दी के प्रख्यात एवं वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले का 14 अगस्त 2017 को निधन हो गया। 81 वर्षीय देवताले जी पिछले एक महीने से अस्वस्थ थे एवं अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था।
देवताले का जन्म मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के जौल खेड़ा गाँव में 7 नवंबर 1936 को हुआ था। उनकी शुरुआती शिक्षा इंदौर से हुई। हिंदी में एमए करने के बाद उन्होंने मुक्तिबोध पर पीएचडी की थी।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित श्री देवताले जी को मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था।
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उसके सपने, बदला बेहद महँगा सौदा, पत्थर फेंक रहा हूँ
आलोचना : मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक
संपादन : दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब
अनुवाद : पिसाटी का बुर्ज (दिलीप चित्रे की कविताएँ, मराठी से अनुवाद)
‘हस्ताक्षर’ की ओर से श्री चंद्रकांत देवताले जी को नमन….विनम्र श्रद्धांजलि!
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चंद्रकांत देवताले जी की हृदयस्पर्शी कविताएँ –
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं उनकी नींद हराम हो जाए
हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शांत मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर
खून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ
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प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
तुम्हारी निश्चल आँखें
तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
जरूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
दुनिया-भर के पिताओं की लंबी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वाँ नंबर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में
तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं खुश हूँ सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाईं
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माँ जब खाना परोसती थी
वे दिन बहुत दूर हो गए हैं
जब माँ के बिना परसे
पेट भरता ही नहीं था
वे दिन अथाह कुएँ में छूट कर गिरी
पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह
अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे
फिर वो दिन आए
जब माँ की मौजूदगी में
कौर निगलना तक दुश्वार होने लगा था
जबकि वह अपने सबसे छोटे और बेकार बेटे के लिए
घी की कटोरी लेना कभी नहीं भूलती थी
उसने कभी नहीं पूछा
कि मैं दिन भर कहाँ भटकता रहता था
और अपने पान-तंबाकू के पैसे
कहाँ से जुटाता था
अकसर परोसते वक्त वह
अधिक सदय होकर
मुझसे बार-बार पूछती होती
और थाली में झुकी गरदन के साथ
मैं रोटी के टुकड़े चबाने की
अपनी ही आवाज सुनता रहता
वह मेरी भूख और प्यास को
रत्ती-रत्ती पहचानती थी
और मेरे अकसर अधपेट खाए उठने पर
बाद में जूठे बरतन अबेरते
चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी
बरामदे में छिपकर
मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे
और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना
सबसे खौफनाक सिद्ध होता
और तब मैं दरवाजा खोल
देर रात तक के लिए सड़क के
एकांत और अँधेरे को समर्पित हो जाता
अब ये दिन भी उसी कुएँ में लोहे की वजनी
बाल्टी की तरह पड़े होंगे
अपने बीवी-बच्चों के साथ खाते हुए
अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी
दोनों ही गायब हो गई है
अब सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी से खाते हैं
और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिंत रहते हैं
फिर भी कभी-कभार मेथी की भाजी या बेसन होने पर
मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती टोहती
उसकी दृष्टि और आवाज तैरने लगती है
और फिर मैं पानी की मदद से खाना गटक कर
कुछ देर के लिए उसी कुएँ में डूबी उन्हीं बाल्टियों को
ढूँढ़ता रहता हूँ
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बेटी के घर से लौटना
बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन
पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदुरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहता – कितने दिन तो हुए
सोचता – कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज
वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रुँध जाता थके कबूतर-सा
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना
– चंद्रकांत देवताले