श्रद्धांजलि
प्रख्यात कवि और पत्रकार वीरेन डंगवाल जी का 28 सितम्बर को बरेली में निधन हो गया। वीरेन डंगवाल बरेली कॉलेज में प्रोफेसर रहे। इसके अलावा वह समय-समय पर अमर उजाला, बरेली और अमर उजाला, कानपुर के संपादक भी रहे। करीब तीन दशकों से वह अमर उजाला के ग्रुप सलाहकार, संपादक और अभिभावक के तौर पर जुड़े रहे। मनुष्यता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र में अटूट आस्था रखने वाले वीरेन डंगवाल ने इन आदर्शों-सरोकारों को पत्रकारिता और अखबारी जीवन से कभी अलग नहीं माना। वे उन दुर्लभ संपादकों में से रहे हैं, जो सिद्धांत और व्यवहार को अलग-अलग नहीं जीते थे।
5 अगस्त सन 1947 को कीर्तिनगर, टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में जन्मे वीरेन डंगवाल साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि रहे। वे अपने चाहने/जानने वालों में वीरेन दा नाम से लोकप्रिय रहे। उनकी शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वर्ष 1968 में एम.ए. फिर डी.फिल करने वाले वीरेन डंगवाल 1971 में बरेली कालेज के हिंदी विभाग से जुड़े। उनके निर्देशन में कई (अब जाने-माने हो चुके) लोगों ने हिंदी पत्रकारिता के विभिन्न आयामों पर मौलिक शोध कार्य किया। इमरजेंसी से पहले निकलने वाली जार्ज फर्नांडिज की मैग्जीन ‘प्रतिपक्ष’ से लेखन कार्य शुरू करने वाले वीरेन डंगवाल को बाद में मंगलेश डबराल ने वर्ष 1978 में इलाहाबाद से निकलने वाले अखबार अमृत प्रभात से जोड़ा। अमृत प्रभात में वीरेन डंगवाल ‘घूमता आईना’ नामक स्तंभ लिखते थे, जो बहुत मशहूर हुआ। घुमक्कड़ और फक्कड़ स्वभाव के वीरेन डंगवाल ने इस कॉलम में जो कुछ लिखा, वह आज हिंदी पत्रकारिता के लिए दुर्लभ व विशिष्ट सामग्री है। वीरेन डंगवाल पी.टी.आई, टाइम्स आफ इंडिया, पायनियर जैसे मीडिया माध्यमों में भी जमकर लिखते रहे। वीरेन डंगवाल ने अमर उजाला, कानपुर की यूनिट को वर्ष 97 से 99 तक सजाया-संवारा और स्थापित किया। वे बाद के वर्षों में अमर उजाला, बरेली के संपादक रहे।
वीरेन दा का पहला कविता संग्रह 43 वर्ष की उम्र में आया। ‘इसी दुनिया में’ नामक इस संकलन को ‘रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार’ (1992) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) से नवाज़ा गया। दूसरा संकलन ‘दुष्चक्र में सृष्टा’ 2002 में आया और इसी वर्ष उन्हें ‘शमशेर सम्मान’ भी दिया गया। दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें 2004 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। वीरेन डंगवाल हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि माने गए। उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी व बौद्धिकता एक साथ मौजूद हैं। वीरेन डंगवाल पेशे से रुहेलखंड विश्वविद्यालय के बरेली कॉलेज में हिन्दी के प्रोफेसर, शौक से पत्रकार और आत्मा से कवि रहे। सबसे बड़ी बात, बुनियादी तौर पर एक अच्छे-सच्चे इंसान। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए। उनकी खुद की कविताएं बांग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मलयालम और उड़िया में छपी हैं। कुछ वर्षों पहले वीरेन डंगवाल के मुंह के कैंसर का दिल्ली के रॉकलैंड अस्पताल में इलाज हुआ। उन्हीं दिनों में उन्होंने ‘रॉकलैंड डायरी’ शीर्षक से कई कविताएं लिखीं। वीरेन डंगवाल ने पत्रकारिता को काफी करीब से देखा और बूझा है।
वीरेन जी की कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ-
पेप्पोर रद्दी पेप्पोर
पहर अभी बीता ही है
पर चौंधा मार रही है धूप
खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़
उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख
सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फरियाद है अजान-सी
एक फरियाद है एक फरियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से
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इतने भले नहीं बन जाना
इतने भले नहीं बन जाना साथी!
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत, सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं, न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बगल दबी हो बोतल, मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना
ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो
काफ़ी बुरा समय है साथी!
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी!
अपनी समझ बदलना साथी!
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पत्रकार महोदय!
‘इतने मरे’
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।
अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा
रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प।
जीवन
किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !
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परम्परा
पहले उसने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए
और कहा- “असल में यह तुम्हारी स्मृति है”
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया
और कहा- “अब जा कर हुए तुम विवेकवान”
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी
और कहा- “चलो अब उपनिषद पढ़ो”
फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा- “अब अपनी तो यही है परम्परा।”
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साभार : हिंदी समय
– वीरेन डंगवाल