शोक में डूबे कंठ का शब्द-गान
शिमला (हि.प्र.) स्थित रामपुर के युवा रचनाकार मनोज चौहान की कविता ‘बुझ गया वो दीया’ दिवंगत आत्मा व हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को श्रद्धा के सुमन अर्पित करती हुई प्रतीत होती है। पिछले दिनों कलाम साहब ने इस नश्वर दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके निधन पर पूरे भारत भर में शोक की लहर रही। यह कविता भी उसी शोक में डूबे कंठ का शब्द-गान है। सच ही है कि कवि जब अपने दुःख को एकांत में शब्दों के माध्यम से रोता है, तो लोग कागज़ पर बिखरे उन समग्र आंसुओं को काव्य का नाम देते हैं।
प्रस्तुत कविता में कलाम साहब के जीवन, उनके संघर्ष, व्यक्तित्व और उनके अमिट कर्मों की झलक दिखलाते हुए कवि उनकी अमरता की घोषणा करता है। कवि के अनुसार डॉ. कलाम आने वाली अनेक पीढ़ियों के आदर्शों, सपनों और प्रेरणाओं में हमेशा जीवित रहेंगे।
“ऐसे बिरले कम ही
होते हैं पैदा,
और विदा होकर भी
जिन्दा रहते हैं,
सदियों तलक
आने वाली नस्लों
की रूह में”
कवि ने प्रस्तुत कविता में डॉ. कलाम को सीधे-सीधे संबोधित न कर एक ‘दीया’ रुपी प्रतीक के माध्यम से अपने कथ्य में उपस्थित किया है। कवि का यह प्रतीक विधान पूर्णत: न्यायसंगत है, क्यूंकि इस महान आत्मा ने अपने जीवन में लाखों लोगों को सफलता की उम्मीद की रोशनी दी है और करोड़ों घरों का अँधेरा दूर किया है। युवाओं को ‘जागती आँखों से सपने देखने’ के लिए प्रेरित करने वाले डॉ. कलाम वर्तमान समय में सर्वाधिक लोकप्रिय ‘रोल मॉडल’ रहे। शून्य से उठकर शिखर तक कैसे पहुँचा जाये, और शिखर पर पहुँच कर शून्य से कैसे जुड़ा रहा जाये ताकि क़दमों का तालमेल बना रहे, यह हम कलाम साहब से बेहतर किसी से नहीं सीख सकते। इसलिए कवि कहता है-
“सफलता की असीम
बुलंदियों को
छूकर भी,
वो जुड़ा रहा,
हमेशा जमीन से”
युवा कवि द्वारा रचित यह कविता गद्य काव्य का अच्छा उदाहरण है। गद्य काव्य की अपनी एक आंतरिक लय होती है, उस लय को आरम्भ से अंत तक बनाये रखना कवि के सामर्थ्य को इंगित करता है। मनोज चौहान यद्यपि इस कार्य में पूर्णत: सफल नहीं भी हुए, लेकिन इस लय के आसपास नज़र ज़रूर आते हैं। हालांकि कविता के शिल्प को कुछ और सुगढ़ होना चाहिए था लेकिन रचनाकार की ‘युवावस्था’ को देखते हुए हम इनके प्रयास को कमतर नहीं कह सकते। साथ ही शब्द प्रयोग में मितव्ययी होने के लिए भी कवि की प्रशंसा करनी होगी।
कविता की समकालीन विषय-वस्तु और उसका प्रस्तुतीकरण प्रभावित करने वाला है। यूँ तो आजकल हर छोटे-बड़े मुद्दे पर सोशल मीडिया व समाचार-पत्रों में ढेरों रचनाएँ देखने-पढ़ने को मिलती है, लेकिन वे सिर्फ प्रतिक्रिया मात्र लगती हैं, कविता की परिभाषा से कोषों दूर होती हैं। कलाम साहब के निधन के बाद आई रचनाओं की बाढ़ में यह कविता सबसे अधिक प्रभावित करती है और वह सिर्फ अपने प्रस्तुतीकरण के ढंग की वजह से।
कविता में एक स्थान पर रचनाकार ने ‘अनेकों’ शब्द का प्रयोग किया है, जबकि ‘अनेक’ स्वयं ‘एक’ का बहुवचन है, अत: अनेक का बहुवचन बना पाना संभव नहीं। उम्मीद है रचनाकार इन कुछ बातों पर गंभीरता से विचार करेंगे और भविष्य में हमें और भी सुंदर, सुगढ़ कविताएँ पढ़ने का अवसर देंगे। कवि मनोज चौहान को एक अच्छी रचना व सफल साहित्यिक भविष्य के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ।
कविता- बुझ गया वो दीया
आज वो दीया
बुझ गया है,
मगर कर गया है
आलोकित
अनेकों दीये
जो करते रहेंगे
सदैव ही संघर्ष,
अंधेरों से लड़ते हुए
भूख और गरीबी
जैसे शब्दों के
सही मायने
आत्मसात,
कर गया था वह,
खिलौनों से खेलने
की उम्र में ही
एक ऐसा शख्स
जिसने सपने तो देखे
मगर नींद में
रहा ही नहीं
ता उम्र,
सफलता की असीम
बुलंदियों को
छूकर भी
वो जुड़ा रहा
हमेशा जमीन से
सुपथ पर चलकर,
सुकर्म करते हुए वह,
उठ गया इतना ऊँचा
कि पद, सम्मान और
मजहब भी
साबित हो गए
बौने
उसकी शख्सियत के आगे
धर्म के नाम पर
छोटी सोच लिए
पथभ्रष्ट करने की
नाकाम कोशिशें
भी करता रहा
पड़ोसी मुल्क
अपने ईमान का
लोहा मनवाकर,
कलम का सिपाही,
अडिग, अचल,
समर्पित रहा
मातृभूमि को ही
ये सच है कि
ऐसे बिरले कम ही
होते हैं पैदा
और विदा होकर भी
जिन्दा रहते हैं
सदियों तलक
आने वाली नस्लों
की रूह में
– मनोज चौहान
एस.जे.वी.एन. कॉलोनी, दत्तनगर,
रामपुर बुशहर, शिमला (हि.प्र.)-172001
– के. पी. अनमोल