ख़ास-मुलाक़ात
शैलेन्द्र सागर जी से मोनिका शर्मा की मुलाक़ात
उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद की शोध छात्रा मोनिका शर्मा ने अपने पी-एच.डी. शोध प्रबंध के लिए शैलेंद्र सागर जी का कहानी संग्रह ‘प्रतिरोध’ लिया है। इसी सिलसिले में उनकी शैलेन्द्र जी से हुई विस्तृत चर्चा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है-
मोनिका- एक अलग क्षेत्र में होने के बाद भी हिंदी कथा साहित्य में लेखन की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
शैलेंद्र सागर- मेरे परिवार की पृष्ठभूमि साहित्यिक थी। इसलिए मेरा आरंभ से ही साहित्य के प्रति झुकाव था। आई.पी.एस. में चयन के बाद मेरा लेखन अवश्य अवरुद्ध रहा। पुलिस सेवा में होने के कारण मुझे ग्रामीण समाज को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला। इसके अतिरिक्त राजनीति व समाज को भी जानने और समझने का मौका मिला। मेरा यह मानना है कि विभिन्न पृष्ठभूमि और क्षेत्रों से आए लेखक साहित्य को समृद्ध करते हैं।
मोनिका- आपका ‘प्रतिरोध’ कहानी संग्रह पढ़ने के बाद मुझे आपकी कहानियों में उच्च वर्ग की स्त्री के जीवन के बारे में पता चला। क्या आप नारीवाद पर ज्यादा लिखते हैं? इसके बारे में विस्तार से बताइए।
शैलेंद्र सागर- मैं स्त्रीवादी चेतना से प्रभावित नहीं हूँ किंतु स्त्री से जुड़े प्रश्नों के प्रति पूरी तरह संवेदनशील हूँ। मेरे दो उपन्यास दलित स्त्रियों की पीड़ा और अपमान की कथाएं हैं। मेरी काफी कहानियां परिवार से जुड़ी हुई हैं और स्वाभाविक है कि उसमें स्त्री का सबसे अहम् स्थान है। इस नाते यह कहा जा सकता है कि मेरी कहानियों और उपन्यास में स्त्री चरित्र प्रमुखता से आते हैं।
मोनिका- आपके विचार से भविष्य की कहानी कैसी होगी?
शैलेंद्र सागर- भविष्य की कहानी कैसी होगी, कुछ अजीब-सा सवाल है। साहित्य भविष्यवाणियों से नहीं चलता। हाँ, क्योंकि कहानी समाज से गहराई से जुड़ी है, इसलिए इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि भविष्य का समाज कैसा होगा। जैसा भविष्य का समाज होगा, वैसी ही भविष्य की कहानी होगी। इस बारे में काफी कुछ लिखा जा सकता है पर संक्षेप में इतना कहना चाहूंगा कि कहानी हमेशा एक प्रयोगशील विधा रही है। भाषा, शिल्प के स्तर पर हमेशा कहानी में प्रयोग होते रहे हैं और यही कहानी को सामयिक और प्रासंगिक बनाते हैं। इस तरह के बदलाव के संकेत हमें आज मिल रहे हैं। कहानी में भाषा, शिल्प, ट्रीटमेंट के स्तर पर प्रयोग हो रहे हैं और लेखकों की एक नई पीढ़ी आज न केवल सक्रिय है अपितु चर्चित भी है। कहानी की भाषा और भाषाओं के प्रयोग बढ़ेंगे और कहने और शिल्प में बदलाव आएगा। पर यह भी सच है कि कहानी को कहानी ही रहने देना होगा। प्रयोगशीलता कहानी के कहानीपन की कीमत पर नहीं की जा सकती और जब-जब ऐसा हुआ है, कहानी विधा को हानि पहुंची है।
मोनिका- आपकी दृष्टि में आपकी सर्वश्रेष्ठ कहानी कौन-सी है और क्यों?
शैलेंद्र सागर- हर रचनाकार अपनी हर रचना को उत्कृष्ट बनाने की कोशिश करता है और अपनी पूरी शक्ति, सामर्थ्य और क्षमता उसमें झोंक देता है। पर कुछ रचनाएं पाठकों को बहुत ज्यादा भाती हैं तो कुछ नहीं जमतीं। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि जो पाठकों का ध्यान आकर्षित नहीं कर पातीं, उन्हें लेखक ने पूरी तन्मयता से नहीं लिखा है। कभी-कभी इसका उलटा भी होता है। जो कहानियां बहुत सरलता या बिना किसी अतिरिक्त श्रम के लिखी जाती हैं, वे अपेक्षाकृत ज्यादा पसंद की जाती हैं और जिन कहानियों में लेखक को साल लग जाते हैं, वे अननोटिस्ड रह जाते हैं।
अपनी किसी कहानी को सर्वश्रेष्ठ कहना बड़ा मुश्किल काम है। हाँ, आप यह कह सकते हैं कि कौन-सी कहानियां मुझे अधिक प्रिय हैं। कुछ नाम मैं दे रहा हूँ –
क) गुलइची
ख) खून खून
ग) माटी
घ) आधी दुनिया, आधा सच, आधे सपने
ड.) प्रतिरोध
इनके प्रिय होने का कारण यह है कि इन सब कहानियों के पीछे मेरे अनुभव और ऐसे चरित्र थे जिनको मुझे करीब से देखने का अवसर मिला और उनकी समस्याओं को सुलझाने में मेरी कोई-न-कोई भूमिका थी। इन घटनाओं को रचनात्मक अभिव्यक्ति देना एक बड़ी चुनौती भी थी और इनमें से कुछ कहानियां लिखने में मुझे दो-ढाई साल तक लगे।
मोनिका- आपको अपनी रचनाओं के लिए भावनात्मक ऊर्जा कहां से मिलती है?
शैलेंद्र सागर- हर रचनाकार को भावात्मक ऊर्जा उसका अपना अंतरंग देता है। जो व्यक्ति अपने अंदर से कमजोर या श्रीहीन होता है, उसे कोई दूसरा शक्ति प्रदान नहीं कर सकता। हाँ, उसके इर्द गिर्द का माहौल और चरित्र भी उसे कुछ भावनात्मक ऊर्जा से निकट का संबंध है। जहां तक मेरा संबंध है, मेरे लेखक पिता और उनका असामयिक निधन मेरे लेखन के लिए एक अहम् संबल रहा है। मेरे पिता मेरे लेखन की प्रेरणा रहे हैं।
मोनिका- आज के कथा साहित्य के प्रति आपकी क्या अवधारणा है?
शैलेंद्र सागर- कथा साहित्य का भविष्य अत्यंत उज्जवल है। कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में नई प्रतिभाएं सामने आ रही हैं। एक अच्छी बात यह है कि अलग क्षेत्रों के लोग कथा साहित्य में सक्रिय हैं। अध्यापन के अतिरिक्त तकनीकी विशेषज्ञ, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्यरत युवक युवतियां, डॉक्टर, इंजीनियर, सी.ए., अधिकारी आदि विभिन्न क्षेत्रों से आए लोग आज कहानी लेखन में सृजनरत हैं। इससे कहानी के विषयों में विविधता आ रही है। भाषा और शिल्प को लेकर नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। पत्रिकाओं की भरमार है और लगभग सभी पत्रिकाएं कहानी को प्रमुखता से प्रकाशित कर रही हैं।
मोनिका- आज का साहित्यकार पूरी तरह से पाश्चात्य के अंधानुकरण में लगा हुआ है। आप इसे कहां तक उचित मानते हैं?
शैलेंद्र सागर- मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि आज का साहित्यकार पाश्चात्य के अंधानुकरण में लिप्त है। सच तो यह है कि ज्यादातर लेखकों को पाश्चात्य का साहित्य सुलभ भी नहीं है। हां, यह सच है कि समाज और साहित्य में वक्त के साथ जो बदलाव आते हैं, वे सर्वव्यापी हैं। उसका प्रभाव सभी देशों के साहित्य पर दिखलाई देता है। इसे पाश्चात्य का अंधानुकरण कहना उचित न होगा।
मोनिका- समकालीन कहानी में जो राजनीति परिलक्षित होती है, उस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
शैलेंद्र सागर- यह प्रश्न स्पष्ट नहीं है कि आप आज की राजनीति की बात कर रही हैं या कहानी की राजनीति की। मैं कहानी की राजनीति को नहीं जानता और न ही मैं इसमें विश्वास करता हूं। जहां तक देश की राजनीति का सवाल है, वह कुछ हद तक साहित्य में परिलक्षित हो रही है पर इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना है। कई ऐसे क्षेत्र व मुद्दे हैं जिन्हें कथा साहित्य में उचित मान्यता दिए जाने की जरूरत है। गांव और किसानों से जुड़े प्रश्न, उनकी आत्म हत्याएं, आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन व उनकी अस्मिता के सवाल, अल्पसंख्यकों की समस्याएं, असहमति या प्रतिरोध के स्वर और उनका साहित्य में रेखांकन आदि ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर साहित्यकारों को ध्यान देने की जरूरत है।
मोनिका- मेरी दृष्टि में मीडिया, उत्तर आधुनिकता, भूमंडलीकरण एवं बाजारीकरण ने भारतीय समाज को बहुत प्रभावित किया है, इसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा है। मुझे लगता है कि इनके कारण मानव मूल्यों में सांस्कृतिक चिंतन में गिरावट आयी है। एक लेखक होने के नाते इन तथ्यों की ओर आप किस तरह देखते हैं?
शैलेंद्र सागर- यह सही है कि मीडिया, उत्तर आधुनिकता, भूमंडलीकरण ने भारतीय समाज को बहुत गहराई से प्रभावित किया है। उदारीकरण और बाजारवाद ने इस पीढ़ी की सोच को बदल दिया है। इसका साहित्य पर प्रभाव पड़ना लाजमी है। मूल्यों में भी बदलाव आया है। पर इसे किसी प्रकार की गिरावट कहना शायद जल्दबाजी का निर्णय होगा। यह एक बदलाव है और उस बदलाव के साथ समाज को बदलना ही है। स्वाभाविक है कि इसका साहित्य पर भी प्रभाव पड़ेगा। गांवों से शहरों की ओर पलायन हो रहा है। गांव के लड़के लड़कियां तकनीक से रूबरू हो रहे हैं, बड़ी कंपनियों में काम कर रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति में बदलाव आ रहा है। इससे उनकी सोच बदल रही है। समाज व संबंधों को लेकर भी उनमें एक नई सोच आ रही है। इस सांस्कृतिक गिरावट कहना ठीक नहीं है। उसके कारण कुछ और हो सकते हैं। अपनी भाषा से दूरी और अलबाव को मैं इसका महत्वपूर्ण कारक मानता हूं।
मोनिका- ‘मकान ढह रहा है‘ कहानी संग्रह पर जब आपको पुरस्कृत किया गया, उस समय आपको कैसा लगा? इस बारे में कुछ बताइए।
शैलेंद्र सागर- पुरस्कार लेखक को प्रसन्नता देता है और उसके लिए एक प्रेरक का भी काम करता है। उसे लगता है कि उसके लेखक को मान्यता प्रदान की गई है। उसे संतोष होता है। मुझे भी ऐसा लगा था।
शैलेन्द्र सागर जी- एक नज़र में
जन्मतिथि- 05 अप्रैल, 1951 ई.
जन्मस्थान- रामपुर (उ.प्र.)
प्रकशन- इस जुनून में, मकान ढह रहा है, माटी, आमीन, प्रतिरोध (सभी कहानी संग्रह), चतुरंग, चलो दोस्त सब ठीक है (उपन्यास)
सम्मान- उ. प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मानित, विजय वर्मा कथा सम्मान, प्रेमचन्द सम्मान, सरस्वती पुरस्कार, महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान
संपर्क- 3 ट्रांजिट हॉस्टल, वायरलेस चौराहे के पास, महानगर,
लखनऊ (उ.प्र.)- 226006
ई-मेल: shailendrasagar_ips@rediffmail.com
मो.- 09415138626
– शैलेन्द्र सागर