धरोहर
शिवप्रसाद सिंह की कहानियों में ग्रामीण परिवेश
शिव प्रसाद सिंह नयी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर है। इनका जन्म 19 अगस्त सन् 1928 ई. को जलालपुर, जमानिया बनारस में हुआ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1953 ई. में एम.ए. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। सन् 1957 ई. में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में पी.एचडी. की और फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आचार्य के पद पर आसीन हुए। शिवप्रसाद सिंह प्रख्यात शिक्षाविद् के साथ-साथ साहित्य के भी शिखर पुरूष है। ‘नयी कहानी आन्दोलन के स्तम्भ शिवप्रसाद सिंह जी प्राचीन और समकालीन साहित्य से गहरे समर्पित है। कुछ समालोचक उनकी कथा रचना ‘दादी माँ को पहली ‘नयी कहानी’ मानते हैं।
शिवप्रसाद सिंह मूलतः ग्राम चेतना के कहानीकार है। आपने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए ग्रामीण जीवन के यथार्थ को मानवीय दृष्टि से देखा है। आपके छः कहानी संग्रह है-आर.पार. की माला (1955), कर्मनाशा की हार (1958), इन्हें भी इंतजार है (1961), मुरदा सराय (1966), अन्धेरा हँसता है (1975), भेड़िया (1977)। आपने प्रायः उपेक्षित, शोषित, दलित और पीड़ित ग्रामीण जनों को केन्द्र में रखकर अपनी कहानियों की रचना की है। आपकी कहानियों में चमार, मुसहर, कंजर, भंगी, कुम्हार, नट, केवट आदि आदि जातियों के पात्र अपनी संस्कारगत विशिष्टताओं के साथ उभरकर सामने आये हैं। इन पात्रों के भीतर लेखक ने मानवीय त्याग, करूणा, स्नेह, सहानुभूति और सच्चाई जैसे मूल्यों को संस्कार रूप में प्रतिष्ठित देखा है।
शिवप्रसाद सिंह की कहानियों में ग्रामीण परिवेश, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं यथार्थ परिवेश के दर्शन मिलते हैं। गाँव की लड़की नन्हों की शादी उनके पिताजी ने मिसरीलाल से पक्की कर दी। नन्हों का पिता जी बहुत खुश था। लेखक ने ग्रामीण परिवेश के रीति-रिवाज का बहुत गहनता से वर्णन किया है। क्योंकि यह विवाह कुछ नया नहीं है। यहाँ पर आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के तीखे सवाह प्रस्तुत किए गए। शिवप्रसाद सिंह नन्हों कहानी में लिखते हैं-”गाँव की सभी औरतों की तरह नन्हों का भी ब्याह हुआ। उसकी भी शादी में वही हुआ जो सबकी शादियों में होता है। बाजा-गाजा, हल्दी-सिन्दूर, मौज-उत्सव, हँसी-रूलाई-सब कुछ वही।“1
नन्ही एक ऐसी लड़की है जो अपना सारा जीवन सामाजिक मर्यादा और नैतिकता के दबाव में व्यक्त करती है। वह अपनी हृदय पीड़ा को किसी के सामने ब्यान भी नहीं करती, वह अकेली उसको अपने अन्दर पीती है। इस आधुनिकता के युग में समाज का ढांचा बढ़ता रहा है। इसी प्रकार शिवप्रसाद सिंह इस संदर्भ में कहते हैं-”नन्हीं मध्यवर्गीय नारी का प्रतिनिधित्व करती है, उसे शायद इतनी छूट मिल जाए कि वह भविष्य में अपनी मजबूरियों से बचने के लिए कोई रास्ता ढूंढ ले, क्योंकि समाज का नैतिक ढ़ांचा काफ़ी तेजी से बदल रहा है।“2
समाज के ग्रामीण परिवेश में खुशी के पल या फिर बुजुर्ग का बड़ा श्राद्ध करना आदि पर अनेक प्रकार के पकवान बनते हैं जिससे एक भगवान ने किन्नर जन्म दिया है। लेकिन एक लड़की कबरी अपने भाग्य की मारी इधर से उधर अपनी बुजुर्ग माता का हाथ पकड़े घूम रही है। यह आज की आधुनिकता की समस्या समाज के सामने है। इसमें शिवप्रसाद सिंह जी लिखते हैं-”कबरी अक्सर हमारे गाँव में आती है। किसी के घर शादी-ब्याह पड़े, जन्म का उत्सव हो या मरन का श्राद्ध, कबरी अपनी बूढ़ी माँ के साथ जरूर दिखाई पड़ती। शादी-ब्याह के दिनों में तो वे एक-एक पखवारा गाँव में रह जाते हैं।“3 ‘गंगा तुलसी’ कहानी में एक विधवा एवं दुःख से भरी नारी की पीड़ा को चित्रित किया है। कहानी की पात्र गंगा अपने बेटे को पढ़ाना चाहती है। परन्तु वह आर्थिक स्थिति से कमजोर है। उसकी इच्छा है कि मेरा बेटा बहुत पढ़ लिखकर कुछ बन जाए। वह अपने बेटे को पढ़ाने के लिए एक जमींदार के घर में चूल्हा चौका का काम करने लगती है। जहाँ उसे अपनी मजबूरी के कारण जमींदार से सम्बन्ध बनाना पड़ता है। गंगा अन्दर ही अन्दर सोचती है कि अगर जमींदार का विरोध करूंगी तो दूर की बात है कि पढ़ाना तो वह उसे गाँव में भी रहने नहीं देगा। लेकिन वह इस परिस्थिति के साथ समझौता कर लेती है। लेकिन जमींदार और गंगा के सम्बन्ध की चर्चा पूरे गाँव में फैल जाती है। परन्तु जब उसके बेटे को पता चलता है तो वह अपनी माँ से नफ़रत करने लगता है और अपने आप को नाज़ायज सन्तान सोचने लगता है। उसकी प्रश्नों से भरी दृष्टि देखकर माँ मरणासन्न पर कहती है-”तू नाराज है न सुनील ? अम्मा मुस्कराकर बोली-”लेकिन तू नाराज हो सकता है बेटा, अपने से नहीं। गंगा के पेट में दुनिया भर की गन्दगी समाई रहती है, पर पानी कभी अपवित्र नहीं होता। तेरे में कोई पाप नहीं-”साँसे रूक गई थी, लहरें खामोश हो चुकी थी।“4 जिस बेटे के लिए उसने पूरा जीवन संघर्ष किया। आज उस बेटे सुनील को सफाई देनी पड़ रही है। इसमें बेटा सुनील का दोष नहीं हमारी सामाजिक विडम्बना ही ऐसी है।
‘बिन्दा महाजन कहानी सग्रह में बिन्दा हिजड़ा है। जो इस कहानी का पात्र है उसे आम आदमी की तरह जीने का कोई अधिकार नहीं है। उसका हर परिस्थिति अनुसार शोषण होता है चाहे शारीरिक हो या मानसिक। हर युवा वर्ग अपनी जवानी का नशा उस हिजड़े पर दिखता है। वह इस बात को सोचकर बड़ा परेशान है। शिवप्रसाद सिंह जी इस संदर्भ में लिखते हैं-”ऐ है तो विन्दोरानी है“ पक्खे की आड़ में चिनगारी की तरह दो आँखें दिखाई पड़ी। विन्दा महाराज ऊपर से जला भुना और भीतर से खुश-खुश
उधर ताकने लगा कि पाजावे के नेवले की तरह अगल-बगल तक झांक करता धुरबिनवा सामने आकर महाराज के रूप को एकटक निहारने लगा।“5
बिन्दा महाजन सामान्य जीवन धारा से बिल्कुल अलग करके देखा जा सकता है। आखिरकार क्यों वह समाज में सामान्य जीवन जीने का अधिकारी नहीं। उस व्यक्ति पर प्रकृति प्रदत्त कमजोर है। लेकिन उस व्यक्ति का कोई अपना दोष तो नहीं मर्जी कुदरत की है। शिवप्रसाद सिंह जी कहते हैं-”मैं उस अपेक्षित जीवन को भी एक मूल्य देना चाहता था, जिसके अन्दर पीज़ का बोध, मानवीय पीड़ा को भी लाँघ जाता है। जो पुरुष नहीं दे पाता नारी नहीं दे पाती, वह एक हिजड़ा दे जाता है।“6
शिवप्रसाद द्वारा रचित टूटे तारे कहानी में एक श्यामा पात्र है जिसकी नियति ही वेश्या बनना है। श्यामा मनोहर के प्रेम जाल में फंस जाती है और उससे अपने सम्बन्ध बनाती है। लेकिन मनोहर उससे धोखा करता है। बाद में शादी करने से इंकार कर देता है। गर्भवती श्यामा एक दिन छुपके से बाप की इज्जत बचाने के चक्र में घर से भाग जाती है। महीनों बाद वह एक लड़की को जन्म देती है। वह अपमान से बचने के लिए नाच-गाकर अपना पालन पोषण करती हैं बेटी की शादी के दिन वह खुद को रोक नहीं पाती है। लेकिन उसकी नियति वहाँ तक का पीछा भी नहीं छोड़ती। मंडा समय में दूल्हे का पिता शादी को रुकवा देता है और वह कहता है-”ब्याह का काम शुरू हो गया। मांगलिक लग्न-चीर में लिपटी शीला मंडप में लाई गई। श्यामा की आत्मा जैसे आसमान की तरह द्रवित होकर पूरे उत्सव पर छा जाना चाहती। उसके रोम-रोम से आनन्द की ध्वनि निकलकर आशीर्वाद की तरह शीला को छूने लगी।
तभी एक व्यक्ति बांस की तरह फटी आवाज में बोला-‘बन्द करो। यह सब! ब्याह नहीं होगा।
धातु के मंगल कलश झन्न से टूट गए। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। सबकी सांसे थम गई। शीला काँपी। श्यामा को कैसे बिजली मार गई। शीला का बाप खड़ा हुआ।
‘क्या बात है भाई साहब! उसने वर के पिता से नम्रतापूर्वक पूछा। ‘वेश्या की लड़की से शादी करने चले हैं। लड़की मेरी है। इसकी माँ मर गई है। ‘धोखा मत कीजिए, मुझे सब मालूम है। आपने इसका पालन पोषण किया है। क्योंकि इसकी माँ आपको बहुत रुपया देती है। इसकी माँ वेश्या है जो आपकी छत पर बैठी है।“7
शिवप्रसाद जी की कहानी ‘मंजिल और मौत में एक व्यक्ति जीवन की लालसा को बड़े मार्मिक रूप में प्रस्तुत करता है। ‘बौडम’ इस कहानी का स्वतन्त्र पात्र है। वह बहुत परिस्थितियों का मुकाबला करता है। लेकिन उसकी पत्नी उसे बौड़म पागल कहकर पुकारती है। उसने उसे अपना नौकर समझ लिया। तब से उसकी इच्छा है कि रून झुन पायलो पत्नी एक बहु लाये। उससे घर में पुनः खुशियाँ लौट आयेंगी। इस कहानी में लेखक कुएं के पास पुरानी सीढ़ियों का प्रतीकात्मक द्वारा प्रस्तुत करता है। जो कहानी के पात्र बौडम की तरह बिल्कुल जर्जर है-”जिसके सहारे पीठ को अड़ाकर अपने दोनों घटनों के बीच सिर को गड़ाकर बौड़म निष्ठेठ बैठा रहेगा। जैसे ज़िन्दगी के असह भार को क्षण भर के लिए उतरकर कोई थका द्वारा बरोही विश्राम करता है।“8
‘कर्मनाशा की हार’ कहानी में ग्रामीण परिवेश का वर्णन किया गया जिसमें दीनापुर का वर्णन है। यहाँ पर गांव में जो पाप कर्म की बात है उसका वर्णन किया गया-”परलय न होगी, तब क्या बरक्कत होगी? हे भगवान, जिस गाँव में ऐसा पाप करम होगा वह बहेगा नहीं, तब क्या बचेगा? माथे के लुग्गे को ठीक करती हुई धनेसरा चाची बोलीं-”मैं तो कहूँ कि फुलमतिया ऐसी चुप काहे है। राग रे राम कुतिया ने पाप किया, गाँव के सिर बीता। उसकी माई कैसी सतवन्ती थी। आग लाने गई तो घर में जाने नहीं दिया, मैं तभी छनगी कि हो न हो दाल में कुछ काला है। आग लगे ऐसी कोम्ब में। तीन दिन की बिटिया और पेट में ऐसी घनघोर दादी।“9
फागुन का आगमन हो चुका था। गाँव के मुखिया की लड़की का विवाह है। गाँव में चारों ओर खुशी छा रही है। चारों तरफ गाँव को सजाने का काम चल रहा है। कुएँ पर बाहरी भीड़ लग रही थी। सभी लोग अपने पैरों के मैल को साबुन से रगड़-रगड़ कर उतार रहे थे। बाराग आई उसका स्वागत किया जिसमें बारात में नाचने वाली भी साथ में आ रही थी। काफी भीड़ लग गया मानो कुछ नया दिखाई दे रहा है। गाँव की लड़कियाँ, बुढ़िया व बहुएँ सब सजदज कर फिर रही है। तरह-तरह के गीत गाए जा रहे हैं-”फागुन का आरम्भ था। मुखिया जी की लड़की की शादी थी। गाँव भर में खुशियाँ छा रही है। जैसे सबके घर शादी होने वाली हो। शादी के दिन तो गांव वालों में बनने संवरने की होड़ लग गई। सब लोग पट्टी कटा रहे थे। शौकीनों की पट्टी चार-चार अंगुल चौड़ी, छुरे से बनी थी। सब साबुन लगा रहे थे। गीत गाये जा रहे हैं-
”कौन सा गीत ?
ये दोनों नैना बड़े बेदरदी…“
धत्!“
उस दिन नैना बड़े बेदरदी।
उस दिन मैं बड़ी देर तक इन्तजार करता रहा…।
”मेरी माँ के सर में दर्द था!“
कौन है ? जोर की आवाज गूंज उठी थी।“10
शिवप्रसाद सिंह की कहानियों में हम जिस इतिहास संघर्ष, अकुलाहट को देखते हैं। उसके जो जीवन्त संदर्भ हमें काशी का वृत्त उकेरने वाली ‘नीला चांद’ उपन्यास में मिलते हैं। वह किसी तत्कालीन इतिहास ग्रंथ में नहीं मिला सकते। इस प्रकार जो भयावहता ‘कुहरे में युद्ध’ जैसे उपन्यास में उभरी उसका लेखा जोखा हमें किसी इतिहास में नहीं मिल सकता।
शिवप्रसाद सिंह की कहानियों पर एक ओर समाजवादी दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है तथा दूसरी ओर परम्परा और ग्रामीण संस्कृति।
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि शिवप्रसाद की कहानियों में यथार्थ अधिक व कल्पना नाम मात्र की मिलती है। इन्हांने ग्रामीण परिवेश का खुलकर यथार्थ वर्णन किया है। चाहे सामाजिक परिवेश, परिवार की समस्याएँ-सांस्कृतिक परिवेश, राजनीतिक परिवेश, आर्थिक परिवेश, धार्मिक परिवेश आदि बिन्दुओं को दर्शाया है। इनकी कहानियों में ग्रामीण रीति-रिवाज, जादू टोने व अन्य तरह-तरह के टोटके देखने को मिलते हैं। इसी प्रकार से शिवप्रसाद सिंह की कहानियाँ मानवीय संवेदना को जागृत करती है। गंगा तुलसी जैसी कहानी से सामाजिक समस्याओं का पता चलता है तथा इनका समाधान भी जरूरी है।
संदर्भ-
1. शिवप्रसाद सिंह, यह यात्रा सतह के नीचे, पृष्ठ 22
2. वही, पृष्ठ 23-24
3. वही, पृष्ठ 25
4. वही, अन्धकूप, पृष्ठ 230
5. वही, पृष्ठ 262
6. वही, पृष्ठ 261
7. वही, एक यात्रा, सतह के नीचे, पृष्ठ 49
8. वही, अन्धकूप, पृष्ठ 70
9. वही, पृष्ठ 51
10. वही, पृष्ठ 57
– डाॅ. मुकेश कुमार