धरोहर
‘शिवपालपुर’ आज भी जीवित है—— ‘राग दरबारी’
50 वर्ष (1968) पूर्व लिखी गयी पुस्तक राग दरबारी के पन्नों को पलटते वक्त आज भी यह उतनी ही प्रासंगिक लगती है जितनी यह अपने प्रकाशन काल में रही होगी। शिवपालगंज को कहीं अन्यत्र खोजने जाने की जरुरत नहीं है, आज भी हमारे-आपके बीच छोटे-बड़े न जाने कितने शिवपालगंज, कितने वैद्यजी, कितने रामादीन भीखमखेड़वी मौज़ूद हैं। किसी भी रचनाकार के लिए यह गर्व की बात हो सकती है कि उसकी लिखी रचना लिखे जाने के बाद और ज्यादा प्रासंगिक होती जा रही है। ऐसी ही रचनाएं कालजयी हो जाती है जिनमे हिंदी साहित्य की एक कालजयी रचना है ‘राग दरबारी’ और रचनाकार हैं निर्विवाद हिंदी साहित्य के तीसरे सबसे बड़े व्यंग्यकार एवं वरिष्ठ प्रशासनिक पदाधिकारी श्रीलाल शुक्ल।
1968 में प्रकाशित होने के बाद प्रसिद्ध उपन्यास ‘राग दरबारी’ ने हिंदी साहित्य में ऐसी पैठ बनायीं कि उसने लोकप्रियता के उस ऊँचे प्रतिमान को छुआ जो प्रकाशन के अगले ही वर्ष साहित्य अकादमी का पुरस्कार पाने में सफल रहा। कुछ ही वर्षों में इसने देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में अपना स्थान सुनिश्चित करा लिया और प्रख्यात नाट्यकर्मी गिरीश रस्तोगी के निर्देशन में ‘रंगनाथ की वापसी’ के नाम से नाटक का मंचन किया गया।
सन् 2018 में मेरे जन्म-दिवस वर्ष के साथ-साथ इस इस उपन्यास ने भी अपना अर्द्धशतक पूरा कर लिया है। जिस तेजी से समाज में बदलाव हो रहे हैं, उसके आधार पर तो इस उपन्यास को अब साहित्य के हाशिये पर होना चाहिए था। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस उपन्यास की ताजगी और इसकी प्रासंगिकता आज भी इस तरह से बरकरार है कि हिंदी-साहित्य जगत बड़ी शान के साथ इसकी स्वर्ण जयंती मना रहा है।
श्रीलाल शुक्ल लेखक भी हैं और एक सामान्य इंसान भी। उनमें सरलता भी है और सादगी भी। नम्रता भी है और अपनी कमजोरियों का पूरा एहसास भी। श्रीलाल शुक्ल में प्रशासनिक अधिकारी होने के कारण अनुभव, सूक्ष्म दृष्टि और कल्पनाशीलता का अद्भुत सामंजस्य भी है। इस उपन्यास के माध्यम से कहीं-न-कहीं उन्होंने अपनी उन प्रशासनिक विफलताओं से उपजी कुंठाओं को भी व्यक्त किया है। उनकी जितनी पकड़ शहरी ताना- बना पर है उतनी ही उनकी गांव की मिटटी पर भी दिखती है। यही कारण है कि श्रीलाल शुक्ल ने चाहे ग्राम्य जीवन के बारे में लिखा हो या कि शहरी जीवन की उधेड़-बुन पर, अभिव्यक्ति संकट बन कभी सामने नहीं आ सकी उनकी लेखनी पर। इन्हें शब्दों के लिए कभी ताका-झांकी नहीं करनी पड़ी क्योंकि शब्द अपने स्थानों पर स्वतः ही निर्धारित होते चले गए। उनकी सूक्ष्म एवं पैनी दृष्टि का चमत्कार था कि उनकी लेखनी में वे छोटी-छोटी बातें भी बड़े ही सरलता से अभिव्यक्त हुई जिनकी तरफ हमारा ध्यान भी नहीं जाया करता है प्रायः बिना प्रयास के। श्रीलाल शुक्ल ने अपने आस पास जो देखा, अनुभव किया उसे ही अपनी कृतियों में कलात्मकता से विशिष्ट स्थान दिया।
ममता कालिया ने उनके इस गुण को इंगित करते हुए एक जगह लिखा है कि ‘श्रीलाल शुक्ल जी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे अपनी रचनाओं की कथा भूमि अपने कार्यालय के कुरुक्षेत्र में ढूंढ निकालते हैं और रोजमर्रा के दिलचस्प कार्यकलाप उनका साहित्य प्रसव और पोषण करता है।‘
श्रीलाल शुक्ल कि लेखन की अपनी निजी शैली है, जो उन्हें अन्य लेखकों से अलग करती है। अनुकरण उनकी रचनाधर्मिता नहीं है इसलिए उनकी रचनाओं में अपना एक वैशिष्ट्य है। उनके लिए लेखन बहुत ही मेहनत और एकाग्रता का कार्य है। यही कारण रहा है कि उन्हें राग दरबारी जैसे क्लासिक को लिखने के क्रम में छह से सात बार संशोधित करना पड़ा जिसके कारण इस उपन्यास को पूरा करने में उन्हें 6 वर्ष की अवधि लगी। विक्टर ह्यूगो की तरह उन्हें बड़ा लिखने का भी शौक़ था। श्रीलाल शुक्ल के अनुसार सृजनात्मक लेखन एक शुद्ध स्वच्छता वाली स्थिति होती है जिसमें राजनीतिक प्रतिबद्धता का बंधन नहीं होता है।
“राग दरबारी”
‘मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा, जो अब घिसकर कुर्सी बन गया था। दरोगा जी उस पर बैठे भी थे और लेटे भी थे।’’ यह उस किताब की शुरुआत में थाने में रखी कुर्सी का वर्णन है, जिस किताब का नाम है-‘राग दरबारी’। इस उद्धरण से कुछ-कुछ इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किताब, जिसे उपन्यास कहा जाता है, किस विषय के बारे में होगी, साथ ही यह भी कि उस उपन्यास की शैली क्या होगी।
दरअसल, यदि इस उपन्यास का मूल्यांकन साहित्यिक प्रतिमानों पर करें, तो समीक्षकों के हाथ विशेष कुछ नहीं लगेगा। यह उपन्यास एक प्रकार से रिर्पोताज जैसी शैली में लिखा हुआ जान पड़ता है। इसमें जिस प्रकार से शिवपालगंज नाम के गांव को रचा-गढ़ा गया है, उसे देखते हुए इसे एक यथास्थितिवादी पुस्तक कहा जाना गलत नहीं होगा। आजादी के 20 साल के बाद के उत्तरप्रदेश के एक गांव का जो खांचा श्रीलाल शुक्ल ने खींचा है, वह पाठक के मन को प्रसन्नता से नहीं भरता। यहाँ एक बात आश्चर्य करने वाली यह है कि यह सब आज़ादी के दो दशकों के भीतर हो गया था। जिस आज़ादी के लिए इतने लोगों ने अपनी जान की कुर्बानी लगा दी थी उसका विकृत स्वरुप बहुत जल्दी ही बेपर्दा हो गया था।
इसके बाद भी इस उपन्यास को बार पढ़ने से अपने-आपको रोकना थोड़ा कठिन हो जाता है। यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। इसमें रंगनाथ नाम का शहर में रहने वाला एक युवक शोध करने की दृष्टि से अपने चाचा के घर गोपालगंज आता है। चाचा, जिनका नाम वैद्य जी है, एक राजनेता है और यहीं से आजाद हिन्दुस्तान के वर्तमान की कथा की शुरुआत हो जाती है।
इस गांव में तीन मुख्य संस्थाएं हैं। इनमें एक है- गांव का इंटर कॉलेज, दूसरा है गांव की पंचायत और तीसरी है- को-ऑपरेटिव सोसायटी। वैसे देखा जाए, तो ये तीनों संस्थाएं न केवल किसी भी भारतीय गांव के सबसे प्रमुख संस्थाएं ही हैं, बल्कि ये हमारे देश के लोकतंत्र की नर्सरियां भी हैं। लेकिन इनमें जो होता है, वह पाठक को विस्मृत कर देता है।. इन तीनों संस्थाओं में चुनाव जीतने के तिकड़म, अपने-अपने आदमी फिट करने की अलग-अलग तरकीबें और सीना तानकर धड़ल्ले से गबन करने का जो साहस दिखाया जाता है, वह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर खुलेआम प्रश्नचिन्ह लगाता है।
पूरे के पूरे उपन्यास में गांव के माध्यम से न केवल भारतीय समाज ही, बल्कि पूरे देश की जड़ता, मूर्खता, पाखंड, मूल्यहीनता, अवसरवादिता, तानाशाही, भ्रष्टाचार, सरकारी दफ्तरों की काहिली, नेताओं का ओछापन, गांव की घटिया राजनीति तथा लोगों की आपसी खींचातानी की जो तस्वीर मिलती है, उसे आज भी ज्यों का त्यों, बल्कि यूँ कहें कि उससे भी अधिक विकृत रूप में देखा और महसूस किया जा सकता है। और यही इस उपन्यास के अभी भी प्रासंगिक बने रहने का एकमात्र कारण भी है।
कुछ प्रमुख संवाद –
‘वर्तमान शिक्षा-पद्दति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।‘
‘लेक्चर का मजा तब है जब सुननेवाला समझे कि बकवास कर रहा हूँ और बोलनेवाला भी समझे, मैं बकवास कर रहा हूँ’।
‘कहा तो घास खोद रहा हूँ। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं।‘
‘ह्रदय-परिवर्तन के लिए रौब की जरुरत होती है और रौब के लिए अंग्रेजी की।‘
‘वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे।’
यदि हम इस उपन्यास के 1968 के काल को आजादी के बाद के लगभग 20 वर्षों के मोहभंग का काल मान लें, तो उपन्यास के बाद के 50 वर्षों का दौर महामोहभंग का दौर जान पड़ता है। सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों का उदारीकरण भी ‘राग दरबारी’ के सूरते हाल में कोई बहुत अधिक तब्दीली लाने में निकम्मा साबित हुआ है।
अपनी कालजयी रचना राग दरबारी के बारे में श्रीलाल शुक्ल कहा करते थे- ‘मुझे लगा कि जब तक समाज के प्रति आपकी व्यापक प्रतिक्रिया न हो, इन छोटी रचनाओं के माध्यम से, चिकोटी काटने से कोई खास बात नहीं बनती। व्यंग्य लिखना है तो छोटी-छोटी चिकोटी कारगर नहीं होगी और ऐसे में राग दरबारी की अवधारणा हुई।’
– नीरज कृष्ण