व्यस्तता मन की होती है
जहाँ जीवन की विषमताओं, समाज की कुरीतियों, व्यर्थ के दंगे-फ़साद, न्याय-अन्याय की लड़ाई, अपने-पराए, रिश्ते-नाते, ईर्ष्या, अहंकार और ऐसी ही तमाम विसंगतियों में उलझकर जीना दुरूह होता जा रहा है वहीं कुछ ऐसे पल, ऐसे लोग अचानक से आकर आपका दामन थाम लेते हैं कि आप अपनी सारी नकारात्मकता त्याग पुन: आशावादी सोच की ओर उन्मुख हो उठते हैं. बस, इसी सोच को सलामी देने के लिए हमारे इस स्तंभ ‘अच्छा’ भी होता है!, की परिकल्पना की गई है, इसमें आप अपने या अपने आसपास घटित ऐसी घटनाओं को शब्दों में पिरोकर हमारे पाठकों की इस सोच को क़ायम रखने में सहायता कर सकते हैं कि दुनिया में लाख बुराइयाँ सही, पर यहाँ ‘अच्छा’ भी होता है! – संपादक
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‘जल ही जीवन है’, सबने पढ़ा है, सदियों से जानते हैं और ग्रीष्मकाल में इस बात की सार्थकता का अनुभव और भी बेहतर तरीके से हो जाता है। यूँ मैंने इस विषय पर कभी शोध नहीं किया पर संभवत: प्याऊ की परिकल्पना का उद्गम स्थल भारतवर्ष ही रहा होगा। ‘प्याऊ’ एक छोटा-सा स्थान, जहाँ मिटटी के घड़े में भरा शीतल जल तो कहीं बर्फ को डालकर ठंडा किया हुआ और विकास की कहानी कहता हुआ वाटर कूलर मिल जाया करता है। ये प्याऊ, थके-हारे राहगीरों के लिए जीवनदान से कम नहीं होते। जहाँ गर्मी की मार सहते मुसाफिर कुछ पल ठहर दो घूँट पानी पी स्वयं को ऊर्जावान महसूस कर पुन: अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ते हैं।
आजकल बोतलों में बंद पानी उपलब्ध है या फिर शुद्ध न मिल पाने की आशंका तले सब पानी साथ ही लेकर चलते हैं। विशेष तौर पर यात्रा के दौरान। उच्च श्रेणी में वातानुकूलित डिब्बों में बैठे यात्री के लिए बोगी के अंदर का मौसम भी ठंडा है और पानी की बोतल खरीदने में भी कोई गुरेज नहीं। लेकिन सामान्य श्रेणी के यात्रियों के लिए इस गर्मी का सफ़र यातना से कम नहीं होता। जहाँ साथ में बच्चे और वृद्ध भी हैं तब तो यह मुश्किल और भी बढ़ जाती है।
दैनिक जीवन में ऐसी तमाम समस्याएँ हैं जिनके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना हास्यास्पद लगता है और इंसान को जूझना भी पड़ता ही है। मैं प्याऊ के विलुप्त होने का लगभग यकीन-सा कर चुकी थी और बात आई-गई हो गई। पिछले वर्ष जब ग्वालियर जाना हुआ तब वहां रेलवे स्टेशन पर एक सुखद दृश्य देख मन बाग़-बाग़ हो गया। जयदेव गुरसाहनी सर से ज्ञात हुआ कि यहाँ पंजाबी समाज परिषद और सिंधी समाज द्वारा दो ऐसी संस्थाओं का गठन किया गया है जो कि मार्च-अप्रैल से शुरू कर जुलाई अंत तक हर ट्रेन में स्लीपर एवं सामान्य श्रेणी के मुसाफिरों को निशुल्क ठंडा पानी वितरित कर रही हैं। वैसे तो ये जल सभी के लिए है पर ट्रेन के रुकने की अवधि कम होने के कारण इन श्रेणियों को प्राथमिकता दी जाती है।पंजाबी विकास परिषद् के सदस्य प्रात: नौ बजे से संध्या पाँच तक इस नेक कार्य में पूरी तत्परता और लगन के साथ जुटे रहते हैं। उसके बाद ये मोर्चा सिंधी परिषद उसी निष्ठा से संभाल लेती है(शाम पांच से रात्रि बारह बजे तक). जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वो यही कि ये कोई कागज़ी संस्था नहीं है और इसके सभी सदस्य नि:स्वार्थ भाव से, पूरी तन्मयता और ईमानदारी के साथ इस सेवाकार्य में जुटे हुए हैं।
यहाँ हर धर्म, हर उम्र, हर वर्ग से जुड़े लोग हैं और सभी का समान रूप से आदर भी किया जाता है। तकरीबन दो सौ सेवादारों की इस टीम में प्लेटफार्म पर फल बेचने वाले वेंडर,रेलवे के सेवानिवृत्त कर्मचारी,उद्योगपति,सरकारी व् गैर सरकारी संस्थान से उच्च पद पर रिटायर्ड अधिकारियों से लेकर गृहिणियां और कॉलेज के विद्यार्थी शामिल हैं। कुछ लोग आर्थिक मदद भी देते हैं। प्रतिदिन पचास-साठ सक्रिय सेवादारों की यह टीम ट्रेन के आने के पहले ही सक्रिय हो जाती है। बर्फ की सिल्लियां,शुद्ध पानी से भरे कंटेनर में डाल दी जाती हैं और सभी जग को भरकर funnel हाथ में लिए तैयार खड़े रहते हैं। ट्रेन के आते ही, ‘ठंडा पाआआनी, फ्रीईई, निशुल्क’ की आवाज के साथ डिब्बों के बाहर खड़े मिलते हैं और खिड़कियों से झांकती बोतलों को दौड़-दौड़कर भरना शुरू कर देते हैं। कुछ लोग ट्रॉलियों को देख खुद ही ट्रेन के दरवाजे पर बड़ी केन लाकर फटाफट भरवा लेते हैं अन्यथा एक-दो मिनट के स्टॉपेज में उतरकर पानी भर पाना संभव कहाँ होता है! ऐसे में इस टीम को देख सबके चेहरों पर मुस्कान दौड़ जाती है, जो नियमित यात्री हैं उन्हें मालूम है, कुछ हैरत से देखते हैं, कुछ सकुचाकर सवाल भी करते हैं पर अंतत: पानी सभी भरवाते हैं। इस भीषण गर्मी में उन चेहरों का सुकून ह्रदय को कितनी शीतलता प्रदान करता है इसका अहसास इस अभियान का हिस्सा बनने के बाद ही होता है।
इस संस्था की स्थापना रामलुभाया लरोइया जी ने इक्कीस वर्ष पूर्व की थी। पिछले छह वर्षों से अशोक मारवाह जी की अध्यक्षता में सभी कार्य सुचारु रूप से संचालित हो रहे हैं। मारवाह जी और इससे जुड़े प्रत्येक volunteer को मेरा शत शत नमन जो कि इतने वर्षों से मौसम की परवाह न करते हुए भीषण गर्मी में खड़े रहकर इसकी मशाल थामे हुए हैं। अन्य शहरों में भी जहाँ इस तरह की संस्थाएं हैं उन्हें दिल से सलाम और कोटिश: शुभकामनाएं भी!
जहाँ ऐसा नहीं है वहाँ के निवासियों से इसे शीघ्र ही प्रारम्भ करने का आह्वान अवश्य करना चाहूंगी। यह भ्रम भी न रखें कि यह सिर्फ सेवानिवृत्त लोगों का कार्य है। छुट्टी वाले दिन भी दो-तीन घंटे निकाले जा सकते हैं। व्यस्तता मन की होती है। समय तो सभी के पास एक दिन में चौबीस घंटे ही होता है,बात उसे उचित स्थान पर खर्चने की है। बहुत-बहुत आभारी हूँ जयदेव सर की कि उन्होंने मुझे इसकी जानकारी दी। अशोक मारवाह जी का भी हृदयतल से धन्यवाद कि उन्होंने मुझे न सिर्फ इसके माध्यम से तीन दिन यात्रियों की सेवा का अवसर प्रदान किया बल्कि प्रत्येक सदस्य से सहर्ष मिलवाने में भी अपना भरपूर समय दिया। प्रमिला मारवाह, विनोद कुमार सूरी, बबिता डाबर,अविनाश नरुला, श्रीराम गुप्ता, सुमन चावला, कुंदनलाल अमरपुरी, सरिता भल्ला, मीना भल्ला, जगदीश प्रसाद तिवारी जी, नरेंद्र बेदी, ममता बेदी, कसौटिया जी, रीना गंडोत्रा, राम चोपड़ा, अनिल गाँधी, राजेंद्र सिंह बिंद्रा, अजीत मुरुमकर, सुरेन्द्र सरीन, अनिल मल्होत्रा, रमेश कटारे, सत्या चोपड़ा, ओमप्रकाश अरोरा जी और अन्य सभी आदरणीय सदस्यों को भी मेरा धन्यवाद। निहाल चन्द्र शर्मा जी (पचहत्तर वर्ष ) और सरला त्रिपाठी जी (नब्बे वर्ष ) के चरणों में नमन। आप सबको देखकर सकारात्मक ऊर्जा मिलती है तथा मेरा यह यकीन और भी पुख़्ता होना चाहता है कि तमाम बुराइयों और बुरे लोगों की मौजूदगी के बाद भी, अच्छाई सलामत है और ‘अच्छा भी होता है!’
– प्रीति अज्ञात