स्मृति
व्यंग्य के हस्ताक्षर सुशील सिद्धार्थ को ‘हस्ताक्षर’ की ओर से श्रद्धा सुमन
17 मार्च 2018 की सुबह देश के शीर्ष व्यंग्यकारों में एक सुशील सिद्धार्थ जी का हृदयगति रुक जाने से अचानक निधन हो गया। 2 जुलाई, 1958 को सीतापुर (उ. प्र.) में जन्मे सुशील सिद्धार्थ ने हिंदी साहित्य में पीएच.डी. की थी। व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान रखने वाले सुशील सिद्धार्थ के पांच व्यंग्य संग्रह और अवधी में दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं। इनके अलावा इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन भी किया है। 2014 से वे किताबघर प्रकाशन से सलाहकार के रूप में जुड़े थे। उनके संपादन में किताबघर प्रकाशन की पत्रिका ‘समकालीन साहित्य समाचार’ ने भी ख्याति पायी।
‘हस्ताक्षर’ के अंक-18 (सितम्बर 2016) में उनका एक व्यंग्य लेख प्रकाशित हुआ था। उसी लेख के पुनर्पाठ के ज़रिये पत्रिका परिवार उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता है।
शोकसभा के विविध आयाम
– सुशील सिद्धार्थ
मेरे सामने अजीब संकट आ गया है। इसे धर्मसंकट की तर्ज़ पर शोकसंकट कहना ही उचित है। मुझे किसी न किसी बहाने इस शोक को मैनेज करना ही होगा। आगे याद करके शोक मैनेजमेंट का कोर्स भी कर लूंगा। मेरे एक राजनीतिक मित्र ने कर रखा है। उफ! अब क्या करूं से अधिक विचारणीय है कि क्या करना चाहिए। एक दिन और लगभग एक ही समय में दो शोकसभाएं हैं। सभा क्या शोकगोष्ठी कहिए। ज़्यादा मुनासिब होगा शोक का गेट टुगेदर कहिए। जाना दोनों में है। शोकसभाओं में जाना ज़रूरी है। इस बहाने पता चल जाता है कि अभी इतने लोग ज़िंदा हैं। अच्छी शोकसभा हो जाए तो मन प्रसन्न हो जाता है।
अच्छी शोकसभा क्या है! अच्छी में लोग समय से आते हैं। समय से मौन रहते हैं। दिवंगत को व्यक्तिगत रूप से गालियां भी देते हैं। इसके बावजूद सभा में ऊपर चले गए को सारे अवगुणों से ऊपर बताते हैं। सभा के बाद वही लोग ज़िंदा लोगों की ऐसी-तैसी करते हैं। आंसुओं से बनी स्वादिष्ट चाय पीते हैं। फिर अगली शोकसभा तक के लिए एक-दूसरे के लिए मर जाते हैं।
शोकसभा का विचार देने वाले अज्ञात शख्स को मैं नमन करता हूँ। जैसे मैं धर्म का विचार देने वाले व्यक्ति का बहुत आदर करता हूँ। शोकसभा में धार्मिकता बढ़ रही है। धर्म में शोकसभाएं विकसित हो रही हैं। बहरहाल, विचार देने वाला ज़रूर किसी दफ्तर में बाबू रहा होगा। एक और छुट्टी या बाज़ार जाने के अवसर की खोज करना इतना आसान नहीं रहा होगा। इसलिए अवसर ईजाद किया गया। पहली शोकसभा कहां हुई इसका इतिहास मालूम करना चाहिए। वह समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता, जिसे अपनी शोकसभाओं का इतिहास न पता हो। वैसे भी राजाओं, सामंतों,तानाशाहों का इतिहास आम आदमी के लिए निरंतर चलने वाली शोकसभा ही है। सोचिए पहली शोकसभा में लोग रोते-बिलखते छाती कूटते एक-दूसरे को भींचकर किकियाते ही शामिल हुए होंगे। तमीज़ धीरे-धीरे आती है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ शोक मनाने का सौंदर्यशास्त्र विकसित हुआ होगा। यह एक कला है। अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग अलग तरीका है। उदाहरण दूं वरना यह रहस्य समझना कठिन होगा। देखिए, हर फल को छीलने का तरीका अलग है। जिस तरह संतरा छीलते हैं, उस तरह अनन्नास नहीं छील सकते। इसे आसान न समझिए। बहुत दिन बाद होता है सभा में शोकवर पैदा।
अब समाज अधिक सभ्य हो गया। आज शोक का सौंदर्य देखिए। अहा, सभागार में एक ओर रखी मेज पर रखा भव्य चित्र। मरने के बाद चित्र अपने आप भव्य हो जाता है। ऐसी भव्यता जो न कुछ महसूस करे न कुछ कहे। शायद मेरा भ्रम हो मगर कुछ अत्यंत भव्य टाइप के लोगों को देखकर लगता है कि ये बहुत पहले मर चुके हैं। तो अब आगे का सौंदर्य, माला से मालामाल भव्य चित्र। वैराग्य में डूबे चौकन्ने घरवाले। कि मालूम तो इतनों को है। पता नहीं कितने आएंगे। धीरे-धीरे आते लोग। शोक में डूबे। लोग घर से मुनासिब किस्म का नाश्ता करके निकले हैं। रास्ते भर हंसते-खिलखिलाते रहे हैं। ताकि समुचित मात्रा में दुखी दिखा जा सके। वे सभागार में दाखिल होते हैं। उदासी अवसाद के कीमती शॉल लपेटे। हिसाब किताब की इलायची चबाते। वे दिवंगत व्यक्ति के पारंगत प्रतिनिधि की ओर बढ़ते हैं। लंबी सांस। आंखों में नमी, चेहरे पर ग़मी। प्रतिनिधि को इस तरह सांत्वना देना है कि सब उपस्थित लोग देख लें। ताकि सांत्वना सनद रहे और वक्त पर काम आए। प्रतिनिधि कोई स्त्री हो तो अफसोस ज़ाहिर करने की रचनात्मक होड़। उचित समय पर संभव हो तो भावुकता का आवेग। आवेग में स्त्री प्रतिनिधि को वाजिब थपकी। सभा शुरू। फिर किसी के द्वारा मालामाल चित्र का दिव्य वर्णन। कुछ और वर्णन। फिर निवेदन कि अब दो मिनट का मौन।
मैं आज तक उस अद्भुत आदमी की खोज में हूँ, जिसने शोकित होने के लिए दो मिनट का टाइम सेट किया। यह एक रहस्य है कि न एक न तीन। बस दो मिनट। वाह! यह तो मज्झिम निकाय है। बुद्ध का मध्य मार्ग। शोक एक वीणा है। इसके तार इतने ढीले मत छोड़ो कि चच्चचच्च अहअह का मधुर संगीत न फूटे। तार इतने कसो भी नहीं कि टूटे हुए तारों के लिए एक और शोकसभा करनी पड़े। इस दो मिनटकार को नमन। हो सकता है उस पहली सभा में केवल दो लोग ही जमा हुए हों। उन्होंने तय किया हो कि चलो दोनों मिलकर दो मिनट रहते हैं। अच्छा हुआ आगे चलकर संख्या बल के आधार पर मिनट तय नहीं हुए वरना यह समय स्टेटस सिंबल बन जाता। होड़ लग जाती। शामिल होने वाले सूटकेस में दाढ़ी आदि बनाने का सामान लेकर जाते। कोई कहता कि शोकसभा में जा रहा हूँ तीन दिन बाद वापस आऊंगा। अति बूढ़े जाने से पहले सबसे मिलकर जाते कि जा तो रहा हूँ। मौन में जाने के बाद क्या पता वापस आऊं न आऊं। अपना अपना खयाल रखना। इसलिए दो मिनट ठीक रहा। जो आगे चलकर मुहावरा भी बना। बहरहाल,संभव हो तो ‘शोकसभा: सौंदर्य बोध के आयाम’ विषय पर शोध कराया जाए। वैसे भी हिंदी साहित्य में परिणाम देखते हुए शोध और शोक का गहरा रिश्ता सर्वविदित है। यह सब ऑफ द रिकॉर्ड सोच रहा हूं। हमारा अधिकतर समाज इसी तरह सोचता और कहता है। हत्यारा ऑफ द रिकॉर्ड कहता है कि अमुक को उड़ा दूंगा। अमुक ऑफ द रिकॉर्ड कहता है कि उड़ जाऊंगा। कुछ दिन बाद व्यवस्था ऑफ द रिकॉर्ड उड़ती नज़र आती है। ख़ैर,बाहर सबसे तो यही कहना कि हाय हाय। वाह वाह और हाय हाय के बीच ही आज के समय की नदी बह रही है।
यह सब ज्ञान तो ठीक है मगर सवाल वही कि मैं जाऊँ कहां। शोकसभा अच्छी हो जाए इस चक्कर में कहीं मेरी तबियत ही खराब न हो जाए। कल तक सोच रहा था चुपचाप निपट जाए फिर कोई सॉलिड बहाना बना दूंगा। लेकिन दोनों ओर से फोन आ गया। चौधरी के लड़के ने तो काम भी सौंप दिया कि अपने साथ राजन बाबू को भी ले आना। राजन ऐसी सभाओं के चर्चित लोकप्रिय व्यक्तित्व हैं। जिस शोकसभा में राजन हो उसका हिट होना पक्का। जैसे देवी जागरण या अखंड रामायण पाठ में कुछ ऐसे गायक होते हैं, जिनकी आवाज गूंजी कि मोहल्ला नाचने लगा। वैसे ही शोकसभाओं में कुछ वक्ता ऐसे होते हैं कि जिनका दुख सुनकर दिवंगत आत्मा मारे ख़ुशी के एक बार और मर जाती है। कुछ मरणोन्मुख लोग आग्रह भी करने लगते हैं कि राजन मेरी शोकसभा में आधार शोक वक्तव्य तुम्हीं देना। तो वह जाए। मैं क्यों जाऊँ। नहीं नहीं। कहीं न कहीं तो जाना होगा। न गया तो लोग सौ तरह की बातें करेंगे। बहुत कोशिश के बाद मैंने एक संवेदनशील आदमी की इमेज बनाई है। वह खतरे में पड़ सकती है। सारी दुनिया इमेज का ही खाती है। एक बार इमेज बन जाए कि आप नारी मुक्ति के अगुआ हैं बस। फिर चाहे जीवन भर अपनी पत्नी को प्रताड़ित करते रहिए। एक बार नारा घूम जाए कि अमुक सर्वहारा के साथ हैं। फिर अमुक के बालक पालक दुनिया के सबसे महंगे देश में ऐयाशी करते रहें। या अमुक ही करते रहें किसे परवाह। इमेज नाम सत्य है,सत्य बोलो शक्ति है। इसीलिए लोग खुद को बनाने की बजाय खुद की इमेज बनाते हैं। ये बड़े लोग मूर्ख हैं क्या कि इमेज बिल्डर रखते हैं। उनकी बनाई बिल्डिंग में एक आलीशान तहखाना होता है, जिसमें बड़े लोग रहते हैं। बाकी बिल्डिंग इमेज के लिए छोड़ दी जाती है। वैसे भी दुनिया है क्या। एक लीला ही तो है। हम सब यहाँ परफॉर्म कर रहे हैं। परफॉर्म करने में कोई चूक नहीं होनी चाहिए। राजनीति में देशहित,धर्म में ईश्वर, मनुष्य में मनुष्यता,रिश्ते में आत्मीयता परफॉर्म की जा रही है। मैं तो कहता हूँ कि जो पति पत्नी प्रेम, विश्वास, मिलन, वियोग आदि को ठीक से परफॉर्म करते रहते हैं, वे सुखी रहते हैं। मैंने कई मौकों पर अपनी संवेदनशीलता परफॉर्म की है।
आदमी इतना कर ले तो समाज में उसकी इज्जत पक्की। काम कठिन है। बहुत जुगत लगानी पड़ती है। यह बुद्धिमानी का काम है। और कौन नहीं जानता कि बुद्धिमान होने से बड़ा काम है बुद्धिमान दिखना। लेखक होने से बड़ा काम है लेखक लगना। देशभक्त होने से ज़्यादा ज़रूरी है प्रचंड देशभक्त नज़र आना। ठीक वैसे ही जैसे क्रांतिकारी होने से बड़ी उपलब्धि है, क्रांति का ब्रांड बन जाना। तो तय हुआ कि आज आदमी से ज़्यादा उसकी छवि या परछाई का समय चल रहा है। अब इससे भी आगे का ज्ञान। बुद्धिमान दिखना बड़ा काम है। मगर इससे भी ऊंचा काम है बुद्धिमान होना और बौड़म दिखना। वाक्य सही करता चलूं, यह काम नहीं साधना है। इस संप्रदाय के साधक कम हैं लेकिन जितने हैं उनमें ज्यादातर परम हैं। यह एक औघड़ समय है, जिसका रहस्य कोई बौड़म ही समझ सकता है। बौड़मत्व भारतीय परंपरा का तत्व है। चतुराई की चमकती तलवार भोलेपन की म्यान में शोभा देती है। भारतीय समाज में इस अनुभव के मोती बिखरे पड़े हैं। मेरे पास भी हैं। मेरे बारे में लोगों का मानना है कि सीधा है, बौड़म है। अब मैं किसी भी शोकसभा में आज न गया तो भाई लोग जुट जाएंगे। मुझे होशियार समझने लगेंगे। उनको मौका मिल जाएगा। मुझे नष्ट करने में लग जाएंगे। बचाना ज़रूरी है। आदमी मर जाता है। इमेज अमर है। आत्मा से भी ज़्यादा अमर। बल्कि मरी हुई आत्माओं की इमेज अधिक अमर होती है। इसलिए बचाना है तो शोकसभा में जाना है। शोकसभा? यार यह सभा शब्द मुझे अब बेचैन कर रहा है। शोक के साथ गोष्ठी, संगोष्ठी, बैठक, चौपाल जैसा शब्द भी तो हो सकता है। लोग प्रयोगवादी नहीं हैं, इसीलिए हम पिछड़े हैं। अच्छा। कपड़े कौन से पहनूं? कुर्ता-पैजामा शोकसभाओं की राष्ट्रीय पोशाक है। वही। मगर मटमैला। आपका दुख आपके कपड़ों से भी निचुड़ना चाहिए। यहाँ तक कि आपके चश्मे और जूतों से भी टपकना चाहिए। सब ठीक, मगर आज चेहरा रुअंटा नहीं बन पा रहा। उल्टे जल्दबाजी में शेव भी कर चुका। जब तक चेहरे पर दाढ़ी की खूंटियां न दिखें तब तक मज़ा नहीं आता। इन खूंटियों पर ही शोकाकुल गमछे टांगे जाते हैं। फोटो खिंचेगी। उस पर बहस होगी। नतीजों के आधार पर ‘रिश्ता डेवलपर्स एसोसिएशन’ अपना काम करेगी। एक आधुनिक अनुभवी जब किसी ऐसी सभा में जाते हैं तो लौटते समय दोस्तों से अपने प्रदर्शन पर फीडबैक लेते हैं। पूछते हैं, मैं समुचित मात्रा में दुखी दिखा ना। वह गंजा मुझसे ज़्यादा क्या दिखेगा। मैं तो ऐसा दिखता हूं कि बस ब्रह्मा भी न दिखें। मुझे सवा सौ शोकसभाओं का तजुर्बा है। यह तो कहो कोई विभाग नहीं खुला इसका, वरना मैं ही शोकाध्यक्ष होता। बहुत समस्या है भाई।
ऐसा विचार भी किसी के मन में क्यों नहीं आया कि जो शोक दिखाने न पहुंच पाए वह लिफाफे में रखकर पांच सौ एक आंसुओं का नेग भेज दे। जब किसी शादी ब्याह में नहीं पहुंच पाते तो यही करते हैं ना। बी प्रेक्टिकल। इमोशनल होने की ज़रूरत नहीं। अच्छा चलिए नेग शब्द हटा दीजिए। इसकी जगह मुआवजा कर लीजिए। कुछ ऐसा हो जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। वरना आने जाने में ही आंसू निकल आते हैं। जितनी कथा नहीं उससे ज़्यादा व्यथा। ओह क्या आइडिया आया है। दहाड़ दहाड़ कर दिन दहाड़े रोता हुआ अपना वीडियो मेल कर देता हूं। दिवंगतों के घरवाले अपनी सुविधा से मेरा रुदन डाउनलोड कर लेंगे। यूट्यूब पर भी डाल सकते हैं। या कुछ और सोचूं। यह सही है। पत्नी से दोनों जगह फोन करा देता हूँ कि दोस्तों के दुख ने मेरे पति पर गहरा असर किया है। बेड से उठ नहीं पा रहे हैं। लेटे हैं। दोस्तों की तस्वीरों को अगल बगल सटाए हैं। सुबह से पांच बार फूट फूट कर रो चुके हैं। सात बार टूट टूट कर ट्वायलेट जा चुके हैं। बस बेहोश होना बाकी है। कहिए तो आपके वहाँ पहुँच कर बेहोश होकर भी दिखा दें। वाह। यही करता हूँ। वैसे भी झूठ बुलवाने की भारतीय संस्कृति में पत्नी का महत्व प्रसिद्ध है। पत्नी पति के लिए झूठ बोलते ही देवी का पद प्राप्त कर लेती है। अब निश्चिंत हूँ। जियो।
मैं मूड बदलने के लिए घर से बाहर निकल आया हूँ। थोड़ी दूर चौराहे पर एक ओर कुछ लोग मौन खड़े हैं। क्या इनके हिस्से में आने वाला कुछ कहीं चला गया है। शायद इनके हिस्से का समय दिवंगत हो गया है। शायद ये इंसाफ की विशाल शोकसभा में शामिल हैं। मेरे मन ने कहा, वाह व्यवस्था कितनी उदार है। मुक्तिबोध को कदम-कदम पर चौराहे बांहें फैलाए मिलते थे। हमें शोकसभाएं मिलती हैं। मन में अजीब प्रायश्चित्त भर गया। वहां नहीं गया, चलो यहीं शामिल हो लेता हूं। मैं लपका और सामने खड़े लोगों के बीच दो मिनट के मौन की तरह जा खड़ा हुआ।
– सुशील सिद्धार्थ