रचना-समीक्षा
‘चंद्र गहना से लौटती बेर’ में प्रकृति का मनोरम चित्र: आज़र ख़ान
कवि केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी एक कविता ‘चंद्र गहना से लौटती बेर’ में प्रकृति का बड़ा ही मनोरम चित्र खींचा है।कवि एक पोखर के किनारे खेत की मेड़ पर बैठा प्रकृति के अचंभों को देख रहा है। यह कविता विविधतामय प्रकृति का एक गतिशील सौंदर्य-चित्र भर रही है।इसमें गुलाबी रंग के फूलों से सजे मुरैठा की तरह दिखता चने का पौधा साधारण गरिमा का उद्घोष बन जाता है। कवि खेत में भले ही अकेले बैठा हो, पर हिलमिल कर उगे अलसी के पौधों की एकता का बिम्ब है। केदार जी को बिम्बों से परहेज नहीं है। वह लोक-जीवन की संवेदना से भरा हृदय लेकर बड़े जीवन-स्पर्शी बिम्ब रचते हैं। प्रकृति की एक-एक चीज़ के साथ कवि का मन दौड़ता है और उसे सुंदर बना देता है-
देख आया चन्द्रगहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बांधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सजकर खड़ा है।
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली।
नीले फूले फूल को सिर पर चढ़ाकर
कह रही है, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।
आगे इसी कविता में कवि ने प्रकृति के बीच स्वयंवर होता हुआ दिखाया है। सरसों खिली हुई ऐसी प्रतीत होती है जैसे वो अपने हाथ पीले करके मंडप में पधारी हो और फागुन के इस मास में फाग गाया जा रहा है और कवि अपनी आँखों से इस स्वयंवर को देख रहा है-
और सरसों की न पूछों-
हो गई है सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं,
ब्याह-मंडप में पधारी,
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं; स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
आगे इसी दृश्य में कवि ने व्यापारिक नगर की उपजाऊ भूमि, नदी में उठने वाली लहरों, पक्षियों की चतुरता, मछलियों की चंचलता आदि का चित्रण किया है। यहाँ प्रकृति और प्रेम दोनों एक साथ मिलते हैं, जहाँ प्रिय होता है हमारा मन वहीँ रमता है। कवि पोखर के किनारे बैठकर उसमे उठने वाली लहरियों की सुन्दरता को निहारता है, उसके पैरों के पास ही उगी भूरी घास कैसी सुन्दर प्रतीत होती है। पानी पर पड़ने वाली सूरज की किरणों से चांदी के समान चमकने वाला पानी कवि की आँखों में चकमकाता है, किनारे पड़े हुए पत्थर ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई पथिक चुपचाप बैठा पानी पी रहा हो। कवि ने इन पत्थरों को भी सजीव कर दिया है, वो पत्थर इतने प्यासे हैं कि उनकी प्यास कभी बुझती नहीं है। वही खड़ा बगुला चंचल मीन को देखते ही झट से नींद का त्याग करता है और आकाश में उड़ने वाली चिड़िया जैसे जल के हृदय पर प्रहार करती है और मछली को अपनी चोंच में दबाकर आकाश में उड़ जाती है-
इस विज़न में,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि ऊपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रही इसमें लहरियां,
नील तल में उगी है जो घास भूरी
ले रही वह भी लहरियां।
एक चांदी का बड़ा-सा गोल खम्बा
आँखों को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
चुप खड़ा बगुला डुबाये टांग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान निद्रा त्यागता है,
चट दबाकर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फ़ौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबाकर
दूर उड़ती गगन में!
साथ ही साथ कवि ने छोटी-छोटी पहाड़ियों का सुन्दर चित्रण भी किया है। कवि बैठे-बैठे ट्रेन की पटरियों को देखता है, जहाँ चारों तरफ छोटी-छोटी पहाड़ियां दूर-दूर तक फैली हैं, यहीं पर रीवा के कांटेदार कुरूप वृक्ष भी खड़े हैं। वहीँ से कवि को सुग्गे का मीठा-मीठा स्वर सुनाई दे रहा है, इसके साथ ही वनस्थली का हृदय चीरता सारस का स्वर सुनकर उसके साथ उड़कर उनकी सच्ची प्रेम कहानी सुनने के लिए जाना चाहता है-
और यहीं से-
भूमि ऊँची है जहाँ से-
रेल की पटरी गई है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची ऊँची पहाड़ियां
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रीवा के पेड़
कांटेदार कुरूप खड़े हैं।
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टे टे टे टे,
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता,
सारस का स्वर
टिरटो टिरटो,
मन होता है-
उड़ जाऊं मैं
पर फैलाये सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में,
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।
– आज़र ख़ान