रचना-समीक्षा
पहाड़ों पर बसे लोगों के जीवन और उनकी स्थिति का जीवंत चित्रण ‘मैंने देखा’ : आज़र खान
नागार्जुन की प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में ढेरों कविताएँ प्रकृति के सीधे-साधे रूप में हैं। इन सहज रूपों पर लिखी गयी कविताओं में प्रकृति से कवि के गहरे परिचय का पता चलता है। ऐसी कविताओं में प्रकृति, प्रकृति के रूप में है। बादल, कोहरा आदि पर ढेरों कविताएँ इसी कोटि में रखी जा सकती हैं। ये कविताएं प्रकृति से कवि का राग और आह्लाद की सीधे-सीधे अभिव्यक्ति है। प्रकृति जैसी है, जिस रूप में है, उसी रूप में कवि को आकर्षित करती है। वह प्रकृति पर किसी आडम्बर, रहस्य, वस्तु या रूप का आरोपण नहीं करते।
नागार्जुन की प्रकृति सम्बन्धी कविताएँ मात्र प्रकृति-चित्रण के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी हैं। नागार्जुन की कविताओं की ये खासियत रही है कि उनमें किसी न किसी तरीके से उन्होंने मानव के हित की बात कही, उनकी कविताओं में प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ मानवीय सौंदर्य भी देखने को मिलता है, इस तरह की कविताओं की रचना करके उन्होंने अपनी उपयोगितावादी दृष्टि का परिचय दिया है। उनके प्रकृति-चित्रण में युगीन परिस्थितियां पूर्णता के साथ विद्यमान हैं। ऐसा नहीं कि इन कविताओं को लिखते हुए वे अपनी सामाजिक और राजनैतिक चेतना को अलग रख देते हैं। जनता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कब और कहाँ झलक मार देगी शायद वे भी नहीं जानते। ‘मैंने देखा’ कविता में उनकी निजी सहानुभूति जाग उठी है।
प्रस्तुत कविता में कवि ने प्राकृतिक चित्रण के साथ ही पहाड़ों पर बसे हुए लोगों, उनके चमकते-दमकते हुए घरों, झोपड़ियों का जीवंत चित्रण किया है। इसके साथ ही वहां पर बसे किसानों के प्रति उनकी सहनुभूति जाग उठी है। वहां पर बसे किसानों की दुर्दशा को उन्होंने प्रकृति से जोड़कर दिखाया है। इस कविता में कवि ने सामंतवाद की भी झलक दिखलाई है, आज के वैश्वीकरण के युग में नौकरी के दौरान लोगों को बस उतना ही करना होता है जितना उन्हें बताया जाता है, दफ्तर में उन्हें चुप ही रहना पड़ता है। उनकी यह स्थिति देखकर कवि ने पहाड़ों और सूखे झरनों का चित्र प्रस्तुत किया है। कवि ने उनकी संवेदना को पहाड़ों, झरनों और नदियों से जोड़कर दिखाया है। सूखे झरनों के निशान इन्हीं किसानों की दुर्दशा के प्रतीक हैं।
मैंने देखा
शिखरों पर
दस-दस त्रि-कूट हैं
बाएँ-दायें तलहटियों तक
फैले इनके जटा-जूट हैं
सूखे झरनों के निशान हैं
तीन पथों में बहने वाली
गंगा के महिमा-बखान हैं
दस झोपड़ियाँ, दो मकान हैं
इनकी आभा दमक रही है
इनका चूना चमक रहा है
इनके मालिक वे किसान हैं
जिनके लड़के मैदानों में
युग की डांट-डपट सहते हैं
दफ्तर में भी चुप रहते हैं
– नागार्जुन
– आज़र ख़ान