यह एक प्रचलित लोकोक्ति है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’। अर्थात, कोई भी साहित्य अपने समाज के प्रतिबिम्ब को हमारे सामने रखता है। साहित्यकार जिस समाज में जीता है, उसी की मिट्टी से अपनी रचना की उर्वरा शक्ति को प्राप्त करता है। उसी समाज के वे समस्त उपादान जो रचनाकार के रचनात्मक वातवारण का निर्माण करते हैं, रिस-रिस कर उसकी रचनाओं की सृजन-धारा बन बहते हैं। उसकी रचनाओं में समाज की समकालीन हलचल के शोर सुनायी देते हैं। समाज की संरचना, समाज का अर्थशास्त्र, समाज की राजनीति, समाज का संस्कार, समाज की सभ्यता, मौसम, आबोहवा, नदी-नाला, जंगल-पहाड़, बोली-चाली, प्रेम-मुहब्बत, मार-पीट, गाली-गलौज, खेल-कूद, नाच-गान, शादी-बियाह, रहन-सहन, खेती-बाड़ी, खान-पान, गहना-गुरिया, चिरई-चिरगुन, माल-जाल, कपड़ा-लत्ता, पूजा-पाठ, रीति-कुरीति, दर्शन-आध्यात्म, चिंतन-शैली, संस्कृति सब की छाप उस युग में उस समाज की धरती पर रचे जाने वाले साहित्य पर स्पष्ट रूप से पड़ती है। अतः किसी काल के समाज को भली-भाँति समझने में हमें उस काल में रचित उस समाज के साहित्य से बहुत सहायता मिलती है।
इतिहास में तो ऐसे साहित्य, उत्कीर्ण आलेख, खुदाई में मिले अभिलेख आदि का अत्यंत महत्व रहा है। बुद्ध काल या मौर्यकाल में मिले आलेख हमें उस काल के बारे में बहुत कुछ समझा जाते हैं। सच कहें तो विशेष रूप से हमारे देश भारतवर्ष में हमारे पूर्वज अपने द्वारा रचित साहित्य में ही हमें इतिहास, भूगोल, विज्ञान, आद्यात्म, दर्शन, ज्ञान सब कुछ समझा गए। बीच-बीच में बाहर से आए यात्री भले अपने संस्मरणों में कुछ इतिहास की झलकी अलग से छोड़ गए हों तो अलग बात है। हमारे पूर्वजों के द्वारा दी गयी साहित्य की अपार थाती हमारे पास श्रुति, स्मृति, वेद, उपनिषद, सूत्र-ग्रंथ, ब्राह्मण, अरण्यक, रामायण, महाभारत, पुराण, त्रिपिटक, बौद्ध और जैन ग्रंथ, संस्कृत नाटक आदि के रूप में हमारे पास संग्रहित हैं। इतिहास ही इस बात का भी गवाह है कि पुस्तकों के एक विशाल भंडार को नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में शैतान आततायियों ने आग लगाकर स्वाहा कर दिया। कहते हैं कि पुस्तकों का इतना विशाल भंडार था कि तीन महीनों तक पुस्तकें जलती रहीं।
ऋग्वेद हमारे देश ही नहीं अपितु समूचे विश्व साहित्य की सबसे प्राचीन कृतियों में एक है और अपने अंदर पुरातनकाल के महान इतिहास को समाहित किए हुए है। समस्त वैदिक साहित्य के अध्ययन से न केवल मानव-सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की कथा-धारा के प्रवाह की दशा और दिशा का ज्ञान मिलता है, बल्कि समकालीन भूगोल और इतिहास के आपसी ताने-बाने का भी एक सम्यक् चित्र मिलता है। ऋग्वेद की रचना के काल के निर्धारण में जब तक विज्ञान ने अपनी सहायता उपलब्ध नहीं करायी तबतक इतिहासकार अपनी अटकलबाजियों के घटाटोप अंधकार में भटकते रहे।
पश्चिमी विद्वानों ने भारत पर बाहर से आर्यों के आक्रमण, अतिक्रमण और भारत में उनके बसने की घटना से ऋग्वेद की रचना को जोड़ा। भारत के देशी इतिहासकारों में दुर्भाग्य से वस्तुनिष्ठ शोध और अनुसंधान की उन्नत परम्परा का विकास अपेक्षित स्तर तक नहीं हो पाया। परिणामतः उन्हें पश्चिमी इतिहासकारों पर ही प्रारम्भ में ज़्यादा निर्भर रहना पड़ा। आगे चलकर इतिहासकारों में भी दक्षिणपंथी और वामपंथी दो खेमे बन गए और दोनों खेमें वैज्ञानिक शोध की परम्परा से भटककर अपनी राजनीति के फेर में ज़्यादा पड़ गए। इससे हमारी पीढ़ियाँ अपने इतिहास के सही स्वरूप को समझने में पिछड़ गयी। किंतु, सौभाग्य से सूचना-क्रांति की नयी पीढ़ी के हाथ में वैज्ञानिक सोच का एक अमोध शस्त्र है और उसने अपने शास्त्रों की पड़ताल एक तर्कसंगत दृष्टिकोण से नए सिरे से शुरू कर दी है।
हम पहले थोड़ा इतिहास को उकटेंगे। फिर सभी पाठकों के साथ मिलकर इस पर एक तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टि डालने की कोशिश करेंगे कि किस तरह हमारा वैदिक साहित्य हममें एक इतिहासबोध जगाता है। ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन देश में हो गया था। १७८४ का ज़माना था। विलियम जोंस कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनकर आए थे। वारेन हेस्टिंग्स ‘गवर्नर-जनरल ऑफ़ बंगाल’ (१८३३ के चार्टर-ऐक्ट तक इस पद का यहीं नाम था) थे। दोनों ने मिलकर कलकत्ता में ‘बंगाल एशियाटिक सोसायटी’ की स्थापना की। गवर्नर-जनरल साहब संरक्षक और जज साहब अध्यक्ष बने। सोसायटी का उद्देश्य भारतीय समाज, संस्कृति और यहाँ के धर्म का सम्यक् अध्ययन कर एक ओर अपने क़ानूनों में उनकी अपेक्षाओं का समावेश करना था तो दूसरी ओर अपनी शासकीय नीति-निर्धारण में भी उन तत्वों से समुचित फ़ायदा उठाना था।
विलियम जोंस ने संस्कृत भाषा और भारतीय ग्रंथों का विशद अध्ययन किया। वह सोसायटी के वार्षिक समारोह में हर साल अपना अध्यक्षीय भाषण देते थे और उसमें सोसायटी द्वारा किए गए शोध कार्यों पर प्रकाश डालते थे। १७८६ के भाषण में उन्होंने भाषा-विज्ञान के बारे में अपने एक सिद्धांत का ख़ुलासा किया, जिसे ‘प्रोटो-लैंग्वेज थ्योरी’ कहा जाता है। इसमें उन्होंने भाषाओं की उत्पति, परिवार और पारस्परिक सम्बन्धों का बड़ी गहरायी से विश्लेषण किया। अपने गहन अनुसंधान के बाद उन्होंने ग्रीक, लैटिन, गोथिक और अन्य यूरोपीय भाषाओं के परिवार का ही संस्कृत को भी एक सदस्य बताया और इस बात की ओर इशारा किया कि संस्कृत भारत में जन्मी भाषा नहीं है। १७९३ में उनका अंतिम अध्यक्षीय भाषण हुआ और महज़ ४८ साल की उम्र में उनकी १७९४ में मृत्यु हो गयी। अपने दस वर्षों के भारत प्रवास के दौरान विलियम जोंस ने भारतीय धर्म ग्रंथों यथा वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, पुराण सभी का संग्रह कर लिया था और उनका पूरा शोधपरक अध्ययन भी किया। इन ग्रंथों के अंग्रेज़ी अनुवाद की भी पहल उन्होंने की।
आगे चलकर १८३० में अपने भारत विरोधी रवैए के लिए मशहूर मेकौले साहब गवर्नर-जनरल की कौंसिल में ‘लॉ-मेंबर’ बनकर आए। उनका कार्यक्रम भारत की शिक्षा और संस्कृति को पूरी तरह ध्वस्त कर इस देश का पूर्ण ईसाईकरण करना था। यह कोई आरोप-प्रत्यारोप की बात नहीं है क्योंकि इस बात का उद्घाटन स्वयं उन्होंने ही अपने पत्रों में किया है। उन्हें वेद की महिमा और इसके प्रभाव का आभास था। इसलिए फ़ौरी तौर पर इससे वह जल्दी कोई छेड़छाड़ करना नहीं चाहते थे। वह अंग्रेज़ी माध्यम और अपनी शिक्षा नीति के क्रूर दंशों द्वारा इसे धीरे-धीरे डसना चाहते थे। वह वेद का अनुवाद अपनी योजना के आलोक में चाहते थे। लेकिन अपना यह मिशन पूरा होने के पहले ही वह विलायत लौट गए।
उनकी आस अभी भी बुझी नहीं थी। उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी से अपने इस मिशन के लिए कुछ पैसे जुगाड़े और आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफ़ेसर हॉरिस विल्सन से सम्पर्क साधा। उन्होंने आग्रह किया कि यदि प्रोफ़ेसर विल्सन जैसा स्थापित विद्वान इस विषय पर उनके विचारों को लिखेगा तो उसे स्वीकृति और वैधता मिलेगी। उनका विचार था कि वेदों के बारे में ऐसा कुछ चित्रित किया जाय कि यह खानाबदोश, बर्बर और जंगली जनजातियों द्वारा लिखा गया एक पूजा-पाठ या ढोंग-प्रपंच के मिथक-गल्प से बढ़कर कुछ ख़ास ज़्यादा नहीं है। प्रोफ़ेसर विल्सन ने इससे कन्नी काटते हुए यह कह दिया कि अगले ही सत्र में वह सेवा-निवृत होने वाले हैं। उन्होंने अपनी बला टालने के लिए अपने विभाग के एक नए तेजस्वी और युवा सदस्य का नाम आगे बढ़ा दिया। इस युवा प्रोफ़ेसर का नाम ‘मैक्स मूलर’ था, जो मेकाले के लिए वेद की महिमा से ‘मोक्ष’ और ईसाईयत के बीजारोपण का ‘मूल’ था।
अब थोड़ा मैक्स मूलर के बारे में जान लें। मैक्स मूलर जर्मन मूल के एक कट्टरवादी ईसाई थे। वह जाने माने भाषविद और संस्कृत भाषा के प्रकांड अध्येता थे। भाषा-शास्त्र को वह ‘भौतिक विज्ञान’ मानते थे। संस्कृत जाने बिना भाषा-शास्त्र का अध्ययन करना उनकी निगाह में गणित जाने बग़ैर ज्योतिष शास्त्र के अखाड़े में प्रवेश पाने के समान था। जब १८७७ में थौमस अल्वा एडिसन ने ग्रामोफ़ोन का आविष्कार किया तो उन्होंने मैक्स मूलर से आग्रह किया कि इसमें रिकॉर्ड करने के लिए कुछ विशेष शब्दों का चयन करें जो इस मौक़े को एक ख़ास गरिमा प्रदान कर सके। मूलर ने जो सबसे पहले शब्द रेकर्ड किए वे ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के आरंभिक मंत्र थे, “ॐ अग्निम इले पुरोहितम”।
मूलर के पिता विलहेम मूलर स्वयं एक बड़े कवि थे। चार वर्ष की अल्पायु में ही मूलर के पिता, विलहेम मूलर ,की मृत्यु हो गयी थी। बाद में अध्ययन काल के दौरान मूलर ने ग्रीक, लैटिन, संस्कृत आदि भाषाओं में महारत हासिल कर ली। १८४६ में मूलर इंग्लैंड पहुँच गए थे और उन्होंने ऋग्वेद का अनुवाद भी शुरू कर दिया था। १८४८ में आक्स्फोर्ड प्रेस ने इसका मुद्रण भी प्रारम्भ कर दिया था। १८५० में ही वह आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में यूरोपीय भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए थे। उनकी इच्छा तो संस्कृत विभाग के आचार्य बनने की थी, किंतु विदेशी होने के कारण उनका चयन नहीं हो पाया था। इस बात का उन्हें गहरा मलाल भी था। हालाँकि, बाद में उनकी नियुक्ति हो गयी थी। उनकी आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। हम मूलर और मेकॉले की भेंट तथा मूलर के व्यक्तित्व से जुड़े कुछ पहलुओं की जानकारी के लिए ‘विकिपीडिया’ में इस प्रकरण के उद्धृतांश से थोड़ा परिचित हो लेते हैं : –
“इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर १८५५ में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया। इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत और उसके प्रभाव को स्वयं मेक्समूलर ने १८९८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लैंग सायने’ में स्पष्ट किया है ! एक प्रकार से मैकॉले ने मैक्समूलर को अपमानजनक ढंग से आदेश देकर रुखसत किया ! अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने इस बदनाम साक्षात्कार का वर्णन किया है ! उसने दुखित मन से लिखाः
“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent……I went back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.” (LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).
इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई। निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्पटु व्यक्ति है। मैं और अधिक दुःखी होकर ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर”
(जी.प.खं. १, पृ. १६२)
मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि ‘इस भेंट के बाद उसने मध्यम मार्ग अपनाया’, (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्देश्यों की भी पूर्ति होती रहे और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा ? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया ! मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया ! उसके ये मनोभाव एवं उद्देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता ! अपनी पत्नी को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्देश्य को पहली बार दिल खोलकर उजागर किया ! वह लिखता हैः
“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अर्थात् ”मुझे आशा है कि मैं इस काम को (सम्पादन-भाष्य आदि) पूरा कर दूंगा और मुझे निश्चय है कि यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा ! यह (वेद) उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है!”
हाँ, तो प्रोफ़ेसर विल्सन की सिफ़ारिश पर मैक्समूलर को भारतीय ग्रंथों के अनुवाद और उनके अर्थ की अपेक्षित व्याख्या हेतु किराए पर नियोजित किया गया। किराया था – प्रति पेज अनुवाद ४ पाउंड। अब बातों को और विस्तार देने के बजाय हम यह बता दें कि १८५३ में आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में प्रति वर्ष की तनख़्वाह पुरुष प्रोफ़ेसरों की ९० पाउंड और महिला प्रोफ़ेसरों की ६० पाउंड हुआ करती थी। उस ज़माने में मूलर को एक अत्यंत महँगे पैकेज पर इस कार्य के लिए लिया गया था। मूलर ने दो कारणों से इस कार्य में अपनी पूरी जान लगा दी। एक तो अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का इतना बढ़िया मौक़ा वह गँवा नहीं सकता था और दूसरे, यह कार्य पूरी तरह से उसकी रुचि, प्रतिभा (संस्कृत और भारतीय ग्रंथों का ज्ञान) और मनोविज्ञान (हिंदू धर्म को समूल नष्ट कर ईसाईयत की भारत में स्थापना) के साँचे में फ़िट बैठता था। मैक्समूलर ने अपने को सौंपे गए इस अति महत्वपूर्ण दायित्व के साथ भरपूर न्याय किया।
मूलर ने ‘आर्य अतिक्रमण सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया। उसके सामने बाइबल की यह पंक्ति थी कि ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण ईसा से ४००० वर्ष पूर्व किया था। इसलिए किसी क़ीमत में वह ऋग्वेद को ४००० वर्ष ईसा पूर्व या उससे पहले की रचना मान नहीं सकता था। उसने सूत्र-ग्रंथों के काल को बुद्ध के काल के क़रीब ६०० ईसापूर्व का माना क्योंकि बुद्ध से सम्बंधित आलेखों के प्रमाण तब मौजूद थे। पीछे की ओर बढ़ते हुए उसने अरण्यक, ब्राह्मण-ग्रंथों और ऋग्वेद की रचना के काल की गणना के लिए दो-दो सौ वर्षों के अंतराल का अन्दाज़ लेते हुए वेद का रचना काल १२०० ईपु (ईसा पूर्व) से १००० ईपु माना। ऋग्वेद की पंक्ति ‘कृणवतोविश्वमार्यम’ अर्थात “सम्पूर्ण विश्व को ‘आर्य’ बनाओ” में ‘आर्य’ का अर्थ उसने ‘एक सात्विक और सद्गुणी मनुष्य’’ के बजाय एक ‘रेस’ अर्थात प्रजाति के रूप में प्रतिपादित किया और आर्यों का मूल स्थान यूरोप बताया। विलियम जोंस के ‘प्रोटो-लैंग्वेज थ्योरी’ के साथ साम्य बिठाते हुए उसने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि मध्य रूस में अपनी मातृभूमि में रहने वाले पतली, खड़ी और नुकीली नाक वाले ‘आर्य’ रेस के गोरे युरोपीय लोग पश्चिम एशिया के रास्ते पश्चिमोत्तर भारत में घोड़ों और रथ पर सवार होकर १५०० ईपु घुसे। उन्होंने वहाँ के मूल निवासी चपटी नाक वाले ‘द्रविड़’ रेस के काले लोगों को युद्ध में हराकर खदेड़ दिया। द्रविड़ रेस के काले ‘दास’ या ‘दस्यु’ मूल भारतीयों ने भागकर विंध्य के पार दक्षिण भारत में पनाह ले ली और गोरी-चिट्टी खड़ी नाक वाली विजेता आर्य प्रजाति धीरे-धीरे समूचे उत्तर भारत में पसरकर राज करने लगी। यही आर्य जाति अपने साथ यूरोप से घोड़े और रथ के साथ-साथ संस्कृत भाषा लेकर आयी थी और उसी भाषा में उन्होंने ऋग्वेद और अन्य वेदों तथा पौराणिक ग्रंथों की रचना की। इस सिद्धांत द्वारा वह यह साबित करना चाहता था कि भारत में शासन करना यूरोपियों (अंग्रेज़ों) का नैसर्गिक अधिकार है। उसने यह काम इतनी सफ़ाई से किया कि भारतीय लोग इस तथ्य से भी अपनी आँखें मूँदे पाए गए कि जिस वेद की महिमा का खंडन करने के लिए उसे किराए पर लिया गया था उसे उसने स्वयं अपनी ही रेस ‘आर्य’ की रचना साबित कर दिया और समूचे भारत की पाठ्यपुस्तकें अपनी पीढ़ियों को यहीं पढ़ा-पढ़ाकर उन्हें इतिहासबोध कराती रही कि उत्तर भारतीय बाहर से आए लुटेरे आर्यों की संतान हैं और दक्षिण भारतीय पराजित और खदेड़े गए द्रविड़ रेस की संतान हैं। मूलर अपना काम कर १९०० ईसवी में इस संसार से विदा हो गए।
मूलर की मृत्यु के बाद आनेवाले बीस-बीस वर्षों के अंतर पर विज्ञान में दो महत्वपूर्ण प्रगतियाँ हुई। पहली प्रगति पुरातात्विक विज्ञान के क्षेत्र में हुई कि बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक अर्थात १९२० से भारत में पुरातात्विक उत्खनन के कार्य का प्रारम्भ हुआ। और दूसरी प्रगति हुई अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में चौथे दशक अर्थात १९४० के बाद, जब विलर्ड लिबी ने कार्बन के एक समस्थानिक परमाणु ‘कार्बन-१४’ की विद्यमान मात्रा के आधार पर किसी जैव वस्तु की आयु निर्धारित करने की तकनीक ‘कार्बन-डेटिंग’ की खोज की जिसके लिए उन्हें १९६० में रसायन शास्त्र का नोबल पुरस्कार भी दिया गया। कहने का अर्थ है कि उत्खनन पर आधारित पुरातत्व विज्ञान के विश्लेषणों और कार्बन डेटिंग की तकनीक के बिना ही आर्यों के आक्रमण और ऋग्वेद की रचना का काल निकाल लिया गया जो आज तक पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जा रहा है। और, यहीं पर एक बात और जोड़ दें कि इन सामंती विचारकों पर विज्ञान का एक और घातक प्रहार हुआ। विज्ञान ने ‘रेस’ जैसी अवधारणा को सिरे से ख़ारिज कर दिया जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने संकल्प में शामिल कर लिया। ऐसे आगे चलकर हम इस प्रसंग पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे।
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– विश्वमोहन