वैदिक साहित्य और इतिहास बोध
वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध- 5
(भाग-4 से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य – (ग)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
अ- मिती पुरा(तात्विक)-सामग्री
अब इतनी बात मान लेते हैं कि मिती , भारतीय और ईरानी पहले एक साथ थे। फिर सबसे पहले मिती अलग हो गए। उसके बाद भारतीय-आर्य और ईरानी भी अलग हो गए।यह भी मान लेते हैं कि मिती संस्कृति भारतीय आर्य संस्कृति से पहले की है।तो, अगर ऐसा है तो मिती (और साथ में अवेस्ता भी) के जो तत्व हमारे ऋग्वेद से मिलते हैं उनका यह मिलना ऋग्वेद के पुराने मंडलों के साथ ज़्यादा होना चाहिए क्योंकि उनके अलग होने की दशा और दिशा के काल-प्रवाह के हिसाब से पुराने मंडल नए मंडलों (जो बाद में रचे गए) की अपेक्षा उनके ज़्यादा नज़दीक हैं। पुराने मंडलों के संशोधित सूक्त और नए मंडलों की रचना के आते-आते उनके मध्य एशिया में सहवास की स्मृतियाँ काल-प्रवाह की लहरों में ज़्यादा धुल चुकी होंगी। लेकिन यह अत्यंत ही आश्चर्यजनक और रोचक तथ्य है कि असलियत में जो हम पाते हैं वह बिल्कुल उलटा है। ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पुराने सूक्तों की लेशमात्र भी समानता हमें मिती या अवेस्ता के साथ नहीं मिलती। पुराने मंडलों के संशोधित सूक्तों की थोड़ी बहुत समानता मिलती है । और सबसे हैरतंगेज़ तथ्य यह है कि ऋग्वेद के बाद में रचे गए नए मंडलों और उनके भी बाद रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों के तो मिती संस्कृति और अवेस्ता में समानता के प्रचुर तत्व मिलते हैं।
अब आप इन उपसर्गों और प्रत्ययों की इस झलकी का दृश्यपान करें जो वैदिक-मिती नामों में अपनी तात्विक समानता का रस घोलते हैं : -अस्व-, -रथ-, -सेना-, -बंधु-, -उत-, -वसु-, -र्त-, -प्रिय- (प्रसिद्ध भारतविद पी इ ड्यूमौन्ट ने इसे खोज निकाला है), -ब्रुहद-, -सप्त-, -अभि-, -उरु-, -चित्र-, -क्षत्र-, -यम-, यमी- आदि। एक शब्द और मिला है ‘मणि’ जो माला या आभूषण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
अ१ – रचनाकारों के नामों के दृष्टांत
ऋग्वेद में उपरोक्त उपसर्ग एवं प्रत्ययों के संयोग से बने नामों के विस्तार का ब्योरा इस प्रकार है : –
१ – मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
२ – मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के संशोधित सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
३ – मंडल १, ५, ८, ९ और १० के नये सूक्त : १०८ सूक्त।
उपरोक्त उपसर्ग या प्रत्यय लगे नामों के किसी एक भी रचनाकार का नाम ऋग्वेद के किसी भी पुराने मंडल में नहीं आता है।
अ२ – नामों के संदर्भों का दृष्टांत
रचनाकारों से इतर उपरोक्त उपसर्ग और प्रत्यय लगे अन्य नाम और ‘मणि’ शब्द के जो संदर्भ ऋग्वेद में मिलते हैं, उनका ब्योरा इस प्रकार है : –
१ – मंडल २, ३, ४, ६और ७ के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
२ – मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के संशोधित सूक्त : दो सूक्त और दो मंत्र।
३ – मंडल १, ५, ८, ९ और १० के नये सूक्त: अठहत्तर सूक्त और एक सौ अट्ठाईस मंत्र।
पुराने मंडल के मात्र दो संशोधित सूक्तों में ऐसा संदर्भ देखने को मिलता है।
ऊपर के तथ्यों में किसी भी तरह के भ्रम या संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है और अब यह शीशे की तरह बिल्कुल साफ है कि ऋग्वेद और मिती , दोनों ग्रंथों या संस्कृतियों में पाये जानेवाले एक समान तत्व या संदर्भ ऋग्वेद के पूर्व के किसी ऐसे कपोलकल्पित काल में मध्य एशिया की वह सौग़ात नहीं थी जो भारतीय आर्यों को भारत ‘में घुसने’ से पहले मिली थी। वे ऋग्वेद के बाद के उस काल की उपज हैं जब ऋग्वेद के ही नए मंडलों की ऋचाएँ रची जा रही थी।
ब – ‘अवेस्ता’ ग्रंथ में उपलब्ध सामग्री
सांस्कृतिक तत्वों की यह एकरूपता केवल वैदिक-मिती संस्कृति की ही बात नहीं है, प्रत्युत यह वैदिक-मिती-ईरानी लोगों की सांस्कृतिक साझेदारी का प्रकट तत्व है। मसलन, हम अवेस्ता में वर्णित नामों या नामसूचक शब्दों की पड़ताल कर सकते हैं इस बात को परखने के लिए कि ऋग्वेद के नए मंडलों की कितनी छाप बाद में पनपने और पसरने वाली वैदिक संस्कृति पर पड़ी और इस बात का सीधा गवाह ईरान भी है। अवेस्ता की सामग्रियों का आकार मिती सामग्रियों की तुलना में न केवल अपार है, बल्कि बाद में रचित वेदों के मंडलों से शब्दों के साथ-साथ छंदों की एकरूपता के तत्व भी उसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। पहले बताए गए वैसे उपसर्ग और प्रत्यय जो वेदों के समान मिती संस्कृति में पाए जाते हैं उनसे भी ज़्यादा ऐसे नामों और नामसूचक उपसर्ग और प्रत्ययों की अवेस्ता में भरमार है। ‘-अश्व-‘, ‘-रथ-‘, ‘मा-‘, ‘-चित्र-‘, ‘-प्रस-‘, ‘-अयन-‘, ‘-द्वि-‘, ‘-अस्त-‘, ‘-अंति-‘, ‘-ऊर्ध्व-‘, ‘-ऋजु-‘, ‘-सम-‘, ‘-स्वर-‘, ‘-मानस-‘, ‘-सवस-‘, ‘-स्तुत-‘, ‘-सुर-‘, ‘-नर-‘, ‘-विदद-‘, ‘-नर-‘, ‘-प्रसाद-‘, ‘-पृथु-‘, ‘-जरत-‘, ‘-माया-‘, ‘-हरि-‘, ‘-सृत-‘, ‘-स्यव-‘, ‘-तोष-‘, ‘-तनु-‘, ‘-मंत-‘, क्रतु-‘ आदि उपसर्ग और प्रत्ययों के प्रयोग से सजे नामों की अवेस्ता में एक लम्बी सूची है। कुछ तो ऐसे नाम अवेस्ता में हैं जो हू-ब-हू ऋग्वेद के उन नए मंडलों से लिए गए प्रतीत होते हैं, जो बाद में रचे गए थे। जैसे – घोड़ा, अपत्या, अथर्व, उसिनर, अवस्यु, बुध, रक्ष, गंधर्व, गया, समाया, कृपा, कृष्ण, मायाव, सास, त्रैतन, उरक्ष्य, नाभानेदिष्ट, वर्षणी, वैवस्वत, विराट आदि। ऋग्वेद में प्रयुक्त कुछ शब्द अवेस्ता में शब्दों के साथ-साथ नामों के संदर्भ में भी प्रयुक्त हुए हैं और ऋग्वेद के कुछ नाम अवेस्ता में मात्र शब्दों के तौर पर भी प्रयोग में लाए गए हैं। ऐसे शब्दों में उदाहरण के तौर पर ‘प्राण’, ‘कुम्भ’ जैसे शब्द और कुछ जानवरों के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अलावा हौपकिंस जैसे पुराने भारतविद और लुबोत्सकी एवं विजेल जैसे आधुनिक भारतशास्त्रियों ने ऐसे प्रचुर शब्दों को चिन्हित कर लिया है जिनके तत्व भारतीय आर्य और ईरानी भाषा-शाखाओं से मिलते हैं और अन्य भाषाओं से इनका साम्य दूर-दूर तक नहीं बैठता। यथा – कद्रु, तिस्य, फल, सप्तर्षि, स्तक, स्त्री, क्षीर, उदर, स्तन, कपोत, वृक, शनै:, भंग, द्वीप आदि।
ब-१ रचनाकारों के नाम
ऋग्वेद की रचनाओं के नाम में प्रयुक्त उपसर्ग और प्रत्ययों से अवेस्ता की समानता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है :
१- मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के पुराने सूक्त – कोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
२- मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के संशोधित सूक्त – एक सूक्त और तीन मंत्र (अठारह मंत्रों में अंतिम तीन मंत्र)
३- मंडल १, ५, ८, ९ और १० के नए सूक्त – ३०९ सूक्त और ३३८९ मंत्र।
पुराने मंडल में ऐसे दृष्टांत मात्र तीसरे मंडल के ३६वें सूक्त में दृष्टिगोचर होते हैं जहाँ अठारह मंत्रों के अंतिम तीन (मंत्र संख्या १६, १७, और १८) में ऐसा हुआ है। यह ऐतरेय ब्राह्मण के छठे मंडल के अठारहवें सूक्त से संबद्ध ऋग्वेद के तीसरे मंडल (पुराने) में किया गया संशोधन है।
ब-२ सूक्तों के अंदर के दृष्टांत :
ऋग्वेद और अवेस्ता के सूक्तों में प्रयुक्त उपसर्गों और प्रत्ययों की भारतीय-ईरानी तात्विक समानता और समरूपता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है:
१- मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं, कोई मंत्र नहीं।
२- मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के संशोधित सूक्त : १४ सूक्त और २० मंत्र।
३- मंडल १, ५, ८, ९ और १० के नए सूक्त : २२५ सूक्त और ४३४ मंत्र।
पुराने मंडलों के मात्र चौदह संशोधित सूक्तों में ही समरूपता के ये तत्व पाए गए हैं।
ब३ – अष्टवर्णी या अष्टमातृक छंद
वेद और अवेस्ता दोनों में छंद-योजना को लेकर एक अद्भुत समानता यह है कि दोनों में आठ वर्णों या मात्राओं वाले छंद विधान का प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद के पुराने मंडलों के आठ-आठ वर्णों के तीन पद वाले गायत्री छंद (८+८+८) और चार चरणों वाले अनुष्टुप छंद (८+८+८+८) के प्रयोग को छोड़कर बाक़ी नए मंडलों और अवेस्ता में पंक्ति (८+८+८+८+८), महापंक्ति (८+८ +८+८ +८+८) और शक्वरी (८+८+८+८+८+८+८) छंदों की समानता मिलती है। इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है:
१- पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के सूक्त: कोई सूक्त और कोई मंत्र नहीं।
२- पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के संशोधित सूक्त : एक सूक्त और एक मंत्र।
३- नए मंडल १, ५, ८, ९ और दस के नए सूक्त : पचास सूक्त और दो सौ पचपन मंत्र।
पाँच पुराने मंडलों में मात्र एक छठा मंडल है जिसमें काफ़ी बाद का बस एक ही संशोधित सूक्त है जो अपने छंद-शिल्प में अवेस्ता से मिलता है।
कुल मिलाकर ऋग्वेद से अवेस्ता और मिती ग्रंथों के सांस्कृतिक तत्वों की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि –
क- ऋग्वेद के पुराने पाँच मंडलों के २८० सूक्तों के २३५१ मंत्रों में इनसे समानता के तत्व का लेशमात्र भी नहीं है।
ख- पुराने मंडल के ६२ ऐसे सूक्त जो नए मंडलों के रचनाकाल में संशोधित हुए, उनके ८९० संशोधित मंत्रों में समानता के छिटपुट तत्व मिलते हैं और
ग- बाद में सृजित पाँच नए मंडलों के ६८६ नए सूक्तों के ७३११ नए मंत्रों और उसी काल में या बाद में रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों या संस्कृत साहित्य में समानता के तत्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
सारांश रूप में कहें तो नए मंडलों में हुए संशोधनों को भटकाव मानते हुए भी पुराने मंडलों के साथ ऊपर विस्तार में दिए गए विवरणों का एकपक्षीय स्वरूप जो उभरता है वह इस प्रकार है :
ऋग्वेद के नए मंडलों की मिती ग्रंथों और ईरानी अवेस्ता के साथ ऊपर वर्णित तात्विक समानता हमें ऋग्वेद की रचना के काल में झाँकने की एक वैज्ञानिक दृष्टि देती है।
सीरिया और इराक़ के भूभाग में मिती साम्राज्य का उदय ईसा से क़रीब १५०० साल पहले के आसपास हुआ था। किंतु जो भी दर्ज सबूत हासिल हैं उनसे यही मालूम होता है कि अपनी साम्राज्य-स्थापना से लगभग दो सौ से भी अधिक वर्षों पहले वे पश्चिमी एशिया में रहते थे। साथ ही १७५० ईसा पूर्व के आसपास बेबिलोन (इराक़) में मिती लोगों के समान ही कासाइट लोगों की उपस्थिति का प्रमाण मिलता है। इन, कासाइट लोगों, के राजा का नाम ‘अधिरथ’ (‘-रथ-‘ प्रत्यय लगा हुआ) था। यह मिती लोगों में बाद के दिनों में प्रचलित नामों में हुआ करता था।
ईसापूर्व १८वीं सदी में सीरिया-इराक़ के इलाक़े में जीवन यापन कर रहे मिती और कासाइट लोगों की ज़िंदगी में ऋग्वेद के नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों के पाए जाने के बाद से ऋग्वेद का रचनाकाल और काफ़ी पीछे की ओर खिसक जा रहा है। ग़ौरतलब है कि मिती और कासाइट, दोनों की भाषा अभारोपिय भाषा थी। विजेल (२००५:३६१) ने मिती लोगों की भाषा में उपस्थित भारतीय-आर्य तत्वों का अध्ययन किया है और उन तत्वों के वर्गीकरण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि असल में ये तत्व मिती लोगों द्वारा काफ़ी पहले अतीत में बोली जाने वाली हुर्राइट भाषा के भारतीय-आर्य तत्वों के अवशेष थे। जे पी मेलोरी (१९८९:४२) ने तो इसे एक मरी हुई हुर्रियन भाषा के अंदर से निकलती वह जीवित आवाज़ बताया है जो हमें इतिहास की यह आहट सुनाती है कि सहजीविता की सदियों लम्बी प्रक्रिया की यात्रा तय करने के बाद मिती भाषा अपने वजूद में आयी होगी। चाहे हम अपने आकलन में कितनी भी अतिरिक्त सतर्कता बरत लें इतना तो पक्का ही है कि १८०० ईसा पूर्व में ये वैदिक तत्व कम-से-कम पश्चिमी एशिया में तो विद्यमान थे ही।
अब इसमें तो कोई विवाद नहीं कि ऋग्वेद के पुराने मंडल से लेकर नए मंडल तक संस्कृति की एक ही विराट धारा का अनवरत प्रवाह हुआ है और सच कहें तो अपने नैरंतर्य के तत्व में उसका प्रवाह अद्यतन अछूता ही रहा है। यही सांस्कृतिक निरंतरता उसकी मूल पहचान है। अतः, नए मंडलों में आने वाले नवीन तत्व ऋग्वेद की रचना के भूभाग में पुराने मंडलों (६, ३, ७, ४, २) की रचनाकाल से लेकर नए मंडलों (५, १, ८, ९, १०) के रचे जाने के काल तक के सांस्कृतिक विकास के निरंतर प्रवाह से निष्पन्न लहरियाँ हैं। और, तय है कि नए मंडलों के रचना काल में तरंगायित इन सांस्कृतिक लहरियों ने अपने समकालीन भूभाग के एक बड़े विस्तार को भिगोया होगा जिसके तत्व हमें मिती संस्कृति या अवेस्ता-ग्रंथ के सांस्कृतिक तत्वों की समरूपता में दिखायी दे रहे हैं। अब ऋग्वेद के भूगोल को भी याद कर लें। इस भौगोलिक वितान का विस्तार पूरब में पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और हरियाणा से लेकर पश्चिम में अफगनिस्तान के पूरबी किनारे को छूता था और यहीं वह क्षेत्र है जहाँ से निकलकर मिती लोगों के भारतीय-आर्य पूर्वज और अवेस्ता रचने वालों के ईरानी पूर्वज अपनी संस्कृति और विरासत को अपने माथे पर ढोते अपना इतिहास रचने अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर बस गए थे।
अब यदि पश्चिमी एशिया अर्थात सीरिया-इराक़ के इलाक़े में १८०० ईसापूर्व के इन मितानियों के संस्कृति-तत्व अपने भारतीय-आर्य पूर्वजों की संस्कृति के ‘अवशेष’ या ‘बचे-खुचे अंश’ थे, तो उन पूर्वजों का पश्चिम एशिया में कम-से-कम २००० ईसापूर्व तक तो रहना तय है। इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि ऋग्वेद की भूमि से निकलकर वे पूर्वज उससे भी कई सदियों पूर्व पश्चिमी एशिया में आकर बस गए थे और ऋग्वेद के तत्कालीन रचित नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों को अपने साथ सहेजकर लेते गए थे। यह काल किसी भी तर्क की कसौटी पर ईसा से तीसरी सदी पूर्व का ही ठहरता है।
जिस संस्कृति को ये पूर्वज अपने साथ पश्चिम एशिया में लेकर गए, वह ऋग्वेद की भूमि पर पूरी तरह से विकसित और खिला हुआ संस्कृति-कुसुम था जिसकी सुरभि आगे कई सदियों तक न केवल पश्चिमी एशिया बल्कि उससे मिती साम्राज्य और अवेस्ता की ईरानी भूमि की ओर बहकर जाने वाली हवाओं में भी घुलकर उस समस्त भूभाग को आने वाली कई सदियों तक सुवासित करती रही। इस आधार पर ऋग्वेद के नए मंडलों से खिलने वाले इस संस्कृति-कुसुम का काल कम-से-कम २५०० ईसापूर्व के पास तो जाकर ठहरता ही है या उससे भी पीछे यदि चला जाय तो कोई चौंकने की बात नहीं।
अब ऋग्वेद के पुराने मंडलों की ज़रा बात कर लें। रचना काल के आधार पर इन मंडलों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। सबसे पुराने मंडल (६, ३ और ७) को ‘सबसे पुरातन काल’ के और मंडल (४ और २) को ‘बाद के पुरातन काल’ या ‘मध्य-पुरातन काल’ का कह सकते हैं। इन दोनों कालों की रचनाओं में नये मंडलों की रचनाओं के सांस्कृतिक तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित दिखते हैं। अतः इनकी रचनाओं का काल निश्चित तौर पर २५०० ईसापूर्व से काफ़ी पीछे जाएगा और किसी भी स्थिति में यह ३००० ईसापूर्व के बाद का तो हो ही नहीं सकता।
कालक्रम की इस गणना की वैज्ञानिकता को इस बात से भी बल मिलता है कि तीसरी सदी ईसापूर्व के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसे तकनीकी खोजों और प्राद्यौगिक ईजादों का हवाला मिलता है जिसका उल्लेख ऋग्वेद के नए मंडलों में तो है लेकिन पुराने मंडलों में उनका कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है।
उसी काल में मध्य एशिया के आसपास आरेदार पहिए की खोज हुआ मानते हैं। उसी तरह विजेल ने यह प्रमाण इकट्ठा किया है कि बैक्ट्रियायी ऊँटों को मध्य एशिया में पालतू बनाए जाने का भी समय वही तीसरी सदी ईसापूर्व का अपराह्न काल है। आरेदार पहियों और पालतू ऊँटों की चर्चा ऋग्वेद के बाद के मंडलों में पाए जाने का दृष्टांत इस प्रकार है :
ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा से लेकर अफगनिस्तान की पूर्वी सीमा को छूती भूमि तक फैले विस्तृत भूभाग में ३००० साल ईसापूर्व रचे जाने के इस तथ्योद्घाटन से अब दो बड़े ज़रूरी सवाल उभरते हैं।
पहला सवाल तो यह कि ३००० वर्ष ईसा पूर्व या इसके आसपास का यही काल है जब उस समय यहाँ पर विकसित सभ्यता की पुरातात्विक पहचान की गयी है, जिसे हम ‘सिंधु-घाटी सभ्यता’ या ‘हड़प्पा-सभ्यता’ या अब ‘सिंधु-सरस्वती सभ्यता’ के नाम से जानते हैं।
और दूसरा सवाल यह कि भाषायी खोजों से प्राप्त सबूत इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं की बारहों शाखाओं को बोलने वाली जनजातियाँ ‘भारोपीय भाषाओं की जन्मभूमि’ या ‘प्राक-भारोपीय-भाषा की अपनी मातृभूमि’ में ३००० वर्ष ईसापूर्व तक साथ-साथ रहती थीं। तो, क्या यह मान लिया जाय कि समस्त भारोपीय भाषाओं की जननी और जन्मभूमि उत्तर भारत की यहीं भूमि है!
– विश्वमोहन