वैदिक साहित्य और इतिहास बोध
वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध- ३
भाग २ से आगे
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य – (क)
(मूल शोध – श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
[ यह ‘भारतीय-आर्य-बहिर्गमन सिद्धांत’ के प्रतिपादक अंतराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त प्रकांड इतिहासवेत्ता और शोधकर्मी श्री श्रीकान्त गंगाधर तलगेरी द्वारा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नयी दिल्ली के २०१८ के सम्मलेन में प्रस्तुत शोधपत्र का उन्ही के द्वारा २० जुलाई २०२० को परिमार्जित और संशोधित आलेख का हिंदी अनुवाद है जो अबतक अप्रकाशित है। यह सम्पूर्ण शोध पत्र पाठकों की जानकारी के लिए एवं उनके विचारार्थ (माननीय तलगेरी जी की सहमति से) प्रस्तुत किया जा रहा है। ]
सच कहें, तो भारत ही नहीं, वरन समस्त भारोपीय (भारत-यूरोपीय) भूभाग का प्राचीनतम ग्रन्थ है – अपना ‘ऋग्वेद’। भारोपीय और भारतीय सभ्यताओं के पुरातन इतिहास का सुराग पाने में इस ग्रन्थ की महत्ता का कोई सानी नहीं है। भारतीय इतिहास लेखन की सभी शैक्षणिक धाराओं में यह तथ्य सर्वमान्य है।
फिर भी, इस बात को लेकर तीव्र मतभेद उभरे हैं कि इतिहास में ऋग्वेद और उसके रचयिता वैदिक आर्यों की सही स्थिति क्या है और ऋग्वेद हमें इतिहास के उन पन्नों को टटोलने में किस सीमा तक सहायता करता है।
इस बात को ठीक-ठीक समझने के हमारे सामने दो नजरिये हैं:
१. ‘आक्रान्ता-आर्यों’ का परिप्रेक्ष्य
इसमें वैदिक आर्यों को एक आक्रामक प्रजाति समझा गया है। वैदिक साहित्य का यह अंतराल भारतीय इतिहास के प्रवाह की निरंतरता में एक ऐसा विराम माना गया है, जहाँ ‘हड़प्पा’ या ‘सिन्धु-घाटी’ नाम की एक पुरानी सभ्यता का अवसान होता है और उसकी जगह पर ‘आर्य’ नामक हमलावरों की एक नस्ल भारत के बाहर से आकर १५०० ईसा पूर्व में भाषा और धर्म आधारित एक सर्वथा नवीन सभ्यता का बीजारोपण करती है।
२. स्थानीय ‘भारतवंशी-आर्यों’ का परिप्रेक्ष्य
इसमें वैदिक आर्यों को भारत की मिट्टी में ही जन्मा भारतवंशी माना गया है और इनकी संस्कृति को भारत ही नहीं, बल्कि समस्त वैश्विक-सभ्यता का स्थानिक बीज और मूल माना जाता है।
‘आक्रान्ता-आर्य परिप्रेक्ष्य’ औपनिवेशिक काल में यूरोपीय विद्वानों की उस छानबीन पर आधारित है कि उत्तरी भारत की प्रमुख भाषाओं का संबंध ईरान, मध्य एशिया और यूरोप की भाषाओं से है। पिछली कुछ सदियों में हुए भाषाई अध्ययनों से ऐसा आभास मिलता है कि ये सारी भाषाएं आपस में मिलकर एक ‘भाषा-परिवार’ से अपना ताल्लुक रखती हैं। इस भाषा-परिवार का नाम ‘इंडो-यूरोपियन’ (भारोपीय) दिया गया है। पूर्व में इसे ‘आर्यन’ कहा गया था क्योंकि इस परिवार की दो प्राचीनतम कृतियों, भारत के ‘ऋग्वेद’ और ईरान के ‘अवेस्ता’, की रचना करने वाले अपने को ‘आर्य’ कहा करते थे।
उत्तर भारत की भाषाएँ यथा कश्मीरी, पंजाबी, सिन्धी, हिंदी, बंगाली, असमिया, उड़िया, गुजराती, मराठी आदि और साथ-साथ नेपाली तथा सिंहली भारोपीय भाषा-परिवार की ‘भारतीय-आर्य’ शाखा से उद्भूत हैं और वैदिक संस्कृत इसकी सबसे पुरानी मानी हुई और दर्ज की गयी भाषा है।
भारत की बाकी भाषाएँ अन्य पांच चिन्हित भाषा-परिवारों के सदस्य हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं: द्रविड़ (तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड़ आदि), ऑस्ट्रिक (संथाली, मुंडारी, निकोबारी, खासी आदि), चीनी-तिब्बती (लद्दाखी, लेपचा, मिती, गारो, नागा आदि), बुरुशास्की और अंडमानी ।
ये भारोपीय भाषाएँ बारह शाखाओं में विभाजित हैं: इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक, स्लाविक, अल्बानी, ग्रीक, एनाटोलियन, अर्मेनियाई, टोकारियन, ईरानी और भारतीय-आर्य। इनमें से दो, एनाटोलियन (मुख्यतः हिटाईट भाषाएँ) और टोकारियन अब विलुप्त हो गयी हैं और इनकी जानकारी अब मात्र पुरातात्विक अवशेषों में संरक्षित शाब्दिक अभिलेखों और संदर्भों से ही मिलती है। भाषाई साक्ष्य यह प्रदर्शित करते हैं कि इन बारह भाषाओं के आद्य और पैतृक स्वरूपों को बोलने वाले लोग एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में साथ-साथ रहते थे, जहाँ से ३००० ईसा पूर्व उन्होंने अलग होना शुरू किया।
भारोपीय भाषाओं की मूल मातृभूमि के भूगोल की तलाश में भटकते भाषाशास्त्रियों ने लगभग एक मत से जिस भूभाग की तलाश की है वह है – दक्षिणी रूस।
अ – इस बात से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय-आर्य भाषाएं या यूँ कहें कि सबसे पुरातन पैतृक भाषा, वैदिक संस्कृत, निश्चित तौर पर भारत के बाहर से ही आयी होगी।
ब – ३००० ईसा पूर्व अपनी तथाकथित मातृभूमि, दक्षिण रूस से इस भाषा के प्रस्थान और लगभग ६०० ईसा पूर्व बुद्ध के काल तक उत्तर भारत के विस्तृत भूभाग में इसकी व्यापक देशज उपस्थिति के मध्य के २४०० वर्षों के अंतराल को अंशांकित कर इन भाषाविदों ने यह तय किया कि भारत में इस भारतीय आर्य भाषा के कल्पित अवतरण का समय १५०० ईसा पूर्व है और ऋग्वेद, जो कि प्राक-बुद्धकालीन विशाल वैदिक साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है, का रचना काल १२०० से १००० ईसा पूर्व है।
स – हड़प्पा के उत्खनन-स्थलों की खोज २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुई। उनकी पुरातात्विक काल-गणना ३५०० ईसा पूर्व या इससे भी पहले से शुरू होती हुई की गयी जो पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर धीरे-धीरे १८०० ईसा पूर्व के आते-आते तक दम तोड़ती पायी गयी। इन स्थलों से उत्खनन में प्राप्त कलाकृतियों पर अंकित गुढाक्षरों को आज तक नहीं समझा जा सका है। किन्तु, इसका यह मतलब निकाल लिया गया कि भाषाई तौर पर यह एक अलग तरह की अज्ञात आर्य-पूर्व संस्कृति थी जिसे १५०० ईसा पूर्व में ‘हमलावर आर्य प्रजाति’ ने उखाड़ फेंका।
द – इन्हीं बातों ने ‘आर्य-हमला-सिद्धांत’ या ‘आर्य-आक्रमण-सिद्धांत’ (AIT – Aryan Invasion Theory) के परिप्रेक्ष्य का जन्म दिया। हमलावर आर्यों ने अपनी पहली चौकी पश्चिमोत्तर भारत में डाली। वहीं उन्होंने अपने प्रवेश के शुरुआती दौर में सबसे पुरानी कृति, ऋग्वेद, की रचना की। फिर, वहाँ से वे समूचे उत्तर भारत में पसरते चले गए। ऋग्वेद के क़रीब-क़रीब समानांतर ही ईरान में अवेस्ता की भी रचना हुई। इससे एक और सिद्धांत को बल मिला कि भारोपीय भाषाओं की बारह शाखाओं में से दो, भारतीय-आर्य और ईरानी, साथ-साथ ३००० ईसा पूर्व के आसपास दक्षिण रूस से प्रवासित हुए और मध्य एशिया में बहुत दिनों तक साथ-साथ पनपते रहे। यहीं पर उन्होंने ऋग्वेद और अवेस्ता की संस्कृतियों के बीज-तत्व के प्रारम्भिक तन्तुओं का विकास किया और फिर कालांतर में एक दूसरे से अलग हो गये। भारतीय-आर्य सप्त-सैंधव प्रदेश में घुस गये। यह आज के उत्तरी पाकिस्तान के वृहत पंजाब का क्षेत्र है। यहीं पर उन्होंने ऋग्वेद की रचना की।
यह परिकल्पना कुछ गम्भीर दोषों से संक्रमित है :
१- भारत के बाहर कहीं भी किसी भी सूरत में आद्य-भारोपीय या ऋग्वेद की भाषा या उसकी संस्कृति के कोई भी पुरातात्विक, शिलालेखीय या शाब्दिक अवशेष नहीं पाए गए हैं। चाहे दक्षिण रूस की बात कर लें, मध्य एशिया की बात कर लें या दक्षिण रूस से मध्य एशिया होते हुए सप्त-सैंधव प्रदेश के उनके भ्रमण-पथ की बात कर लें!
२- ऋग्वेद में कहीं भी किसी भी तरह की परदेस की बातों का लेशमात्र भी वर्णन नहीं मिलता है। भारत के बाहर की बात क्या करें, यहाँ तक कि उस भूली-बिसरी किसी भूमि का भी कोई ज़िक्र नहीं मिलता जिसने उनके मन में पूर्वजों की कोई स्मृति संजोकर रख दी हो। बल्कि, उल्टे ऋग्वेद के रचनाकारों ने अपनी इस महान कृति में उस पवित्र भूमि के प्रति अपनी सारी श्रद्धा-भावनाएँ उड़ेल कर रख दी हैं जिसकी गोद में बैठकर इसे रचा गया। ऋग्वेद की ऋचाएँ इस तथ्य का प्रबल उद्घोष करती हैं कि रचनाकार ऋषि इस वैदिक क्षेत्र के ही मूल निवासी थे।
३- भारोपीय भाषा बोलने वाले लोगों का सबसे पुराना साहित्यिक कलेवर ऋग्वेद को ही माना जाता है। यह भी माना जाता है कि वे बाहर से एक ग़ैर भारोपीय भाषायी क्षेत्र में आये। यह भी सत्य है क़ि वह क्षेत्र पहले से एक और पुरानी और समुन्नत सभ्यता, हड़प्पा की महान सभ्यता, का स्थल रह चुका था। किंतु, समूचे ऋग्वेद में कहीं भी किसी भी ऐसे व्यक्ति, ऐसी सत्ता, शत्रु या मित्र का कोई ज़िक्र नहीं मिलता जो इस बात का तनिक भी आभास दे सके कि उनका सरोकार द्रविड़, औस्ट्रिक, बुरुशास्की या किसी अन्य ग़ैर भारोपीय भाषाओं से हो। न तो किसी देशज-विदेशज संघर्ष जैसा कोई वृतांत मिलता है और न ही किसी ऐसी ऋचा से साक्षात्कार होता है जो यह संकेत करती हो कि उसके सर्जक उस भूमि के मूल बाशिंदे नहीं थे जहाँ उसे रचा गया हो।
४- यहाँ तक कि उस काल-खंड में भी स्थानीय नदियों और पशुओं के जिन नामों की चर्चा हुई है वे सभी भारतीय आर्य नाम हैं और पक्के तौर पर उनमें कोई द्रविड़, औस्ट्रिक, बुरूशास्की या अन्य ग़ैर भारतीय-आर्य-भाषा के नाम नहीं मिलते। संसार में कहीं भी और किसी भी तरह के आक्रमण की घटना में यह एक अनोखा दृष्टांत है।
५- अगर थोड़ी देर के लिए हम तथाकथित बाहरी आर्यों के हमले, उनके प्रवास और समूचे उत्तर भारत में उनके उत्तरोत्तर पसरने के प्रसंग पर अपनी आँखें मूँद भी लें तो भला इस तथ्य को नज़रंदाज़ कैसे कर सकते हैं कि न तो बाद के वैदिक साहित्यों में और यहाँ तक कि परवर्ती संस्कृत इतिहास परम्पराओं में भी, और न ही किसी ग़ैर भारतीय आर्य भाषा बोलने वाले समुदाय की उपस्थिति के रूप में, ऐसी घटना का कोई संकेत या आभासमात्र भी भला कहीं मिलता हो!
६- ऋग्वेद से पहले से लेकर बुद्ध तक के आर्य इतिहास की समूची प्रक्रिया को १००० साल की अवधि में निचोड़कर परोस देना पूरी तरह से भ्रामक, तथ्यों से बेमेल और सच्चाई से मुँह चुराना है।
इन सभी विसंगतियों के बावजूद आज सारे संसार में और भारत में भी बाहरी लोगों द्वारा भारत पर किए गए इस तथाकथित ‘आर्य-आक्रमण-सिद्धांत’ (एआइटी) को एक स्थापित ऐतिहासिक गल्प के रूप में पढ़ाया जा रहा है। इस साजिश के पीछे अंतराष्ट्रीय शिक्षा जगत का दबाव, भारत में स्थापित वामपंथी बुद्धिजीवियों का प्रभुत्व, हिंदू-विरोध का ज़हर और निहित राजनीतिक स्वार्थ है। फिर, यदि एरडोसी (ERDOSY,1995 x) के शब्दों में कहें तो ‘पिछली दो शताब्दियों की विराट विद्वता का बोझ है यह!’
इसका एक और कारण यह है कि इस कहानी के पारम्परिक कट्टर प्रतिद्वंद्वियों ने भी जो अपनी कहानी गढ़ी हैं, उसमें भी दो भारी ग़लतियाँ दिखती हैं :
१- एक तो वे इस बात को पुरज़ोर से नकारते हैं कि वैदिक भारतीय आर्य-भाषा एक ख़ास भारोपीय भाषा-परिवार की अनेक शाखाओं में से अपनी पहचान लिए एक अलग शाखा है जो दूसरे परिवार की द्रविड़, औस्ट्रिक सरीखे भाषा वाली भारतीय भाषाओं से भी अलग है। और तो और, वे समस्त भारोपीय भाषाओं का उत्स वैदिक भाषा में ही देखने लगते हैं।
२- दूसरे कि वह इस बात को पचा नहीं पाते कि ऋग्वेद के भौगोलिक संदर्भों से यह साफ़ है कि उत्तर भारत का एक सीमित भूभाग ही जो पूरब में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा से लेकर पश्चिम में अफगनिस्तान की सीमा को छूता है, वैदिक आर्यों का निवास था और शेष भारत में, उस काल में अन्य लोग भी निवास करते थे जो उन वैदिक आर्यों से भिन्न थे। बाद के वैदिक साहित्य में, इस क्षेत्र के भौगोलिक विस्तार के कारणों का पता चलता है जो कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के प्रसंग में समाहित हैं।
भरसक एआइटी की मुख़ालफ़त करने वाले तो एक जगह इसके हिमायतियों से सुर में सुर मिलाते नज़र आते हैं, जब वे यह मानने लगते हैं कि शेष भारत और हिन्दू सभ्यता के लिए वैदिक भाषा और संस्कृति एक तरह की ‘पूर्वजों द्वारा दी गयी पैतृक संस्कृति’ है। उदाहरण के तौर पर, आज की ‘आर्य-भाषा’, हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के वे तत्व जो ऋग्वेद या अन्य वैदिक संहिताओं में नहीं पाए जाते, उन्हें वे वैदिक भाषा, धर्म और संस्कृति से विकसित होने वाले ‘बाद का’ अर्थात ‘परवर्ती’ स्वरूप मानते हैं। इस तरह का नज़रिया तो फिर ‘आर्य-आक्रमण-सिद्धांत’ अर्थात एआइटी को मानने के सिवा और कोई चारा भी नहीं छोड़ता।
अतः भारत के इस प्राचीन इतिहास का बिलकुल सही और तर्कसंगत संदर्भ में अन्वेषण करने के लिए हमें कुछ मूल बातों को भली-भाँति समझना होगा :
१- वैदिक-आर्य’ कौन थे? – सही पड़ताल,
२- ऋग्वेद का सही रचना काल,
३- ऋग्वेद की ऋचाओं से झाँकते भौगोलिक साक्ष्य,
४- अन्य भारोपीय शाखाओं के अप्रवासन का इतिहास और
५- भारत में वैदिक धर्म के प्रसार की प्रकृति।
अंग्रेज़ी में लिखे हमारे हाल के दो लेखों ‘India’s Unique Place in the World of Numbers and Numerals’ (संख्या और अंकों की दुनिया में भारत की ख़ास जगह) और ‘The Elephant and the Proto-Indo-European Homeland’ (हाथी और प्राक-भारोपीय मातृभूमि) में इस बात के बहुत ही महत्वपूर्ण, ठोस, अत्यंत अर्वाचीन और निर्णयात्मक सबूत पेश किए हैं जो इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि आर्य कहीं बाहर से भारत आये नहीं थे, बल्कि भारत से वे बाहर गए थे। इसे ‘Out of India Theory’ (भारत से आर्यों का बहिर्गमन सिद्धांत) कहते हैं। उन साक्ष्यों के सारांश यहाँ दो परिशिष्टों में प्रकट होंगे।
६- परिशिष्ट १: भारोपीय संख्याओं और अंकों का साक्ष्य
७- परिशिष्ट २: जंतुओं और वानस्पतिक नामों का साक्ष्य
और अंत में, दो और परिशिष्ट जो २० जुलाई २०२० को ग्रंथसूची के नीचे जोड़े गए।
८- परिशिष्ट ३: विद्वत शास्त्रार्थों के कपटपूर्ण अखाड़े
९- परिशिष्ट ४: जाली ‘जेनेटिक (आनुवंशिक) साक्ष्य’
१ – वैदिक-आर्य’ कौन थे? – सही पड़ताल
‘आर्य-आक्रमण-सिद्धांत’ के अनुसार वैदिक आर्य पश्चिमोत्तर भारत में और उसके उत्तर-पश्चिम से एक बिलकुल अ-भारोपीय भू-भाग में घुसे थे। उन्होंने इस क्षेत्र के मूल निवासी जो ‘हड़प्पा के लोग’ थे, उनको भाषायी और सांस्कृतिक तौर पर उखाड़ फेंका। यह क्षेत्र ‘सप्त-सैंधव’ या ‘सात नदियों का देश’ या ‘वृहत पंजाब’ के नाम से जाना जाता है जो प्रमुख तौर पर आज उत्तरी पाकिस्तान का भाग है। इसी क्षेत्र में उन कथित हमलावरों ने ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना की। तदोपरांत वे शेष भारत में पसरते चले गए और जल्दी ही उन्होंने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को अपना उपनिवेश बनाकर वहाँ अपने धर्म, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति की सत्ता स्थापित कर ली। उनकी भाषा, वैदिक संस्कृत, विकसित होकर आज की भारतीय-आर्य-भाषा बन गयी और उनका वैदिक धर्म फैलकर आज का हिन्दू धर्म बन गया।
इस आक्रमण-सिद्धांत के विरोधी इस सिद्धांत के शुरू की बातों को अस्वीकार करते हैं और वैदिक आर्यों को हड़प्पा-वासियों की तरह ही देशज निवासी मानते है, अप्रवासी नहीं। लेकिन वे भी आज की भारोपीय भाषाओं को वैदिक भाषा का वंशज और आज के हिन्दू धर्म को वैदिक धर्म की संतति मानते हैं। ऐसा करते समय या तो वे ऋग्वेद के भौगोलिक साक्ष्यों की अवहेलना करते हैं या फिर इसे अस्वीकार करते हैं। बात बस केवल इतनी-सी है कि ऋग्वेद के भूगोल की सीमा पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उससे हटकर थोड़ा और पश्चिम और उत्तर पश्चिम के बीच सिमटा हुआ है। इसलिए उनके नज़रिये में, हालाँकि स्पष्ट तौर पर इसका कहीं उल्लेख नहीं है, ये भारत के ही उत्तर-पश्चिम में रहने वाले वैदिक-आर्य शेष भारत के भीतर घुस गए और इन्होंने अपना उपनिवेश बनाकर अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति उस सम्पूर्ण क्षेत्र पर थोप दी जो पूरी तरह से मूलतः अभारोपीय उत्तर भारत था। किंतु क्या ऋग्वेद की ऋचाओं में इस धुन की अनुगूँज मात्र भी है कहीं?
अब आइए पुराणों की बात करें। इसकी पारम्परिक गाथा अपने मिथकीय सम्राट, मनु वैवस्वत, से प्रारम्भ होती है जो समस्त आर्यावर्त पर शासन करते थे और जिन्होंने कथित तौर पर अपनी समस्त भूमि अपने दस पुत्रों के बीच बाँट दी थी। फिर भी, यदि पौराणिक वृतांतों के विस्तार में जाएँ तो आर्यावर्त के उसी भूभाग का उल्लेख मिलता है जो विंध्य पर्वत के उत्तर में है। और साथ ही, इस भूभाग का इतिहास उनके दो पुत्रों, इक्ष्वाकु और इला, के इर्द-गिर्द ही घूमता है। इक्ष्वाकु के वंशज ‘सूर्यवंशी’ और इला के वंशज ‘चंद्रवंशी’ कहलाते हैं। आठ अन्य पुत्रों की संततियों की कथाएँ या तो पूरी तरह से ग़ायब हैं या फिर कथाकर की लापरवाही का शिकार बन केवल भ्रम का वितान तानने के लिए इक्ष्वाकुओं और इलाओं के आख्यानों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। चाहे ‘आक्रांता-आर्य’ सिद्धांत के अनुयायी हो या ‘देशज-आर्य’ सिद्धांत के पैरोकार, दोनों इस बात पर एकमत हैं कि अपने पूर्वजों का नाम ढोने वाली बहुतेरी जनजातियाँ वैदिक-आर्यों की संततियाँ हैं या फिर, उन्हीं के कुल-खंड का ही अंश हैं।
फिर भी पुराणों के भूगोल से एक बात साफ़ है कि इक्ष्वाकु की वंशज-जनजातियाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में फैली हुई थी। इला के वंशज पाँच जनजातीय समूहों में विभाजित थे। परवर्ती पौराणिक वृतांतों से यह पता चलता है कि इला के ही वंशज, ययाति, की संतति ये पाँचों जनजातियाँ थी :
क- हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश की निवासी, ‘पुरु’ जनजाति,
ख- उत्तर में कश्मीर और इसके आस-पास के क्षेत्रों की निवासी, ‘अणु’ जनजाति,
ग- वृहत पंजाब के पश्चिमी क्षेत्रों की निवासी, ‘दृहयु’ जनजाति,
घ- गुजरात के दक्षिण पश्चिम, राजस्थान और पश्चिमी मध्य प्रदेश में रहनेवाली ‘यदु’ जनजाति और
ङ- दक्षिण पूर्व भारत की निवासी, तुर्वसु’ जनजाति। ये यदुओं की रिहाइश से पूरब दिशा के क्षेत्रों में रहती थीं, जिन्हें अभी ठीक-ठीक तरह से चिन्हित नहीं किया जा सका है।
मनु के अन्य आठ पुत्रों के ठिकानों की सही-सही जानकारी पुराणों में नहीं मिलती है। तुर्वसु का भी यहीं हाल है, जिनका ज़िक्र भी अक्सर यदुओं के साथ ही आता है। पौराणिक साहित्य, महाकाव्यों और परवर्ती-परम्परा की कथाओं का भी पूरा ज़ोर उत्तरी भारत की पुरु और इक्ष्वाकु कुल-खंडों और उनके दक्षिण पश्चिम बसे यदुवंशियों पर ही है। धृह्यू जनजाति के विषय में पीछे की बातों का वृतांत तो मिलता है लेकिन आगे चलकर परिदृश्य से वे पूरी तरह ग़ायब दिखते हैं। इसके कारणों पर आगे चलकर हम प्रकाश डालेंगे। अणु जनजाति को अपेक्षाकृत पुराणों में कम जगह मिली है। इसके भी कुछ स्पष्ट कारण हैं जिनकी पड़ताल हम आगे करेंगे।
अब क्या ऋग्वेद के आँकड़ों से इस बात की पुष्टि हो पाती है कि ‘वैदिक-आर्य’ ही इस समस्त पौराणिक समुदायों के पूर्वज थे, या फिर ये सभी पौराणिक जनजातीय समुदाय ‘वैदिक आर्यों’ के ही अवयवी अंग थे? इसमें पहला परिदृश्य तो बिल्कुल सही नहीं जँचता क्योंकि ऋग्वेद इन सभी जनजातियों को अलग-अलग परस्पर असंबद्ध समुदाय के रूप में चित्रित करता है। दूसरी बात तो और गले नहीं उतरती क्योंकि ‘वैदिक आर्य’ की पहचान के रूप में स्पष्ट रूप से ऋग्वेद मात्र ‘पुरु’ जनजाति को ही इंगित करता है। एक बात और स्पष्ट रूप से ध्यान देने योग्य है कि पौराणिक वृतांतो से यह बिलकुल साफ़ है कि ‘पुरु’ जनजाति की मूल बसावट हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की वही भूमि थी जो ऋग्वेद के सबसे पुराने मंडलों (६,३ और ७) के सूक्तों का सृजन-स्थल है।
ऋग्वेद इस तथ्य का साफ़-साफ़ उद्घाटन करता है कि ‘पुरु’ ही वैदिक आर्य थे और उन्ही की एक विशेष उपजाति ‘भरत पुरु’ ने ऋग्वेद की ऋचाएँ रची और उनका निवास-स्थल भी हरियाणा और उसके आस-पास का ही भूभाग था जो छठे, तीसरे और सातवें मंडल का रचना-स्थल था। बाक़ी सभी दिशाओं में बसी पड़ोसी जनजातियाँ भारोपिय भाषाएँ बोलने वाली ‘आर्य’ जातियाँ तो थी पर वे अवैदिक अर्थात ‘अ-पुरु’ थीं।
पुराणों में वर्णित पुरुओं के विस्तार की गाथा ‘आर्यों’ से जुड़ी सभी ऐतिहासिक घटनाओं की विवेचना करती है।
अ – पुरु साम्राज्य के पाँचाल से काशी होते हुए मगध तक के पूर्वी विस्तार को ही पश्चिमी विद्वान ‘भारत में आर्यों के पश्चिम से पूरब की ओर फैलने’ के रूप में चित्रित करते हैं; अर्थात, पूरब की ओर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ऋग्वेद का क्षेत्र, और पूरब की ओर बढ़कर समूचा उत्तर प्रदेश यजुर्वेद का क्षेत्र और बंगाल को छूता समस्त बिहार अथर्ववेद का क्षेत्र।
ब – और ऋग्वेद तथा पुराणों में वर्णित पुरुओं के पश्चिम की ओर फैलने की घटना ने ही उस उत्प्रेरक भूमिका का निर्माण किया जिसकी वजह से अणु और दृहयु जनजातियों में भारोपीय भाषाएँ बोलने वाले लोगों का भारत से बाहर की ओर अप्रवासन हुआ। कालांतर में उन्हीं की बोलियाँ भारोपीय भाषा परिवार की अन्य ग्यारह शाखाओं में विकसित हुईं।
सबूत
ऋग्वेद में बार-बार ‘पंचजन’ अर्थात ‘पाँच जनजातियों’ का ज़िक्र आता है। इन ऐल जनजातियों – दृहयु, अणु, पुरु, यदु और तुर्वसु का पहले मंडल के १०८ वें सूक्त की आठवीं ऋचा (१/१०८/८) में एक साथ नाम आता है। ये नाम गणनात्मक ( जैसे पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल, बंगा) शैली या फिर दिशासूचक ( जैसे कश्मीर से कन्याकुमारी तक) शैली में ऋग्वेद में इन जगहों (१/४७/७, १/१०८/८, ६/४६/८, ८/४/१, ८/१०/५) पर उपस्थित होते हैं।
फिर भी छह जनजातियाँ अपनी स्पष्ट पहचान को लेकर ऋग्वेद में कैसे अवतरित होती हैं, वह इस प्रकार है :
१- १०/६/४ में सूर्य के विशेषण के रूप में ‘इक्ष्वाकु’ शब्द मात्र एक बार आता है।
२- ‘यदु’ और ‘तुर्वसु’ क़रीब १९ ऋचाओं में आते हैं। इनमें से १५ बार ये दोनों एक साथ युग्म स्वरूप में उपस्थित होते हैं, जैसे हम आम तौर पर किसी विशेष समुदाय को अलग से पहचान के रूप में बताते हैं। उदाहरण स्वरूप – यूपी-बिहारवाले, पंजाबी-सिंधी, गुजराती-मराठी आदि। और सबसे अचरज की बात तो यह है कि इन्हें एक ऐसे समुदाय के रूप में चित्रित किया गया है जो सुदूर प्रदेश में निवास करते हैं और वहाँ से उन्हें कई नदियों को पार कर वैदिक क्षेत्र में आना पड़ता है। कभी वे मित्र बनकर आते हैं तो कभी शत्रु बनकर!
३- सातवें मंडल के १८वें सूक्त (७/१८) में ‘दृहयु’ का उल्लेख मात्र एक बार आता है और वे ऋचाओं के रचयिता के शत्रु रूप में प्रकट होते हैं। ‘अणु’ भी चार ऋचाओं में वर्णित हैं। उसमें से दो (६/६२ और ७/१८) दोनों पुराने मंडलों में हैं। वे भी शत्रु ही बनकर आये हैं। शेष दो जगहों (५/३१ और ८/७४, दोनों नए मंडलों) में ‘अणु’ ‘भृगु’ के पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुआ है। भृगु का वर्णन ७/१८ में भी आता है। वह होता हैं और उन्होंने ही अग्नि-आहुति का अविष्कार किया है।
इन सबके विपरीत ‘पुरु’ सम्पूर्ण ऋग्वेद में आद्योपांत एक प्रमुख कर्ता के रूप में दिखायी देते हैं। वे ही ऋग्वेद के ‘वयम’ अर्थात ‘हम’ हैं। ४/३८/१ और ६/२०/१० में पुरु प्रथम पुरुष बहुवचन रूप में आते हैं। सारे वैदिक देवता पुरु के देवता हैं। ‘अग्नि’ तो पुरु को संतुष्टि प्रदान करने वाले एक निर्झर रूप में वर्णित हैं (१०/४/१), एक ऐसे ‘होता’ जो पुरु के समस्त पापों को भस्म कर देते हैं (१/१२९/५), पुरु के द्वारा पूजित एक ऐसे नायक (१/५९/६) जो उनकी समग्र आहुतियों के संरक्षक हैं (५/१७/१) और जो पुरु के शत्रुओं के दुर्ग को तहस-नहस कर देते हैं (७/५/३)। ‘मित्र’ और ‘वरुण’ युद्ध में पुरु के विशेष सहायक और शक्तिशाली मित्र (४/३८/१, ३; ३९/२) हैं। ‘इंद्र’ वह देवता हैं जिनका अनुग्रह पाने हेतू पुरु उन्हें आहुति देते हैं (६/२०/१०) और जिनको वह सोम अर्पित करते हैं (८/६४/१०)। इंद्र भी पुरु के शत्रुओं का वध करते हैं (४/२१/१०), पुरु की रणभूमि में सहायता करते हैं (७/१९/३) और पुरु के अरियों के क़िलों को नष्ट कर देते हैं (१/६३/७, १/१३०/७, १/१३१/४)। यहाँ तक कि वह पुरु से सिर्फ़ अपने लिए पृथक और अकेले आहुति माँगते हैं तथा बदले में उन्हें मित्रता, सुरक्षा और करुणा का वरदान देते हैं (१०/४८/५)। यह कुछ ऐसा ही है जैसा कि बाइबल के देवताओं द्वारा ‘अहल अल-किताब’ अर्थात यहूदियों को दिया गया वचन! ८/१०/५ में ‘अश्विन’ से प्रार्थना की गयी है कि अन्य चार जनजातियों ( दृहयु, अणु, यदु और तुर्वसु) को त्यागकर वह पुरु के पास आ जायें।
…………………………… क्रमशः ……………………………
– विश्वमोहन