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विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्धों में लोक भाषा का प्रयोग- एक विवेचन: सत्यप्रकाश तिवारी
विद्यानिवास मिश्र जी के निबंधों का विषय प्रमुखतः ‘लोक’ ही रहा है, चाहे वह लोकसंस्कृति हो या लोकपर्व एवं अनुष्ठान या लोकभाषा के प्रति रुझान। मिश्र जी का मन भारत वर्ष की उस श्रेष्ठता की तरफ हमेशा ही खिंचा रहता है, जहाँ से आज के मानव और उसकी संस्कृति का विकास हुआ है। लोकभाषा से मिश्र जी का आशय यह है कि एक ऐसी भाषा जो किसी कालखण्ड और अंचल में बोली जाती हो तथा उसमें परिनिष्ठता और बनावटीपन अभी न आया हो। लोकभाषा प्रमुखत: भाव प्रधान होती है। व्याकरण व शब्दप्रधान नहीं। मिश्र जी के निबंधों में प्राय:उन सभी शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो पूर्वी और उत्तरी उत्तरप्रदेश में आमजन द्वारा प्रयोग किये जाते हैं। इनके निबंधों में बोलचाल भाषा के शब्द ‘हो रहा’, ‘टिकोरा’, ‘परदेसी’, सावन-भादो’, ‘पच्छिम-दक्खिन’, ‘निहारना’ आदि शब्द बहुतायत मात्रा में उपलब्ध हैं। ‘मुरली की टेर’ निबंध में मिश्र जी की भाषा का एक उदाहरण दृष्टव्य है-
“हीरा-सागर की देई पुरइन पहिरे और गले में कँवलगट्टे की माला डाले बारहों मास घूमती है, ऐसा तो सुना बहुत था पर भर आँखों देखने का आज मिला। इतने में मैंने गौर किया कि उनके माथे पर पाटी में गुही हरसिंगार की लर और कदम्ब के फूल का टीका दोनों सरक गये हैं। देई की आँखे डबडबा आयीं पर गांव के दक्खिन नीम के नीचे, ऊँचे चबूतरे पर रात-भर चौकी करने वाली काली का दिल नहीं पसीजा और वे कड़क उठी- क्यों रे कँवलदेइया, मुझे रोज-रोज क्यों दिक करती है?”1
उपर्युक्त पंक्तियों में मिश्र जी ने कई शब्द जैसे- देई; पुरइन कँवलगट्टा, सरकना, दक्खिन, कँवलदेइया आदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया है। ये शब्द कहीं भी अखरते नही हैं बल्कि इनके प्रयोग से मिश्र जी के निबंधों में सरसता आ गयी है। एक ऐसी सरसता जो ग्राम्य जीवन तथा किसान जीवन के अलावा मिलना दुर्लभ है। इनके निबंधों में लोक-शब्द जो आमजन द्वारा प्रायः बोलचाल के रूप में पाये जाते हैं, अनेकश: प्रयोग हुआ है। अपने निबंध ‘रूपहला धुँआ’ में मिश्र जी कहते हैं-
“मैं घहरते हुए सावन-भादों में भी वहाँ गया हूँ और मैंने इस प्रपात के उदाम यौवन के उस महावेग को भी देखा है, जो सौ-डेढ सौ फीट की अपनी चौड़ी धारा की प्रबल भुजाओं में धरती के चटकीले धानी आँचर में उफनाते सावन को कस लेने के लिए आकुल हो जाता है।”2
मिश्र जी के लेखन में भाषा अपना रूप बदलते हुए भी प्रवाहमयी है। वह भाषिक आकर्षण का रूप बना हुआ है, पाठक जिसकी अपेक्षा करता है, चाहे वह मौसम वर्णन हो या प्रकृतिवर्णन या भारतीय संस्कृति हो या कोई लोक का परिदृश्य हो, प्रत्येक जगह भाषा अपनी उसी धार पर चलती हुई दिखाई देती है, जैसे प्रस्तुत गद्य में आया है घहरता हुआ सावन भादों और चटकीला धानी आँचर। प्रकृति की इतनी सुन्दर कल्पना तथा ऐसे शब्द जिसमें प्रकृति का भाव सुरक्षित हो, प्रयोग करने में मिश्र जी ने काफी कुशलता दिखाई है। विद्यानिवास मिश्र जी जब लोक परिदृश्य की ओर ले जाते हैं तो वह और अनूठा बन पड़ता है। अपने निबंध ‘प्रात तब द्वार पर’ में कहते हैं-
“मेरे गाँव के दक्खिन काली मााई का थान था। नीम की घनी छाँह में मिट्टी की दीवालों से बनी छोटी-सी कोठरी थी। कोठरी के ऊपर खपरैल पड़ी हुई थी, देवी की कोई मूर्ति नहीं थी। किसी के यहाँ कोई शुभ कार्य होता तो काली माई के थान पर माथा टेकने जरूर जाता और गाँव में महामारी आती, सूखा पड़ता, कोई भी विपदा पड़ती माई का थान जाग उठता।”3
इस एक अवतरण में मिश्र जी ने गांव के दृश्य से लेकर मनुष्य की आस्था और विश्वास तक को समाहित कर दिया है कि किस तरह से कोई एक देव या देवी स्थान (थान) होता है, जहाँ पर पूरे गांव वालों की श्रद्धा टिकी होती है। अन्ध श्रद्धा को मिश्र जी ने कहीं न कहीं स्वच्छ हृदय की निशानी भी माना है। वे यह कभी नहीं कहते कि अंध श्रद्धा की स्थापना हो, बल्कि वे यह कहते हुए दिखाई देते हैं कि यदि किसी को कह दिया जाए कि फलां पेड़ में बड़ी शक्ति है तो मान कौन रहा है, जिसे उस पर श्रद्धा हुई कि हो सकता है।
मिश्र जी ने अपने जीवन के कई वर्ष बाहर रहते हुए बिताये। वे जहाँ-जहाँ रहे वहाँ की संस्कृति उनके निबधों में अपने-आप आ गई। विंध्यप्रदेश में उन्होंने अपना काफी समय बिताया। अपने निबंध ‘गुजर जाती है धार मुझ पर भी’ में रपटा (एक छोटा पुल) के बारे में लिखते हैं-
“रपटा नदी से तटस्थ नहीं, नदी में अपनी परछाई वह नहीं निहारता पर वह नदी के उतने ही अंश तक संतुष्ट है, जितना उसकी छाती में समा पाता है। इसीलिए बरसात में जब पानी का रेला आता है। रपटा उसमें डूब जाता है पर उस रेले के साथ बहता नहीं। धार उसके ऊपर से गुजर जाती है और रपटे की सारी धूल धोकर उसे निर्मल कर देती है।”4
विंध्यप्रदेश में रहते समय मिश्र जी का परिचय रपटों से हुआ, जिसे हम आम बोल-चाल में छोटी पुलिया कहते हैं, जो सड़को के नीचे से बहुत ही कम ऊँचाई पर बनी होती है। वे कहते हैं कि रपटा नदी में अपनी परछाई नहीं निहारता अर्थात उसके लिए अपनी एक स्थिति है, उसका अस्तित्व उसके लिये मायने रखता है। यहाँ पर मिश्र जी ने लोकभाषा से कई शब्द ग्रहण किये हैं, जैसे ‘रपटा’, ‘निहारना’, ‘छाती’ आदि। विद्यानिवास मिश्र जब भी लोक का चित्रण करते हैं तो वे भावुक हो जाते हैं। मनुष्य से लेकर पेड़-पौधों तक उनकी भावनाएँ उमड़ती हुई दिखाई देती हैं। अपने निबंध ‘कटहल’ में वे कटहल के वृक्ष और उसके फल का वर्णन कुछ इस प्रकार करते हैं- “मेरे कछार में एक अतिशय संवेदनशील कटहल का पेड़ है और उसकी संवेदनशीलता सकारण है। कटहल वैसे ही बहुत संवेदनशील होता है। बसंत आते ही उसकी गाँठ-गाँठ से कल्ले फूटने लगते हैं। ये कल्ले चम्पे के कोरक बनते हैं और ये कोरक ही मखमली आवरण ओढ़कर लेढ़ा और फिर यदि बढे़ं तो कटहल के फल बन जाते हैं। फल सुदीर्घ होते हुए भी ऐसा ममताशील होता है कि डाल से लटकने के बजाय उसी से चिपका रहता है।”5
मिश्र जी ने इस निबंध में ऐसे-ऐसे लोकशब्दों का प्रयोग किया है कि उसकी जगह कोई और शब्द रख देना बेमानी प्रतीत होता है, जैसे गाँठ-गाँठ से कल्ले फूटना को संवेदनशीलता का प्रतीक माना गया है। इसकी जगह अन्य शब्द इसका स्थान ले ही नहीं सकता। ‘कल्ले फूटना’ शब्द अपने-आप में परिपूर्ण है। इतनी शक्ति किसी और शब्द में नहीं है और न ही इसका स्थान ले सकता है। यहाँ कटहल के पेड़ का पूरा-पूरा मानवीकरण कर दिया है।
विद्यानिवास मिश्र जी का लोक के त्यौहारों पर्व अनुष्ठान आदि से बड़ा लगाव है। फगुआ (होली) मिश्र जी के सर चढ़कर बोलता है। वे कहते हैं यही एक त्यौहार है, जिसमें ऊँच-नीच, भेद-भाव सभी कुछ समाप्त हो जाता है, मिश्र जी अपने निबंध ‘अब फगुवा किसे दें’ में कहते हैं-
“भ्रमरानन्द कहते हैं कि मैं फगुवा चढ़ाऊँगा नहीं पर मेरे ऊपर इतने फगुए चढ़े हुए हैं, उनका क्या करूँ? अमराइयों के बौरों से आती सुरभि की लहर-पर-लहर फगुवा चढ़ा गयी है। बार-बार कूक-कूककर कोयल अपनी पंचम तान चढ़ा गयी है। यहाँ तक कि जंगलो में पतझर के बाद नयी कोपलों के हौले-हौले एकदम बाहर निकलने का मौन फगुवा चढ़ा गया है। कितनी सगी से भी अधिक सगी गांव के रिश्ते की भाभियों ने गाल पर गुलाल मलकर फगुवा चढ़ाया है। यह सब कहाँ उतारूँ।”6
मिश्र जी भ्रमरानंद उपनाम से भी रचनाएँ करते थे। जब भी ये भ्रमरानंद नाम से लिखते हैं तो इनके लेखन और भाषा में एक प्रकार का व्यंग्य आ जाता है। कहा जा सकता है कि फगुवा के रंग की मादकता इनके ऊपर छा जाती है। फागुन का मौसम, कोयल की पंचम तान और रिश्ते में गांव की भाभियों का अल्हड़पन और मजाक की प्रवृत्ति से पूरे माहौल में अपनापन छा जाता है। फगुआ लोगों के दिलो में नया रंग भर देता है। यह उल्लास अन्य किसी पर्व-त्यौहार में नहीं है। मिश्र जी जब देखते हैं कि अपने देश की ही संस्कृति को महत्व न देते हुए लोग पाश्चात्य सभ्यता की ओर भाग रहें हैं, तो उन्हें बड़ा मलाल और दु:ख होता है। वे कहते हैं कि यदि संस्कृति अनुकरणीय और धारण करने योग्य है, तो वह है अक्षुण्य भारतीय संस्कृति। वे अपने निबंध ‘अभी-अभी हूँ अभी नहीं’ में कहते हैं-
“आदर्शों के गुफा मन्दिर में बैठता हूँ तो हर मूर्ति,हर शिल्प पट्टिका, हर चँदोवा, हर खम्भ, हर बार्जा, हर मेहराब पर एक तख्ती लगी पाता हूँ- ‘बिकाऊ है’। देश की संस्कृति का प्रत्येक उपादान निर्यात के लिए रेशम की डोरियो में बँध रहा है। गँवई -देहात पर भी निर्यात की सुदृष्टि हो चुकी है।”7
निष्कर्ष यह है कि विद्यानिवास मिश्र जी के निबंधों में लोकभाषा प्रत्येक जगह दिखाई देती है, चाहे वे वैचारिक निबंध हों या ललित निबंध। उनकी भाषा में जो एक प्रकार की गँवई गंध है, वह नई मिठास ला देता है। भाषा में दुरूहता की जगह एक मिठास के साथ प्रवाह भी आ जाता है। मिश्र जी संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, इसलिये इनकी भाषा में संस्कृत का अभिजात प्रभाव भी दिखलाई पड़ता है लेकिन उसकी वजह से भाषा बोझिल नहीं होने पायी है बल्कि पूरा वाक्य एक नये चाल में ढल गया है, जो देखते ही बनता है। मिश्र जी के निबन्ध भारतीय संस्कृति के जीवन्त दस्तावेज हैं। इनके निबंधों में सम्पूर्ण भारतीय समाज अपनी परम्परा एवं संस्कृति से सम्पृक्त दिखाई पड़ता है।
संदर्भ-
1. मिश्र, विद्यानिवास, व्यक्ति-व्यंजना, मुरली की टेर, पृ.- 49, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण 2007
2. वही, पृ.- 26
3. मिश्र, विद्यानिवास, गाँव का मन, ‘प्रात तब द्वार पर’ पृ.- 64, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1985
4. मिश्र, विद्यानिवास, ‘बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं’, ‘गुजर जाती है धार मुझ पर भी’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण चतुर्थ 2002
5. मिश्र, विद्यानिवास, ‘गाँव का मन’, ‘कटहल’, पृ.- 49, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985
6. मिश्र, विद्यानिवास, ‘व्यक्ति-व्यंजना’, ‘अब फगुआ किसे दें’, पृ.- 264 भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण 2007
7. मिश्र, विद्यानिवास, ‘बसंत आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं’, ‘अभी-अभी हूँ-अभी नहीं’ पृ.- 87 लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद संस्करण चतुर्थ 2002
– सत्यप्रकाश तिवारी