विकलांग विमर्श: ‘रंगभूमि’ के संदर्भ में
– पीयूष कुमार द्विवेदी
आधुनिक हिन्दी साहित्य में विभिन्न प्रकार के वंचितों को केंद्र में रखकर विमर्श किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप स्त्री विमर्श, बाल विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि से साहित्यागार परिपूर्ण है। विमर्श शब्द अंग्रेजी के ‘डिस्कोर्स’ का हिन्दी रूपांतरण है, जिसका शाब्दिक अर्थ है बोलना, अभिव्यक्ति, अपनी बात को दूसरे तक संप्रेषित करना या जीवन जीने का एक सार्थक तरीका। समाज में लाचारों की आवाज को सदैव दबाया गया है। उनके दुःख, दर्द और होने वाले अत्याचारों के नारकीय जीवन को साहित्य की परिधि में समेटना विमर्श कहलाता है। भारत में विकलांगों को वंचितों की श्रेणी में रखा जाता है और प्राचीन काल से ही उपेक्षित किया गया है। विकलांग किसी ऐसे व्यक्ति को कहते हैं, जो अंग या अंगों से रहित हो अथवा अंग रहते हुए भी कार्य करने में समर्थ न हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विकलांगता शब्द को सन 1980 में प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण परिभाषित किया था। जिसमें विकलांगता को हानि के रूप में स्वीकार किया गया है और यह व्यक्ति में निशक्तता के परिणाम स्वरूप होती है। जो व्यक्ति के सामान्य कार्य करने की क्षमता में कमी करता है या उसे रोकताहै। (यह उम्र, लिंग एवं सामाजिक सांस्कृतिक कारकों पर निर्भर करती है)1
अक्सर लोग अक्षमता और विकलांगता को एक ही समझ लेते हैं परंतु दोनों में पर्याप्त अंतर है। विकलांगता अक्षमता जनित बाधाओं को इंगित करती है। प्राय: बाधा अवश्यंभावी प्रभावी नहीं होती है बल्कि सामाजिक एवं वातावरण द्वारा प्रदत्त हो सकती है। इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से बताता हूँ, जैसे एक व्यक्ति, जो व्हीलचेयर में है, अक्षम तो है परन्तु विकलांग तभी है, जब वह एक मंदिर में जाना चाहता है, जिसमें सीढ़ियाँ हैं लेकिन रैम्प नहीं है।
भारत में विकलांगों की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या में से कुल 26, 810,557 विकलांग हैं, जिसमें 14,986,202 पुरुष हैं एवं 11,824,355 महिलाएँ हैं। भारत की कुल जनसंख्या में से 2.24 प्रतिशत विकलांगता की श्रेणी में आते हैं। जिसमें 2.43% पुरुष एवं 2.01प्रतिशत महिलाएं हैं।विकलांगों की विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत 18.8% सुनने की क्षमता, 18.9% दृष्टि दोष, 7.5 फीसदी बोलने संबंधी, 20.3% लोकोमोटर, 5.6 प्रतिशत मंदबुद्धि, 2.7प्रतिशत मानसिक बीमारी,18.4 प्रतिशत प्रतिशत अन्य प्रकार की विकलांगता तथा 7.9%एक या एक से अधिक प्रकार की शारीरिक या मानसिक विकलांगता से ग्रस्त हैं, आते हैं। इतने बड़े वर्ग की समस्याओं को हिन्दी साहित्य में बहुत अल्प मात्रा में वर्णित किया गया, यह एक आश्चर्य और खेद का विषय है। विकलांगों की समस्याओं एवं उनकी सामाजिक स्थिति को साहित्य के दायरे में सम्मिलित करने का श्रेय कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद को दिया जाता है।
हिन्दी साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचंद एक ऐसे नायाब रचनाकार हैं, जिनकी कलम की परिधि से कोई भी सामाजिक पहलू अछूता नहीं है। उन्होंने सामान्य से सामान्य विषय अथवा पात्र को अपने भावों-विचारों की कसौटी में कसकर विशिष्ट बनाया है। प्रेमचंद का साहित्य खासकर उपन्यास साहित्य समाज का साधारण दर्पण न होकर समय की गाड़ी में लगा वह दर्पण है, जो व्यक्ति को पीछे (अतीत) की गतिविधियों को दिखाकर उनसे सावधान रहकर आगे की ओर गतिमान रहने की प्रेरणा प्रदान करता है। “अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-व्यवहार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता।”2 प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘रंगभूमि’ (चौगाने-हस्ती) में ग्रामीण परिवेश में एक विकलांग को किन-किन समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है तथा उनकी सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक परिस्थितियाँ कैसी
है, उसका विशद वर्णन है। यह उपन्यास अक्टूबर 1922 से अप्रैल 1924 तक लिखा गया तथा 1925 ई. में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास का मुख्य पात्र सूरदास नामक एक दृष्टिबाधित नवयुवक है, जिसके संदर्भ में उपन्यासकार द्वारा की प्रारंभिक टिप्पणी भारतीय समाज की विकलांगों के प्रति संकीर्ण मानसिकता को प्रदर्शित करती है- “भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती है, न काम की। सूरदास उनका बना-बनाया नाम है और भीख माँगना बना-बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत-प्रसिद्ध हैं, गाने-बजाने में विशेष रूचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेम, उनके स्वभाविक लक्षण हैं। बाह्यदृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई।”3
सूरदास भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करने को मजबूर है। वह इससे मुक्ति के लिए बेचैन है परन्तु सामाजिक बाधाओं के कारण जीवन भर लगा रहता है। वह लोगों से प्राय: कहता है- “कोई जगह बताते, जहाँ धन मिलेगा और इस भिखमंगई से पीछा छूटे।”4 सूरदास स्वाभिमानी स्वभाव का धार्मिक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति है, जो कहता है- “भगवान ने जन्म दिया है, भगवान की चाकरी करता हूँ। किसी दूसरे की ताबेदारी नहीं हो सकती।”5
सूरदास सूक्ष्मदर्शी है, जो समाज और अध्यात्म की वास्तविकता से परिचित है, तभी तो कहता है- “साहब बैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की जरूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने और जटा बढ़ाने को पाखंड बताया है। बैराग तो मन से होता है। संसार में रहे, पर संसार का होकर न रहे, इसी को बैराग कहते हैं।”6
भारत में विकलांगता को बीमारी या कमी न मानकर पूर्व जन्म में किए गए पापों के परिणामस्वरूप दैवीय कोप के रूप में देखा जाता है। सूरदास भी अपने अंधत्व का कारण पूर्व जन्म के पापों को मानता है। जब मिसेज सेवक उसके अंधेपन का दोष भगवान पर मढ़ती है तो सूरदास कहता है, “भगवान अन्यायी नहीं है, मेरे पूर्व-जन्म की कमाई ही ऐसी थी। जैसे कर्म किए हैं, वैसे फल भोग रहा हूँँ। यह सब भगवान की लीला है। वह बड़ा खिलाड़ी है। घरौंदे बनाता-बिगाड़ता रहता है। उसे किसी से बैर नहीं। वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगा?”7
विकलांग के पास यदि धन-जमीन होती है तो लोग उसे छीनने के लिए कितने दाँव चलते हैं। यह रंगभूमि में दिखाया गया है। सूरदास के पास 10 बीघे से अधिक पुश्तैनी जमीन होती है, जिस पर जॉन सेवक की नजरें लगी होती हैं। वह वहाँ सिगरेट का कारखाना लगाना चाहता है लेकिन सूरदास गाँव की भलाई के लिए उस जमीन को बेचने के लिए तैयार नहीं होता क्योंकि गाँव भर के जानवर उसी जमीन पर चारा चरते हैं। अंंततः सरकारी साजिश करके सेवक सूरदास की जमीन 1000 मुआवजा देकर ले लेते हैं किंतु सूरदास उस पैसे को भी हाथ नहीं लगाता है।
उसके चरित्र में त्याग, धैर्य, दया का संगम दिखाई देता है। अक्सर देखने में आता है कि विकलांग आत्मनिर्भर तो होते ही हैं और दूसरे को भी सहारा
देने में गुरेज नहीं करते हैं। सूरदास अपने भाई के अनाथ लड़के मिट्ठू का पालन पोषण भी करता है, जो12-13 वर्ष का है। सूरदास चाहे भूखा सो जाए लेकिन मिट्ठू का पूरा ध्यान रखता है, उसके कारण पूरे मोहल्ले से टकरा जाता है। प्रेमचंद समाज की नब्ज टटोलने वाले साहित्यकार थे। उन्होंने समाज में विकलांगों
को मजाक का आलंबन बनते देखा था तभी तो सूरदास के दर्द को इन शब्दों में बयान किया है- “चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-कीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधेरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने में देर होती, उस दिन विपत्ति में पड़ जाता था। सड़क पर राहगीरों के सामने उसे कोई शंका न होती थी, किंतु बस्ती की गलियों में पग-पग पर किसी दुर्घटना की शंका बनी रहती थी। कोई उसकी लाठी छीन कर भागता, कोई कहता सूरदास सामने गड्ढा है, बायीं तरफ हो जाओ। सूरदास बाएँ घूमता तो गड्ढे में गिर पड़ता।”8 ऐसे दृश्य आज भी देखने मिलते हैं, जिसका मुख्य कारण विकलांग को समाज का अंग न मानकर दया का पात्र समझा जाता है। जिसके कारण बच्चों को ऐसे संस्कार नहीं मिल पाते कि वे विकलांगों का मजाक न उड़ाकर सहयोग की भावना से देख सकें।
विकलांगों का संपूर्ण जीवन दूसरों के ताने और लाचारी की नींव पर टिका होता है। सूरदास के चरित्र पर जब भैरो द्वारा चिढ़कर लांछन लगाया गया तो वह अपनी लाचारी प्रकट करते हुए कहता है- “मैं अपाहिज, दूसरों के टुकड़े खानेवाला और मुझ पर यह कलंक!”9
जब सूरदास अपनी पैतृक जमीन बेचने से मना कर देता है तो प्रभु सेवक झूठा आरोप लगाकर उन पर फौजदारी करने की साजिश रचने का आरोप मढ़ता है तो सूरदास जिस लहजे में जवाब देता है, उससे समाज में विकलांगों पर होने वाले अत्याचारों को चुपचाप सहने की विवशता झलकती है, “कैसी फौजदारी हुजूर? मैं अपंग-अपाहिज आदमी, भला क्या फौजदारी करूँगा?”10
सूरदास के झोपड़ी की ज़मीन को भी सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया और उसको मिस्टर क्लार्क की गोली का शिकार होना पड़ा। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद जी लिखते हैं- “आत्मबल पशुबल का प्रतिकार न कर सका।”11 अर्थात् विकलांग आत्मबल से
लबालब होते हैं पर हालात की मार और लोगों की उपेक्षा के कारण टूट जाते हैं। सूरदास की मौत पर प्रेमचंद ने उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा- “वह यथार्थ में
खिलाड़ी था- वह खिलाड़ी, जिसके माथे पर कभी मैल नहीं आया, जिसने कभी हिम्मत नहीं हारी, जिसने कभी कदम पीछे नहीं हटाए। जीता तो प्रसन्नचित, हारा तो प्रसन्नचित रहा, हारा तो जीतनेवाले से कीना नहीं रखा, जीता तो हारने वाले पर तालियाँ नहीं बजाईं। जिसने खेल में सदैव नीति का पालन किया, कभी धांधली नहीं की कभी द्वंद्वी पर छिपकर चोट नहीं की। भिखारी था, अपंग था, अंधा था, दीन था, कभी भरपेट दाना नहीं नसीब हुआ, कभी तन पर वस्त्र पहनने को नहीं मिला, पर हृदय धैर्य और क्षमा,सत्य और साहस का अगाध भंडार था। देह पर मांस न था, पर हृदय में विनय, सील और सहानुभूति भरी हुई थी।”12 सूरदास अदम्य जीवटता का परिचायक है। एक अंधा भिखारी अकेला पूरी व्यवस्था से लड़ने का साहस रखता है, भटके हुए को राह दिखाता
है, धुर विरोधियों को भी अपना कायल बना लेता है और जीवन के अन्तिम क्षण तक अपने आदर्शों से बिना रत्ती भर डिगे हजारों लोगों का नेतृत्व करता है। नायक भला और क्या करता है? सूरदास न केवल नायक है बल्कि प्रेमचंद की तमाम रचनाओं में उनका सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि भी है।”13
‘रंगभूमि’ उपन्यास को विकलांग जीवन का महाकाव्यात्मक उपन्यास कहना उचित होगा क्योंकि उपन्यास में विकलांग जीवन और समाज को उसकी सम्पूर्णता में दिखाया गया है।
संदर्भ-
1. निशक्तता का परिचय (2011), उ.प्र.राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।
2. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास (छ्ठा संस्करण, छठी आवृत्ति), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली., पृ-228-230
3. प्रेमचंद, रंगभूमि, प्रकाशक- रजत प्रकाशन मेरठ, पृष्ठ-7
4. वही,
5. (वही, पृष्ठ-10)
6.वही, पृष्ठ-11
7.वही, पृष्ठ-11
8. वही, पृष्ठ-43
9. वही, पृष्ठ- 89
10. वही, पृष्ठ- 98
11. वही, पृष्ठ- 365
12. वही, पृष्ठ- 382
13. डॉ. ए. दीप, बोल बिहार (वेबसाइट)
– पीयूष कुमार द्विवेदी