विशेष
वर्षा ऋतु का महीना अथया ‘पावस ऋतु’: श्रावण
– प्रीति राघव प्रीत
‘बदरा छाये कि झूले पड़ गये हाय कि
मेले लग गये मच गयी धूम रे कि…आया सावन झूम के’
जी हाँ ‘श्रावण मास’ प्रेम, हर्षोल्लास, व्रत, काँवड, उत्सव, झूले, घेवर, उत्साह, हरियाली, बारिश, मन-मयूरा और सतरंगी छँटा बिखेरता महीना। कहते हैं ये प्रेम का महीना है। न जाने हमारी बॉलीवुड फिल्मों में कितने ही गीत सावन की विरह, अगन, मिलन पर बन पड़े हैं मगर मेरा सबसे पसंदीदा बचपन से अब तक एक ही है- ताराचंद बड़जात्या की फिल्म ‘नदिया के पार’ से-
‘झूला तो पड़ गये अमुआ की डार पै जी
ऐ जी कोई राधा को गोपाला बिना राधा को झुलावै झूला कौन, धीरज धर लै मन समझाय लै री
ऐ जी अगले सावन में राधा जी अगले सावन में झूलेंगे कान्हा संग’
बचपन की बड़ी मीठी-सी याद जुड़ी है इससे। जैसे ही सावन शुरू होता दादी माँ आँगन में पटरी वाले झूले डलवा देतीं और हम सबको इस गीत के संग और एक लोकगीत बच्चों वाला गाना होता-
‘जामुन के पेड़ के नीचे खोयो मेरो बटुआ,
बब्बा की बहू ने चुरायो मेरो बटुआ”
झूले पर बैठकर और जो पूरे गा ले दोनों गीत उसे दादी माँ पैसे देती थीं।
ख़ैर समय बदला, रीति-रिवाज भी बदले और आज शहरों की जीवनशैली के तेज़ी से परिवर्तन में पुराने रीति-रिवाज व त्यौहारों, तिथिओं का महत्व बहुत कम ही शेष है मगर सावन आज भी वैसा ही मस्तमौला बहार लिये आता है। हर गली, मौहल्ला, गाँव, कस्बा, नगर, शहर सब तर हो जाते हैं हरियाली खुशियों में डूबकर।
वैसे हिन्दू धर्म में इस माह का विशेष स्थान है। श्रावण अथवा सावन हिन्दू पञ्चांग के अनुसार वर्ष का पाँचवा महीना है। इसे वर्षा ऋतु का महीना या ‘पावस ऋतु’ भी कहा जाता है। इसे ‘मासोत्तम मास’ भी कहते हैं। हमारे देश में हर महीना किसी न किसी देवता को समर्पित रहता है तो श्रावण के महिमामयी देव भगवान शिव माने जाते हैं। व्रत व त्यौहारों की धूम रहती है महीने भर जैसे- हरियाली तीज, रक्षाबन्धन, गोवर्धन पूजा, अन्नकूट प्रसादम्, नागपंचमी, कामिदा एकादशी, पुत्रदा एकादशी आदि। कुछ लोग तो पूरे महीने भर ही शिव की पूजा-आराधना तथा व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिवजी के व्रतों, पूजा व आरती का विशेष फलकारक महत्व है।
श्रावण पूर्णिमा को दक्षिण भारत में नारियली पूर्णिमा व अवनी अवित्तम, मध्य भारत में कजरी पूनम, उत्तर भारत में रक्षाबन्धन और गुजरात में पवित्रोपना के रूप में मनाया जाता है। श्रावण के हर सोमवार को ‘सावन के सोमवार’ कहते हैं। इस दिन स्त्रियाँ तथा विशेष तौर से कुंवारी युवतियाँ भगवान शिव के निमित्त व्रत आदि रखती हैं। मान्यता है कि शिव प्रसन्न होकर इच्छित वर और घर प्रदान करते हैं। मुझे याद है जब हम छोटे थे तब मौहल्ले की सारी लड़कियाँ और महिलाएँ हमारे घर इकट्ठा होकर फिर दादी, माँ और चाची संग मंदिर जाया करतीं टोली में और कांवड़िये यात्रा पर निकलते। दादी और हमारा परिवार कांवडियों की सेवा भी करता था बल्कि मेरी छोटी बहिन के पतिदेव कांवडियों को भोजन पानी करवाते हैं अलीगढ़-बुलंदशहर के रास्ते में।
कुछ पौराणिक कथाएँ, जो सदा ही कानों में पड़ती रहीं और अब हर सावन का अभिन्न अंग बन चुकी हैं। कि- जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो बाबा बर्फानी ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग करते समय देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रहकर कठोर व्रत किये और शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष प्रिय माह हो गया।
इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा के अनुसार, ऋषि मरकंडू के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तपस्या कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे। भगवान शिव द्वारा सावन का महीना प्रिय होने का अन्य कारण यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपने ससुराल गए थे और वहाँ उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था, अब भी मान्यता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपने ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम फलदायी समय होता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार यह भी सुनने में आता है कि इसी सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था और समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की परंतु विषपान से महादेव का कंठ नीला हो गया। इसी से उनका नाम ‘नीलकंठ महादेव’ पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन पर जल अर्पित किया। इसलिए ही शिवलिंग पर जल चढ़ाने का विशिष्ट महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में शिवलिंग पर जल हर उम्र के नारी व पुरुष चढ़ाते हैं।
‘शिवपुराण’ में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल तत्व हैं। इसलिए जल से उनका अभिषेक रूपी आराधना उत्तमोत्तम फल प्रदायक है, जिसमें कोई संशय नहीं है। शास्त्रों में वर्णित है कि सावन महीने में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं, इसलिए ये समय भक्तों, साधु-संतों व साधकों-योगिओं सभी के लिए अमूल्य होता है। इस माह करे जाने वाले वैदिक यज्ञ को एक प्रकार का पौराणिक व्रत, जिसे ‘चौमासा’ भी कहा जाता है, तत्पश्चात् सृष्टि के संचालन का भार शिव ले लेते हैं इसलिए सावन का प्रधान देवता भगवान शिव को माना जाता है।
यही नहीं इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र में जल स्तर को सामान्य रखने की एक अनोखी प्रथा करते हैं। लोग सावन के महीने में समुद्र में जाकर नारियल अर्पण करते हैं ताकि किसी प्रकार का कोई नुकसान नहीं पहुंच पाए। एक पौराणिक कथा धार्मिक हिन्दू दस्तावेजों में मौजूद है, जिसके अनुसार समुद्र मंथन के दौरान निकले विष का पान करने से भगवान शिव के शरीर का तापमान तेज गति से बढ़ने लगा था। ऐसे में शरीर को शीतल रखने के लिए भोलेनाथ ने चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया और अन्य देव उन पर जल की वर्षा करने लगे। यहाँ तक कि इन्द्र देव भी यह चाहते थे कि भगवान शिव के शरीर का तापमान कम हो जाए इसलिए उन्होंने अपने तेज से मूसलाधार बारिश कर दी। इस वजह से सावन के महीने में अत्याधिक बारिश होती है, जिससे भोलेनाथ प्रसन्न होते हैं।
इन दिनों विक्रमादित्य की नगरी या कहूँ महाकाल की नगरी उज्जयिनी अर्थात् उज्जैन में शिव पूजा की छँटा देखते ही बनती है। यहाँ का रूद्राभिषेक मन को ऐसा रमा लेता है कि बोल निकल पड़ें ‘मिलता है सच्चा सुख केवल शुरू शिवजी तुम्हारे चरणों में, ये विनिती है पल छिन छिन की रहे ध्यान तुम्हारे चरणों में’।
ख़ैर मैं आडंबरी नहीं पर धार्मिक बहुत हूँ सो मेरा ये बर्ताव तो सहज ही उभर आता है। शिवलिंग का रुद्राभिषेक महाशिवरात्रि पर बहुत विधिवत करती भी हूँ। इक प्यारी बात याद हो आई- सावन की तीज पर हमारे राजस्थानी/हरियाणवी राजपूतों में सुहाग का श्रृंगार नया पहनने का चलन है। काँच की चूड़ियाँ, बिछिये, पायलें और चूनरी हम नयी डालते हैं और मुँह मीठा करते हैं घेवर व चूरमा से।
मेरी बेटी जून आखिर में पैदा हुई थी और जल्दी ही उसके लिये तीज माता भी आई तो पहली बार नन्ही परी के लिये ढूँढ के लखनऊ से खास काँच की बहुत छोटी-छोटी लाल चूड़ियाँ मंगाई गयीं और उसकी नन्ही कलाई में चढा दी गयीं ज़रा देर को शगुन के तौर पर। वो चूड़ियाँ आज भी सहेज रखी हैं मैंने जबकि बिटिया अब किशोरावस्था में कदम रख चुकी है।
एक अलहदा पहलू जो मेरा हर विषय से जुड़ा रहता है वो ये कि मैं विज्ञान की विद्यार्थी रही हूँ तो विषयवस्तु से पौराणिक या भावनात्मक जुड़ाव के अलावा वैज्ञानिक तथ्य भी मुझे बरगलाते हैं मन-मंथन को तो वही तथ्य समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ कि सावन माह में व्रत पूजा के बहाने इतनी रोक-टोक व परहेज क्यूँ रहता होगा भला। पौराणिक मान्यताओं से विलग आएँ तो हैं, माँसाहार से क्यों परहेज होता है इसके पीछे का कारण धार्मिकता के अलावा वैज्ञानिक भी है।
गौरतलब सावन के पूरे माह में ख़ूब बारिश होती है जिससे बरसाती कीड़े-मकोड़े सक्रिय हो जाते हैं व इनका जननकाल भी यही है इसलिये बाहर हाइजीन न होने से भोजन, पानी में इनके लार्वी हमारे भीतर आ सकते हैं। पालनबाड़ों में पशु-पक्षियों की साफ-सफाई का विशेष ध्यान नहीं रखा जाता, जिससे संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। हमारे आयुर्वेद में भी यह कारक बताया गया है।
श्रावण मास प्रेम व कई प्रजातियों के प्रजनन का महीना भी है। इस माह में कीट-पतंगे, मछलियाँ, पशु, पक्षी सभी में गर्भाधान की तीव्रता होती है और किसी भी गर्भवती मादा की हत्या हिन्दू धर्म में एक पाप माना गया है इसलिए सावन के महीने में जीव हत्या कर के पकाना पाप माना जाता है। तो कह सकते हैं कि रिवाजों और मान्यताओं के संग विज्ञान ने भी अपना तारतम्य बनाकर इस राग-अनुराग के महीने को और विशिष्ट बना ही दिया है।
यदि आप पौराणिक पर भरोसा न करें तो अपनी व किसी निरीह की सेहत व जीवन का खयाल कर माँसाहार से बचें। शाकाहार व सात्विक पर अटल होकर त्यौहार के इस मंगलमय महीने को और भी चौगुने उल्लास से मनायें।
इति शुभ…श्रावण मास की हरियाली शुभेच्छाएँ।
– प्रीति राघव प्रीत