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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में डाॅ. राधाकृष्णन के विचारों की प्रासंगिकता: अम्बरीन आफताब
“हर्ष और आनंद से परिपूर्ण जीवन केवल ज्ञान और विज्ञान के आधार पर संभव है।”- डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
मनुष्य प्रकृति का सबसे सभ्य व बुद्धिमान प्राणी है और उसके विकास की प्रथम सीढ़ी है- शिक्षा। अगर यह कहा जाए कि शिक्षा के बिना समस्त जीवन अधूरा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वास्तव में, शिक्षा ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। जिस प्रकार, एक पौधे का विकास कृषि की विविध प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य, शिक्षा के विभिन्न आयामों के द्वारा विकास के उच्चतम सोपानों को प्राप्त करता है। वस्तुतः “शिक्षा तो राष्ट्रीय भवन का मूलाधार है, विशेषकर विकासशील देशों के लिए, जो इस चुनौती का सामना कर रहे हैं कि पिछली त्रुटियों को ठीक किया जाय और आज की बौद्धिक क्रान्ति के साथ भी कदम-से-कदम मिलाकर चला जाए। शिक्षा उस महत्वपूर्ण संसाधन का बोध कराती है, जिसमें सभी राष्ट्रों की समान साझेदारी होती है, चाहे वे राष्ट्र बड़े हों या छोटे, उन्नत हों या पिछड़े।”1 ऐसी दिशा में केवल शिक्षा ही वह साधन है, जिसके द्वारा संकीर्णता को दूर करके विशाल हृदयता की भावना को विकसित किया जा सकता है। स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में- ‘‘राष्ट्रीय एकता के प्रश्न में जीवन की प्रत्येक वस्तु आ जाती है। शिक्षा का स्थान इन सबसे ऊपर है और यही आधार है।‘‘2 इस प्रकार शिक्षा ही वह प्रकाश पुंज है जिसके माध्यम से समस्त संसार में ज्ञान एवं चेतना का प्रसार होता है।
इस शिक्षा-रूपी दीपक को प्रज्वलित कर संपूर्ण जगत को आलोकित करने का श्रेय शिक्षक को जाता है। एक आदर्श शिक्षक को उस कुशल शिल्पकार की संज्ञा दी जा सकती है, जो कच्चे घड़े सदृश बालक को सँवारने का कार्य करता है। शिक्षक छात्र के भीतर सत्य, सद्भावना, त्याग तथा अहिंसा आदि अनेक गुणों को विकसित करता है या उसे अपने आदर्शों को निश्चित करने तथा उनको प्राप्त करने में सहयोग प्रदान करता है। साथ ही साथ, वह सत्यं, शिवं और सुन्दरम् जैसे चिरन्तन मूल्यों की प्राप्ति के लिए उचित पथ-प्रदर्शन करके विद्यार्थी के नैतिक चरित्र के निर्माण में सहायक बनता है। शिक्षक ही वह साँचा है, जिसमें ढलकर मनुष्य के भीतर उच्च चारित्रिक गुणों का विकास होता है। ‘‘शाला के अध्यापक का काम छात्र की आँखें खोलना है। वह इसलिए कि उसे हर वस्तु साफ-साफ दिखाई दे। वह विवेक के बगीचे में निर्भय होकर घूम सके।‘‘3
आधुनिक युग में भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में चिन्तन-मनन की अजस्त्र धारा को प्रवाहित करने में डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने विलक्षण योगदान दिया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मर्मज्ञ, डाॅ. राधाकृष्णन ने अपने जीवन के बहुमूल्य चालीस वर्ष शिक्षण कार्य को समर्पित किए। उन्होंने शिक्षा को जीवन का एक अति महत्वपूर्ण ‘मिशन‘ माना था और उनके मत में, शिक्षक कहलाने का अधिकारी वही है, जो अन्य लोगों से अधिक बुद्धिमान व अधिक विनम्र हो। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों के प्रति व्यवहार व स्नेह ही उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से न तो कोई श्रेष्ठ हो जाता है और न ही विशेष सम्मान का अधिकारी अपितु उसे अपने छात्रों का स्नेह एवं आदर भी अर्जित करना होता है।
डाॅ0 राधाकृष्णन के अनुसार, शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति है। वास्तव में, यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है। इसके माध्यम से, मनुष्य के जीवन में इनके सतत् उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त होता है। साथ ही साथ, करूणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के अनमोल उद्देश्य हैं। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता एवं शिक्षा को अपने जीवन का परम ध्येय नहीं मानता, तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। संभवतः इसी कारण, उन्होंने अपने जीवन के चालीस वर्ष शिक्षा को समर्पित कर दिए।
डाॅ0 राधाकृष्णन छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे अपने जीवन व आचरण में सदैव उच्च नैतिक मूल्यों का समावेश करें। वे समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अतः विश्व को एक ही ईकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। जीवन में पुस्तकों के महत्व को रेखांकित करते हुए उनका कहना था कि पुस्तकें ही वह साधन है जिनके माध्यम से हम विभिन्न संस्कृतियों के मध्य सेतु का निर्माण कर सकते है। पुस्तकों के अध्ययन के द्वारा व्यक्ति एकांत में विचार करने की क्षमता विकसित कर पाता है। साथ ही, उसे सच्चे आनंद की अनुभूति होती है।
डाॅ0 राधाकृष्णन ज्ञान के साथ-साथ आपसी सौहार्द्र को भी यथोचित महत्व देते हैं। वे मानते हैं कि ज्ञान जहाँ हमें शक्ति देता है, वहीं प्रेम परिपूर्णता प्रदान करता है। वे विचारों की स्वतंत्रता के भी प्रबल पक्षधर रहे हैं। उनके अनुसार, कोई भी स्वतंत्रता तब तक स्थाई एवं सच्ची नहीं हो सकती, जब तक उसे विचारों की स्वयात्तता प्राप्त न हो। साथ ही साथ, किसी धार्मिक विश्वास अथवा राजनीतिक सिद्धांत को सत्य के अन्वेषण में बाधा नहीं पहुँचानी चाहिए।
डाॅ0 राधाकृष्णन के अनुसार, शिक्षा का प्रमुख कार्य मानव के आध्यात्मिक स्त्रोतों का उपयोग करके उसके अन्तःकरण में परिवर्तन लाना है। उदारता, दया, समझदारी, स्वतंत्रता आदि गुण आध्यात्मिक स्त्रोत है। इनका उपयोग करके, बालक के मानस को तीक्ष्ण व निपुण बना करके उसके अन्तःकरण में इस प्रकार परिवर्तन लाना है कि वह स्वयं को अनुशासित करने की ओर उन्मुख हो सके। स्वयं पर विजय प्राप्त करना सत्संग पर विजय प्राप्त करने से बढ़कर है। अतः शिक्षा का प्रमुख प्रयोजन बालक को स्वान्द्र शासन की ओर उन्मुख करना है। शिक्षा द्वारा जिज्ञासा उत्पन्न होनी चाहिए और जिज्ञासु के मन को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। शिक्षा द्वारा बालक अपने आन्तरिक संघर्षों का सामना करने के योग्य बने और हीन-प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करें। बालक मूल रूप में अच्छा है और शिक्षा का उद्देश्य उसमें नैतिक गुणों को जाग्रत करना है।4
वस्तुतः शिक्षा का परिणाम एक मुक्त रचनात्मक व्यक्ति होना चाहिए जो ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध लड़ सके। दूसरे शब्दों में, ‘‘शिक्षण का तात्पर्य अपने से इतर के प्रति असमंजस का अभाव और सामंजस्य बोध है। शिक्षण का आरंभ इससे है कि स्व पर बोध का स्थान परस्परता ले ले अर्थात् विमुखता और विरोध कम हो तथा सामंजस्य का भाव व्याप्त होता चला जाए।‘‘5 डाॅ0 राधाकृष्णन के मतानुसार, मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि तथ्यों का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीकी ज्ञान महत्वपूर्ण भी है, तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी जीवन में विशिष्ट महत्व है। वास्तव में, यही भावनाएँ शिक्षा के परम उद्देश्य को परिपूर्ण कर व्यक्ति को एक सफल एवं जिम्मेदार नागरिक बनाती हैं।
शिक्षा में व्यवसायीकरण के विरोधी, डाॅ0 राधाकृष्णन विश्वविद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते हैं। उनका मानना था कि विश्वविद्यालय गंगा-यमुना के पावन संगम की भाँति शिक्षक और छात्रों का भी पवित्र संधि-स्थल है। ऊँचे- ऊँचे भवन तथा साधन-संपन्नता की अपेक्षा विश्वविद्यालय में उच्च, उदाŸा और महान विचारों वाले शिक्षकों का होना परम आवश्यक है क्योंकि विश्वविद्यालय ज्ञान व शिक्षा के क्रय-विक्रय के केन्द्र नहीं है। ये ऐसे तीर्थस्थल हैं जिसके माध्यम से व्यक्ति की बुद्धि का विकास, इच्छा एवं भावना का परिष्कार तथा आचरण का संस्कार होता है। उनके अनुसार, ‘‘चाहे जो पाठ्यक्रम अपनाया जाए और चाहे जो शिक्षा पद्धति अपनायी जाए, उसमें दार्शनिक अध्ययन को पूरा स्थान मिलना चाहिए, क्योंकि उद्देश्यों व मूल्यों पर चिन्तन-मनन दर्शन में ही हुआ है और मानव के विषय में ज्ञान दर्शन द्वारा ही पूर्ण होता है।‘‘6 डाॅ0 राधाकृष्णन विश्वविद्यालय को बौद्धिक जीवन के देवालय की संज्ञा देते हुए उन्हें स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता के दुर्ग घोषित करते हैं। जिसमें आत्मा-स्वरूप ज्ञान के शोधन का वास होता है। उनके मतानुसार, उच्च शिक्षा का उद्देश्य है-साहित्य, कला और व्यापार-व्यवसाय को कुशल नेतृत्व उपलब्ध कराना। छात्र के मन-मानस को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि मानव ऊर्जा और भौतिक संसाधनों के मध्य अनुकूल सामन्जस्य की स्थापना हो सके।
डाॅ0 राधाकृष्णन के अनुसार, शिक्षक का परम उद्देश्य है, ज्ञानार्जन के पश्चात ज्ञान-रूपी दीपक बनकर चारों ओर अपना प्रकाश विकीर्ण करना। आदर्श शिक्षक वह नहीं, जो छात्र के मस्तिष्क में जबरन तथ्यों को ठूंसे। इसके विपरीत, शिक्षक तो वह है जो उसे जीवन में आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे, साथ ही, जो छात्रों में स्वयं विचार करने का सामथ्र्य विकसित करे। अगर हम दुनिया के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि सभ्यता का निर्माण उन महान ऋषियों और वैज्ञानिकों के हाथों से हुआ है जो स्वयं विचार करने का सामथ्र्य रखते हैं, जो देश और काल की गहराईयों में प्रवेश करते हैं, उनके रहस्यों का पता लगाते हैं और इस तरह से प्राप्त ज्ञान का उपयोग विश्व या लोक-कल्याण के लिए करते हैं।7
डाॅ0 राधाकृष्णन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनमें एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण विद्यमान थे। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका अध्ययन करते थे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर आसीन रहकर भी वे शिक्षा के क्षेत्र में सतत् योगदान देते रहेे। डाॅ0 राधाकृष्णन शिक्षण प्रक्रिया में रचनात्मकता के पक्षधर थे क्योंकि ‘‘शिक्षण पद्धति कोई भी हो, ‘जीवन कला‘ का विकास और आत्मा का विकास अवश्य होना चाहिए। प्रकृति के संपर्क द्वारा शिक्षा का समर्थन करते हुए डाॅ0 राधाकृष्णन प्रयोग द्वारा शिक्षा की भी बात करते हैं।‘‘8 उन्होंने शिक्षा में नैतिक मूल्यों पर विशेष बल दिया जिससे कि व्यक्ति के आंतरिक अवगुणों का भी शोधन हो सके। अपनी शैली की नवीनता के फलस्वरूप, दर्शनशास्त्र जैसे गंभीर एवं नीरस विषय को भी वे सरस तथा रोचक बना देते थे। वस्तुतः यही बातें उनके आदर्श शिक्षाविद् होने को स्पष्टतया प्रमाणित करती हैं।
वर्तमान दौर में, शिक्षा के व्यवसायीकरण ने इसे एक उद्योग के रूप में परिवर्तित कर दिया है। ज्ञान की गरिमा का नाश हो चुका है। साथ ही, संस्कारों एवं नैतिक मूल्यों की अपेक्षा धन-बल सर्वोपरि हो गया है। जहाँ शिक्षा पहले दान और संस्कारों का पर्याय मानी जाती थी, वहीं आज के विलासी जीवन में शिक्षा इन दोनों व्यवहारिक दृष्टिकोणों से दूर कहीं भटक चुकी है। ऐसे में, जब शिक्षा की गुणात्मकता का हृास होता जा रहा है और गुरू-शिष्य संबंधों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा रहा है, तब डाॅ0 राधाकृष्णन का पुण्य स्मरण फिर एक नई स्फूर्ति एवं चेतना जागृत कर सकता है। आधुनिक परिदृश्य में, शिक्षा तथा शिक्षकों को अगर अपनी गरिमा बचाए रखनी है तो उन्हें इस समाज में रहकर भी इसकी समस्त दुर्गुणों व कुरीतियों से स्वयं को बचाए रखकर ज्ञान के परम ध्येय के लिए साधनारत होना होगा।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को अपने जीवन में पूर्णतः आत्मसात किए हुए, डाॅ0 राधाकृष्णन के विचार प्रेरणा के अमर स्त्रोत हैं। उनके बहुमूल्य विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए ज्ञान की अजस्त्र धारा को मानव-कल्याण की दिशा में निर्मल तथा शुद्ध रूप में प्रवाहित करना होगा। अतएव, पूर्व और पश्चिम, व्यक्ति और समाज, राष्ट्र और विश्व के मध्य समन्वय स्थापित करने का संदेश प्रतिपादित करने वाले महान दार्शनिक मनीषी, डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के मौलिक सत्यान्वेषण से युक्त विचारों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक बनाना होगा। सही अर्थों में, शिक्षक दिवस की सार्थकता भी तभी सिद्ध हो सकेगी।
संदर्भ-सूची-
1. डाॅ0 शंकरदयाल शर्मा, ‘‘शिक्षा के आयाम‘‘, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, प्रथम संस्करण, पृ0 101
2. उद्धृत डाॅ0 सुरेन्द्र कुमार शर्मा, ‘‘आधुनिक भारतीय समाज में शिक्षा‘‘, डिस्कवरी पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2006, प्रथम सं0, पृ0 22
3. जैनेन्द्र कुमार, ‘‘शिक्षा और संस्कृति‘‘, समानांतर प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985, प्रथम सं0, पृ0 12
4. राम सकल पाण्डेय, ‘‘आधुनिक भारतीय शिक्षा दर्शन‘‘, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा, 1988, प्रथम सं0, पृ0 30-31
5. ‘‘शिक्षा और संस्कृति‘‘, पृ0 15
6. ‘‘आधुनिक भारतीय शिक्षा दर्शन‘‘, पृ0 31
7. डाॅ0 राधाकृष्णन, ‘‘भारतीय दर्शन‘‘, द्वितीय खण्ड, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, 2002, पृ0 254
8. ‘‘आधुनिक भारतीय शिक्षा दर्शन‘‘, पृ0 31
– अम्बरीन आफताब