मूल्यांकन
वर्तमान आधुनिक जीवन की अनेक विसंगतियों को बड़ी बारीकी से उकेरता संग्रह ‘छोटी-सी आशा’: डॉ. सीता शर्मा ‘शीताभ’
“महिलाएँं तो राई का पहाड़ बना देती हैं…” अब तक ऐसा ही सुनने में आता रहा और यह कार्य सरल भी है किन्तु मुश्किल तब हो जाती है, जब पहाड़ को एक राई के दाने में समाहित करने की चुनौती सम्मुख खड़ी हो जाए; और यह कहते हुए मैं गौरवान्वित हूँ कि हमारी महिला कथाकार आज इस कार्य को सफलतापूर्वक कर रही है।
लघुकथा लेखन बिल्कुल वैसे ही है, जैसे कोई काव्यकार अपने विशद् भाव व चिंतन को सिर्फ अड़तालीस मात्राओं के लघु छंद दोहा में समेटने को संकल्पबद्ध होता है। ऐसी स्थिति में रचनाकार की कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की सामासिकता की कड़ी परीक्षा होती है। इन दोनों का सामंजस्य जितना समुचित होगा, रचना की मारक क्षमता उतनी तीव्र होगी, जैसी कि रीतिकालीन रचना बिहारी सतसई की।
लघु कथा गद्य साहित्य की वह विधा है, जो लघु कलेवर में संवेदना की विराटता लिये होती है। बिल्कुल विष्णु के बावन अवतार की भाँंति या यूँ कहूँ कि सहृदय सामाजिक को चुल्लू भर पानी में ही असीम तृप्ति प्रदान कर देती है, जैसे पीयुष की एक बूँद।
रेणु जी के संग्रह में सहृदयों के लिए कितना आल्हाद् सुधा प्रच्छन्न है, इससे पूर्व एक सरसरी दृष्टि हिन्दी साहित्य में लघुकथा साहित्य के इतिहास पर डालें तो पाते हैं कि वैदिक युग में जो आख्यान की प्रवृत्ति थी, जिसका प्रथम प्रमाण ’पंचतंत्र’ माना जाता है, इसी से इस विधा के तार जुड़े हैं। मध्यकाल में बाहरी आक्रांताओं के कारण यह परम्परा सुचारू नहीं रह सकी किन्तु आधुनिक काल में इसका विकास पर्याप्त रूप से हो रहा है।
यूँ तो लोक जीवन में अनेक छोटे-छोटे किस्से सदियों से प्रचलन में हैं किन्तु लिपिबद्ध रूप में आज हिन्दी साहित्य के गद्य इतिहास में जिन रचनाओं ने स्थान अंकित करवा लिया है, उनमें कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर कृत ‘आकाश के तारे धरती के फूल’ (1952 ई.), रावी कृत ‘मेरे कथा गुरू का कहना है’ (1958 ई.), लक्ष्मी चन्द्र जैन कृत ‘कागज की किश्तयाँ’ (1960 ई.), रामनारायण उपाध्याय कृत ‘नाक का सवाल’ (1983 ई.) प्रबोध कुमार गोविल कृत ‘मेरी सौ लघु कथाएँ’ (1948 ई.) तथा हरिशंकर परसाई की रचनावली-1 व 2 शीर्षक से 1985 ई. में प्रकाश में आए संग्रह प्रमुख रूप से देखे जा सकते हैं।
लघुकथा शब्द का प्रयोग 1903 ई. में इलाहाबाद में हुई एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में सर्वप्रथम प्रयुक्त हुआ। अंग्रेजी साहित्य short story शब्द कहानियों के लिए प्रचलित रहा है। हाल ही राजस्थान कीे आभा सिंह का ‘माटी कहे’ (2015) डाॅ. बद्रीप्रसाद पंचोली का ‘लुघकथार्चन’ (2016) तथा संग्रह भी प्रकाश में आए हैं। राजस्थान में लघु कथाओं पर राजस्थान के ही शोधार्थियों द्वारा दो शोध कार्य किए जा चुके हैं।
डाॅ. रेणु चन्द्रा जी की कलम गद्य-पद्य दोनों में ही समान रूप से चल रही है। कुछ समयपूर्व ही आपके काव्य-संग्रह ‘धूप के रंग’ का लोकार्पण हुुआ तो समीक्षा का सुअवसर मुझे ही प्राप्त हुआ था और आज भी।
कविता में आप विषयों को कहते-कहते कब गम्भीर अंतश्चेतना में पाठकों को खींच ले जाती हैं, भान ही नहीं होता और जब पाठक आँखें खोलता है तो स्वयं को आपके रचे बिम्ब विधान में डूबता-उतरता पाता है तो कभी ठगा-सा, क्योंकि बिम्ब विधान जब गजानन माधव मुक्तिबोध को स्पर्श करने लगे तो वहाँ व्यंजना का स्तरीय प्रयोग हेाता है। रेणु जी की कविताओं में जितनी व्यंजना है, आपके गद्य में उतनी ही अभिधा की सरलता है, जो पाठक की संवेदना तक पहुंच बनाने में समर्थ रही है। लेखिका ने अपने भाव व चिंतन को कुल अस्सी कथा मोतियों में पिरोया है। इस माला में ’खुशी’ प्रथम तथा कोयल और कौआ अंतिम मनका है।
इन कथाओं में वर्तमान आधुनिक जीवन की अनेक विसंगतियों को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है। हमारे सभ्य समाज की पारिवारिक विखण्डन और संवेदनहीनता की सीमाओं का चित्रण है। रेणु जी ने यह कथाएंँ नहीं लिखी अपितु आधुनिक जीवन के अमानवीय पहलुओं ने उनसे लिखवा दी हैं, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि जितने भी विषयों को स्पर्श किया है, सब स्वयं लेखिका को ऐसे छूकर गुजरे कि असर आज तक गया न हो और यही रचना की सफलता होती है। अपनों के ही द्वारा वृद्धों की उपेक्षा, पश्चाताप व वसीयत, रेनोवेशन समय का फेर शीर्षकों में बड़ी मार्मिकता के साथ व्यक्त हुई है।
मैं छोटी नहीं हूँ, गुलाबी फ्राॅक, में थोथे आदर्श तथा स्वाभाविक बाल मनोदशा की सुन्दर अभिव्यक्ति हैं।
संस्कार, अपना-अपना हिस्सा, तरकीब, एडजस्टमेंट आदि कहानियों में सास-बहू के कई किस्से हैं। कहीं सास अटपटी है, तो कहीं खटपटी-सी है।
मुक्तिदान, परोपकार एवं तलब कथाओं में दान पर अच्छी अभिव्यक्ति है। दानदाता स्वयं को कितना मूर्ख पाता है जब उसे ज्ञात हो कि दान लेने वाले उनकी वस्तुओं को बेच देते हैं तो कहीं दलाल उन्हें नसीब ही नहीं होने देते।
गृह प्रवेश, कैसी बदनामी, तलाकशुदा, सुहाग का सुख परित्यक्ता रूदाली, एक और हादसा कथाओं में स्त्री-विमर्श के विविध स्तर देखे जा सकते हैं। सामंती समाज में आज भी हर स्तर पर स्त्री को संघर्ष करना पड़ रहा है। कैकई, सीता, द्रोपदी हो या अहल्या इस परम्परा में आज भी सशक्तीकरण के दौर में आधी आबादी संतप्त है।
इसके अतिरिक्त कहीं राजनीति को शक्ति, कहीं चिकित्सा विभाग का सच तो कहीं निजी शिक्षण संस्थानों के शोषण का सच लेखिका ने मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। गरीब-मजदूर व किसानों के प्रति लेखिका की सहानुभूति स्पष्ट परिलक्षित हुई है। छोटे-बड़े का यह संघर्ष इस युग में भी हम सभी के लिए दुःख का विषय है। रामधारी सिंह दिनकर ने अपने कुरूक्षेत्र काव्य में स्पष्ट कहा है-
“जब तक, मनुज-मनुज का यह सुख भाग नहीं सम होगा।
शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा।।’’
पंडितों के गाल बजाने की बात जो तुलसीदास जी ने कवितावली में कही है ‘पंडित हैं सो गाल बजावा’ की स्थिति बाबूजी का श्राद्ध कहानी में लक्षित हुई है। ऊँच-नीच,पीढ़ी का अंतर, कैसी बदनामी इस संग्रह की दुर्बल कड़ी हैं, निष्प्राण-सी हैं किन्तु काव्य संग्रह का सौन्दर्य सिर्फ इन पर ही आधृत नहीं है।
अब शिल्प पर दृष्टि डालें तो लघुकथाओं का सम्पूर्ण सौन्दर्य उसके अंतिम वाक्यों में निहित रहता है। इस दृष्टि से रेणु जी की कथाएंँ पाठक की उत्सुकता बनाए रखने में सफल रही हैं। बस यत्र-तत्र कुछ शब्द प्रयोगों ने रस में बाधा उत्पन्न की है। जैसे अभिमान कथा में- एक छोटी बच्ची अपनी माँ से पढ़ने के लिए कहती है- “वह बेटा है तो मैं बेटी हूँ इस घर की। भैया मान है तो मैं भी शान बनूँगी इस घर की। पढ़-लिखकर तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा बनूंगी माँ। निराश नहीं करूंगी कभी। तुम मुझको अभिशाप ना समझो। एक दिन तुम मुझ पर अभिमान करोगी।’’ यहाँं मान, शान, अभिमान जैसे शब्द कृत्रिमता उत्पन्न कर गए हैं। ”मोर’ कहानी में यश की आयु स्पष्ट नहीं होती और ना ही प्रतिक्रिया ही पुष्ट होती है।
कई स्थानों पर वर्तनी की अशुद्धियां भी रह गई हैं, भ्रूण के स्थान पर भूर्ण, भावनाऐं, लायेंगी इन शब्दों पर ध्यान देना इसलिए आवश्यक है कि भाषा का संस्कारित आदर्श रूप गद्य में अपेक्षित है।
शीर्षक ‘छोटी-सी आशा’ एक लघुकथा पर आधारित है। पुस्तक का शीर्षक अच्छा है, आशावादी है किन्तु इस कथा में एक जूते पाॅलिस करने वाले की यह इच्छा कि मेरा भी ऐसा ही अच्छा-सा रहने लायक एक घर हो, आज के समय में बहुत बड़ी इच्छा है। उस तबके के लिए और मध्यम वर्ग के लिए भी। यह छोटी-सी आशा नहीं बहुत बड़ी आशा है, अतः यहाँ विपर्य प्रतीत होता है।
‘कौन पागल है’ में धंँसा हुआ शब्द अटपटा-सा लगता है, फँसा, घुसा शब्द उपयुक्त रहता। “उन खड़े हुए आदमियों के बीच एक बूढ़ा आदमी भी था बहुत ही कमज़ोर झुर्रियों भरा चेहरा लिए लोगों के बीच में धंँसा हुआ था।”(77)
लेखिका ने जो विषय उठाए निःसंदेह युगीन बोध से युक्त लेखनी के प्रमाण हैं। एक विशेष बात इनमें यह है कि इन कथाओं को कहीं-कहीं संवाद तो कहीं किस्सा-गो शैली में व्यक्त किया है और अधिकांश को तो पात्र ही स्वयं दृष्टा बनकर सुना रहे हैं, यह एक अच्छा प्रयोग है।
इन कथाओं का आकार 150 शब्द अधिकतम है वह भी 4-5 का शेष सभी एक पृष्ठ की हैं, जो उचित है।
सभी कथाओं का अंत पाठक को सोचने पर विवश करने वाला है, जिसे खुला डिब्बा शिल्प शैली कहा जाता है। शेष रहस्योद्घाटन पाठक स्वयं करें कुछ जिज्ञासा अवश्य रहनी चाहिए। यह संग्रह प्रत्येक वर्ग के पाठक के लिए ग्राह्य व उपयोगी है।
समीक्ष्य पुस्तक- छोटी-सी आशा (लघु कथा संग्रह)
रचनाकार- डाॅ. रेणु चन्द्रा
– डॉ. शीताभ शर्मा