वरिष्ठ कवि उद्भ्रान्त का एकल कविता-पाठ
‘सीता रसोई’
सीता की रसोई में
एक चूल्हा था वन-गमन का
आटा पति का साथ देने की सुहागिन साध का
आँख से टपकते जल से
गूँथे जाने को व्यग्र
अपहरण का चिमटा
अशोक-वृक्ष की लकड़ी
और अग्नि-परीक्षा की आग
धोबी के घर से भेजा गया
लोकापवाद का तवा था
अपने ही घर से निष्कासन का चकला
और वाल्मीकि आश्रम का बेलन
सीता की रसोई में
दो गर्भस्थ शिशुओं को
स्वावलम्बी बनाने के संकल्प की
अदृश्य चिनगारी
सीता की रसोई
क्रूर समय की पृथ्वी से निकली
और समा गई
जीवन की पृथ्वी में !
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उद्भ्रान्त जी अपनी कविताओं का पाठ, हिन्दी कि ज़मीनी रचनाशीलता को अनौपचारिक मंच देने के उद्देश्य से गठित साहित्यिक संस्था ‘हुत’ की ओर से आयोजित एकल कविता-पाठ कार्यक्रम के दौरान प्रस्तुत कर रहे थे। ‘हुत’ की तरफ़ से यह आयोजन रविवार, 05 जुलाई, 2015 को शाम 6.00 बजे से एनडीएमसी पार्क, अबुल फ़ज़ल रोड, नियर तिलक ब्रिज रेल्वे स्टेशन, मंडी हाउस, नई दिल्ली में किया गया।
अपने कविता-पाठ में वरिष्ठ कवि उद्भ्रान्त ने ‘सीता रसोई’, ‘अपरिपक्व समय’, ‘क़र्ज़’, ‘स्वेटर बुनती स्त्री’, ‘चूहे-1’, ‘चूहे-2’, ‘पुस्तकालय’, ‘स्वाहा’, ‘बकरामंडी’, ‘ईंट’, ‘खूँटी, हैंगर और वस्त्र’, ‘मारामारी’ आदि कई कविताओं का पाठ किया।
युवा कवि अरुणाभ ने कहा, “एक वरिष्ठ कवि को सुनना वर्कशॉप की तरह होता है। इनकी कविताओं का विस्तार बहुत ज़्यादा है। और न सिर्फ़ विस्तार है, इसमें अपने समय की तल्ख़ सच्चाई है। इसमें अपने समय की सारी पेचीदगी है। ये हिन्दी कविता के निकनूर पारा हैं, जिनकी कविताओं में पोएट्री और एंटी पोएट्री साथ-साथ चलती है। ‘सीता रसोई’ कविता मिथकीय पात्र के माध्यम से जीवन की सच्चाई से लेकर भयावह यथार्थ को चित्रित करने की चेष्टा है। यह एक बड़ी कविता है। बड़ी कहने का मतलब लंबाई से नहीं, अपने कंटेन्ट से है। जो सीता जैसे पात्र को आधार बनाकर सामान्य स्त्री की संवेदना तक पहुँचती है।” ‘पुस्तकालय’ कविता के संदर्भ में उनहोंने कहा, “जब आज पुस्तक-संस्कृति हाशिए की संस्कृति हो गई है, ऐसे में पुस्तकालय अध्यक्ष की पीड़ा में सामान्य मनुष्य की पीड़ा, हम सब की पीड़ा और हमारा जीवनानुभव बोलता है। कवि ‘स्वेटर बुनती स्त्री’ में एक अलग सवाल उठाता है। ‘चूहे’ शीर्षक कविता मुझे इसी शीर्षक से प्रियंवद की एक कहानी की याद दिलाती है। लेकिन इस कविता में उस कहानी से ज़्यादा मारकता है। ‘चूहे की कमर से लटकते हैं तमंचे’ यह पंक्ति हमारे समय के बीच से पैदा पंक्ति है। ‘स्वाहा’ शीर्षक कविता नागार्जुन की ‘मंत्र’ कविता का विस्तार है। मंत्र से शुरू और स्वाहा से समापन भारतीय परंपरा का विस्तार है।”
युवा कवि और ‘युद्धरत आम आदमी’ के कार्यकारी सम्पादक पंकज चौधरी ने कहा, “उद्भ्रान्त जी एक मुकम्मल कवि हैं। इनके बारे में जितना पढ़ा-सुना है, यह राय इसी आधार पर बनी है। मुकम्मल होना अच्छा भी है और बुरा भी । पहले मुकम्मल कवि होते थे, जैसे- निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन। इनकी कविताओं को सुनने के बाद लगता है कि कविता में कितनी चीज़ें आ सकती हैं। हैंगर वाली कविता अद्भुत है। ‘बकरामण्डी’ शीर्षक कविता करुणा की कविता है। करुणा ही कविता का मूल होता है और वह इस कविता में है पर मेरी कुछ असहमतियाँ हैं। यह एक विवादास्पद कविता हो सकती है। क्योंकि बलि-प्रथा हिन्दू धर्म में भी है, सिर्फ़ इस्लाम में ही नहीं। कविता में कवि ने जिन शब्दों का जिक्र किया है उससे बच सकते थे। जैसे- अल्लाह, जामा मस्जिद, हलाल आदि। मैं जानता हूँ कि आप सोशल जस्टिस और सेक्युलरिज़्म के कवि हैं, पर इस कविता से एक सांप्रदायिक व्यंजना भी निकल सकती है।”
युवा कवि व रंगकर्मी हिमांशु बी. जोशी ने विचार व्यक्त किया, ‘”बकरामण्डी’ प्रेमचंद के ईदगाह की याद दिलाती है। उसमें बाज़ार का जो विवरण है, या उसका जो सौंदर्य है, वह इस कविता में मुझे दिखता है। ‘सीता रसोई’ कविता में मिथक है लेकिन उद्भ्रान्त जी मिथक को समकालीन बनाते चलते हैं। ‘बकरामण्डी’ कविता पर पंकज चौधरी की बातों से मैं असहमत हूँ। वे जिन शब्दों की बात कर रहे हैं, बिना उन शब्दों के पूरी कविता ही अप्रामाणिक लगेगी।
हिन्दी के सुपरिचित कवि रवीन्द्र के. दास ने कहा, “मैं कंटेन्ट पर नहीं बोलूँगा। कंटेन्ट पर बोलना कविता पर सबसे कम बोलना होता है। सबसे पहले तो इतने सुंदर पाठ के लिए बधाई! उद्भ्रान्त जी के पाठ के तरीक़े से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। इनकी अधिकतर कविताएं डिस्रिप्तिव हैं और दूसरे उनका अर्थ क़रीब-क़रीब पूर्व-निश्चित लगता है। यही कुछ बातें मुझे कहनी थीं, कविताओं के लिए एकबार फिर से बधाई!”
रचनाकार सत्येन्द्र प्रकाश ने रेखांकित किया कि ‘सीता रसोई’ शीर्षक से मुझे लगा कि क्या कवि यह सब भी लिखता है पर जब सीता ने अपना समकालीन रूप लिया तब बात स्पष्ट हुई। इसी तरह ‘पुस्तकालय’ कविता भी बहुत अच्छी कविता है जो अध्यक्ष के माध्यम से जीवन की मार्मिकता में उतरती है। बहुत-बहुत बधाई!
युवा कवि दीपक गोस्वामी ने कहा, “सच्ची कविता निष्ठुर होती है। ‘बकरामण्डी’ में यह बात कई जगह दिखती भी है। स्वाहा निष्ठुर होकर लिखी गयी है, अतः अपने चरम पर है। विषयों की विविधता है। इनकी कविताएँ प्रेक्षण की कविताएँ हैं। यही कारण है कि सारा सार कविता के अंत में निचोड़ देते हैं जिससे कविता ख़त्म होते-न-होते बहुत प्रभावशाली हो जाती है।”
प्रखर युवा आलोचक आशीष मिश्र ने विचार व्यक्त किया, “उद्भ्रान्त जी की कविताएँ दो ही चीज़ों से बुनी जाती हैं, पहला मिथक और दूसरा प्रतीक। इनकी जितनी कविताएं सुनीं उनमें से प्रत्येक कविता पहले या दूसरे किन्हीं वृत्त में ज़रूर पड़ेगी। और अगर दोनों साथ हैं, मिथक और प्रतीक साथ हैं तो यह स्वाभाविक है। मिथक और प्रतीकों के संबंध के बारे में अभी भी यह विवाद है कि मिथक प्रतीक के क्रोड से पैदा होता है कि प्रतीक मिथक के। जो भी हो पर दोनों को अलगाया नहीं जा सकता। अगर आप प्रतीकों को मिथकों से अलग कर देंगे तो उनका कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। हर सांस्कृतिक प्रतीक से एक मिथक, एक पुरावृत्त जुड़ा होता है। और मिथक छोटे-छोटे प्रतीकों के योग से बनते हैं। अतः किसी कवि में इनका साथ होना सामान्य बात है। मिथकों के प्रयोग पर बाद में लौटूँगा पहले कुछ छिटपुट बातें। पहला तो यह कि उद्भ्रान्त जी का रेंज बहुत बड़ा है, बहुत बड़ा। इनकी पीढ़ी में यह बहुत विरल है। और दूसरे यह कि उद्भ्रांत जी का पूरा ध्यान हमारे अपने साँसतपूर्ण जीवन को रचने पर होता है। यह सब है, इस पर कोई असहमति नहीं होगी पर मुझे हमेशा ही इनकी कविताओं में कुछ मिसिंग लगता रहा है। और जब मैं इस मिसिंग को पकड़ने, समझने की कोशिश करता हूँ तो मुझे लगता है कि यह संवेदनात्मक और ऐंद्रिक गहनता की कमी है। उद्भ्रान्त जी डिसक्रिप्शन के कवि हैं, वे चीज़ों के बारे में बोलते हैं, चीज़ों का बखान करते हैं। यह विवरण, यह डिसक्रिप्शन कहीं तो कविता बन जाता है पर कहीं-कहीं वह विवरण ही रहता है। अब मिथक पर लौटता हूँ। शब्द है ‘मिथ’। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सबसे पहले इसका हिंदीकरण किया और शब्द बनाया- मिथक। इस अर्थ में और तमाम शब्द प्रचलित हैं, जैसे- पूराकथा, दंतकथा, धर्मकथा आदि। पर अब यह शब्द लगभग सर्व-स्वीकृत है। इस प्रचलित शब्द का मतलब आज भी कल्पना और गप्प समझा जाता है। कभी मैक्समूलर ने मिथ को भाषा का रोग कहा था, यह अभी इस बाबत एक सामान्य समझ है। जबकि आज का वैज्ञानिक समझ यह बताता है कि हमारे चेतन-अवचेतन का बहुत बड़ा हिस्सा मिथकों से ही बनता है। हमारी नैतिकता, हमारे आदर्श इन्हीं से निर्मित होते हैं और हमारे जीवन-व्यवहार अनजाने इससे निर्धारित होते हैं। अगर हमारे भारतीय मन को समझा जाए तो इसे बनाने में दो महान मिथकों- रामायण और महाभारत का ख़ास योग है। मिथक, जिसे हम गप्प समझते हैं, उसने पिछले 20 वर्षों के भारतीय राजनीति को इतने गहरे प्रभावित किया है, इससे हम अपरिचित नहीं हैं। जिजेक ‘वर्चुअल रियलिटी’ को ‘रियलिटी ऑफ वर्चुअल’ कहता है। मैं मिथ के लिए ‘एक्चुयलिटी ऑफ मिथ’ पद प्रयोग करता हूँ। जो कल्पना यथार्थ को इतना प्रभावित करती हो उसे एक्चुयल ही कहा जाना चाहिए। और जो कवि मिथकों को विषय बनाता है वह कोई हल्का काम नहीं है। 70 के बाद दो कवियों ने कविता में मिथकों का सबसे ज़्यादा उपयोग किया, वे हैं–कुँवर नारायण और उद्भ्रान्त। पर दोनों में अंतर है। कुँवर नारायण उपनिषदों को विषय बनाते हैं और मिथकों में निहित राग-तत्त्व में बदलाव लाते हैं, राग-तत्त्व में कुछ जोड़ते-घटाते हैं। उद्भ्रान्त पुराणों को विषय बनाते हैं और उसके कथा-तत्त्व पर ध्यान देते हैं । उद्भ्रान्त जी मिथकों के कथा-तत्त्व को सामयिक बनाना चाहते हैं, वे उसके राग-तत्त्व तक नहीं उतर पाते। आशीष मिश्र ने कहा कि ‘ईंट’ शीर्षक कविता के लिए आपको ख़ास तौर से शुक्रिया कहना चाहता हूँ।”
वरिष्ठ पत्रकार व समीक्षक धीरंजन मालवे ने उद्भ्रान्त जी के कृतित्व व व्यक्तित्व के कई अनछुए पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे युवा कवि और साहित्यिक पत्रिका ‘रू’ के सम्पादक कुमार वीरेन्द्र ने कहा कि उद्भ्रान्त जी का लेखन 60 वर्षों के संघर्ष का लेखन है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में, चाहे वह कविता हो, कहानी या उपन्यास-लेखन, या गीत, ग़ज़ल या लघु पत्रिका आन्दोलन के समय में अपनी भूमिका निभाने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘युवा’ का सम्पादन, ये सब जिए गए और रचे गए संघर्ष के उदहारण हैं, जिन्हें इस कार्यक्रम में पढ़ी गईं कुछ कविताओं से ठीक-ठीक नहीं समझा जा सकता। कुमार वीरेन्द्र के कहा कि उद्भ्रान्त जी उन कवियों की तरह नहीं हैं, जो मिथकों के सहारे ‘खोह’ में जीवन और उसके सौन्दर्य तलाशते रहे हैं। ये जीवन-संघर्ष और उसके सौन्दर्य के बड़े कवि हैं, मिथकों के साथ भी, उनके बगैर भी…!
कार्यक्रम में साहित्यकार मजीद अहमद, युवा कवयित्री दामनी, युवा कवयित्री अनुपम सिंह, युवा रचनाकार चंद्रप्रकाश, युवा कवि सुघोष मिश्र, युवा कवि-कहानीकार-पत्रकार सुशील कुमार मानव, अश्वनी कुमार, युवा समीक्षक-पत्रकार रंजना बिष्ट, युवा पत्रकार वीर भूषण, युवा कवि इरेन्द्र बबुअवा आदि की न सिर्फ उपस्थिति रही, बल्कि इन्होंने अपने विचार भी व्यक्त किए।
– आज़र ख़ान