स्मृति
लड़कपने की उम्र में अमन को श्रद्धांजलि कहना बहुत दुखद है
बीते माह हमने एक ऐसे रचनाकार को खो दिया, जिसने बहुत कम समय में हिन्दी साहित्य के पटल पर अपना नाम अंकित कर दिया था। अमन चाँदपुरी नाम के इस रचनाकार ने महज़ 22 वर्ष की अल्प आयु में अमन सिंह से अमन चाँदपुरी के रूप में अपने आपको इस तरह स्थापित कर दिया कि इस लड़कपन की अवस्था में वह एक अमिट नाम बन गया।
‘हस्ताक्षर वेब पत्रिका’ से आरम्भ से ही जुड़े इस रचनाकार ने इस पत्रिका के ‘छन्द संसार’ के प्रभारी बनने तक पूरे समर्पण के साथ पत्रिका को रचनात्मक सहयोग दिया। अमन कुछ ही वर्षों में दोहा विधा के एक सुगढ़ रचनाकार हो गये थे और इन दिनों वे दोहा के साथ-साथ परिपक्व ग़ज़लें और गीत भी लिखने लगे थे। उनके लेखन में जितना सामर्थ्य मैंने देखा है, वह अन्यथा दुर्लभ है।
इस लड़कपने की उम्र में अमन को श्रद्धांजलि कहना बहुत दुखद है। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से हमेशा हमारे बीच बने रहेंगे।
– के. पी. अनमोल
अमन की कुछ रचनाएँ
ग़ज़ल-
मिला है इश्क़ में किसको मुनाफ़ा
सो तुम घाटे को ही समझो मुनाफ़ा
ख़ुशी होगी तेरा ग़म बाँट कर भी
किसी तरह तो मुझको हो मुनाफ़ा
मेरी ग़ैरत मुझे रखनी है ज़िन्दा
तुम अपने पास ही रक्खो मुनाफ़ा
मुनव्वर उसके ख़्वाबों से हैं आँखें
मेरी आँखों का तुम देखो मुनाफ़ा
तुम्हारा ग़म सबब है शायरी का
समझते हैं इसे हम तो मुनाफ़ा
मुनाफ़े की तिजारत जब भी करना
मिले जब ख़ुद से तब ले लो मुनाफ़ा
हँसी तो है मुकद्दर में सभी के
उदासी को ‘अमन’ समझो मुनाफ़ा
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ग़ज़ल-
ख़िज़ाँ और आँधियों के हैं नतीजे
मेरी बर्बादियों के हैं नतीजे
लगी है लत जो मुझको शायरी की
नहीं शहजादियों के हैं नतीजे
वो अब तो चीख भी सुनता नहीं है
ये सब फ़रियादियों के हैं नतीजे
क़फ़स में अब हमें रहना पड़ेगा
यही आज़ादियों के हैं नतीजे
हर इक चेहरा हसीं लगने लगा है
ये क्या तन्हाइयों के हैं नतीजे
जो तुम मुझमें बुराई ढूँढते हो
मेरी अच्छाइयों के हैं नतीजे
ऐ दुनिया! हम जो कुछ बिगड़े हुए हैं
तेरी उस्तादियों के हैं नतीजे
जो ख़ुद से भागता फिरता हूँ अब मैं
मेरी परछाइयों के हैं नतीजे
तमाशा बन गई है ज़ीस्त मेरी
‘अमन’ नादानियों के हैं नतीजे
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दोहे-
तुलसी ने मानस रचा, दिखी राम की पीर।
बीजक की हर पंक्ति में, जीवित हुआ कबीर।।
माँ के छोटे शब्द का, अर्थ बड़ा अनमोल।
कौन चुका पाया भला, ममता का यह मोल।।
प्रेम-विनय से जो मिले, वो समझें जागीर।
हक से कभी न माँगते, कुछ भी संत फकीर॥
तेल और बाती जले, दोनों एक समान।
फिर भी दीपक ही बना, दोनों की पहचान।।
जहाँ उजाला चाहिए, वहाँ अँधेरा घोर।
सब्ज़ी मंडी की तरह, संसद में है शोर।।
घर में रखने को अमन, वन-वन भटके राम।
हम मंदिर को लड़ रहे, लेकर उनका नाम।।
बरछी, बम, बन्दूक़ भी, उसके आगे मूक।।
मार पड़े जब वक़्त की, नहीं निकलती हूक।।
बिल्कुल सच्ची बात है, तू भी कर स्वीकार।
ज्यों-ज्यों बढ़ती दूरियाँ, त्यों-त्यों बढ़ता प्यार।।
मानवता के मर्म का, जब समझा भावार्थ।
मधुसूदन से भी बड़े, मुझे दिखे तब पार्थ।।
नृत्य कर रही चाक पर, मन में लिए उमंग।
है कुम्हार घर आज फिर, मिट्टी का सत्संग।।
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गीत-
ख़ुशियाँ कम आयीं हिस्से में
दुख ही अधिक सहे
अजब दौर है शीश झुकाकर यहाँ पड़े चलना
हम बंजारे, सीधे-सादे क्या जानें छलना
मन घंटों रोया, तब जाकर
थोड़े अश्रु बहे
ख़ुशियाँ कम आयीं हिस्से में
दुख ही अधिक सहे
हमने केवल उन राहों पर छोड़े हैं पदछाप
भुगत रहीं थीं, जो सदियों से ऋषि-मुनियों के शाप
विष ही पिया उम्र भर हमने
लेकिन कौन कहे
ख़ुशियाँ कम आयीं हिस्से में
दुख ही अधिक सहे
दो रोटी की चिंता में ही जीवन बीत गया
लगता है सुख का घट धीरे-धीरे रीत गया
आशा की दरकीं दीवारें
सपने सभी ढहे
ख़ुशियाँ कम आयीं हिस्से में
दुख ही अधिक सहे
– अमन चाँदपुरी