यात्रा-वृत्तान्त
एलोरा गुफाएँ
औरंगाबाद की अजन्ता एलोरा गुफाएँ सच कहूँ तो मेरे लिये बहुत पुरानी यादों में से एक हैं, जिनके सम्मोहन से मेरा निकलना अब तक संभव नहीं हुआ।
एलोरा गुफा मन्दिरों का निर्माण राष्ट्रकूटों के शासनकाल में पहाड के ऊर्ध्वभाग को काटकर कृष्ण प्रथम द्वारा करवाया गया था। इसमें कैलाश गुफा मन्दिर (क्रमांक16) सर्वोत्कृष्ठ है। सातवीं से नवमीं शताब्दी के मध्यकाल में 34 शैल गुफ़ाएँ बनवाई गयी थीं, जो क्रमशः 1 से 12 तक बौद्ध धर्म, 13 से 29 तक हिन्दू धर्म और 30 से 34 तक जैन धर्म को समर्पित हैं। एलोरा की गुफ़ा में 10 चैत्यगृह भी हैं, जो शिल्पकला के देव विश्वकर्मा जी को समर्पित हैं।
कह सकते हैं कि आठवीं शताब्दी के दौरान निर्मित ये गुफाएँ, इतिहास में दर्ज़ अपनी वैभवगाथा स्वयमेव सुनाती हैं। इतिहास अपने पन्नों पर हर काल में किये खननों, उत्खननों, अनेकों उत्कीर्णत मन्दिरों/ पूजागृहों/ मठों/ आलयों का भव्य निर्माण और उसकी उत्कृष्ट कला व अभियांत्रिकी की विशेषता समेटे खड़ा मुस्कुराता है, जिसमें कला निरंतर समृद्ध हो रही थी बिना किसी गरिमा को ध्वस्त किये। निर्माण और देखरेख ही उस काल का मूल-मंत्र रहा होगा।
तीन धर्मों की गरिमा सहेजे एलोरा गुफाओं का उत्कृष्ट पच्चीकारी शिल्प आध्यात्मिक शांति से ओतप्रोत है। एक ही रेखा में व्यवस्थित इन 34 गुफ़ाओं में बौद्ध चैत्य या पूजा कक्ष, विहार, मठ और हिन्दू तथा जैन मंदिर समाहित हैं और सबसे सर्वाधिक प्रभावशाली पच्चीकारी अद्वितीय है, जो कि ‘कैलाश मंदिर’ की है। इसे दुनिया भर में एक ही पत्थर की शिला से बनी हुई सबसे बड़ी मूर्ति भी कह सकते हैं, जो निरंतर यात्रियों को आकर्षित करती रही है, तो चलिये कुछ तफ़री कर ली जाए।
एक ही चट्टान को तराशकर बना ये मंदिर 164 फीट गहरा, 109 फीट चौड़ा, 98 फीट ऊँचा है। कहना अतिश्योक्ति न होगी कि इसे इस प्लेनेट की वन ऑफ द बिगेस्ट मोनोलिथिक संरचना के तौर पर कंसिडर किया जाता है। इसी कारण कैलाश मंदिर सदियों से शोधकर्ताओं और सैलानियों को अपनी ओर खींचता रहा है। इसका वर्णन ही इसे देखने की ललक जगा देता है।
एलोरा के कैलाश मंदिर की संरचना सोचने पर विवश करती है कि कैसे हजारों साल पहले हमारे शिल्पकार अभियंता पचास-साठ टन से भी भारी पत्थरों की शिलाओं को उठाकर उन्हें कलात्मकता से व्यवस्थित कर देते थे। सूक्ष्मतम बारीकियों, नक्काशियों पर किस साध व संयम से काम करते थे। गलियारों के ऊपर दिखती चट्टानें उस समय की अभियांत्रिकी को लेकर हैरान करती हैं।
विशालतम पाषाण निर्मित हाथी हों या तराशी गयी रामायण कथाएँ हों, प्रमुख घटनाएँ हों या विशाल नक्काशीदार स्तंभ हों या कि गंगा-यमुना, कैलाश विराजे शिव हों जैसे एलीफेंटा में पर्वत हिलाने के प्रयास में रावण था! या कि दीवारों में मीनाकारी की तरह भरे रंगों की कलाकारी हो।
हर एक कोण आश्चर्य से भर देता है, अवाक् कर देता है। उस काल में संसाधनों के अभाव में भी तकनीक और औज़ार क्या वाकई आज से बेहतर रहे होंगे!!
वैसे कैलाश मंदिर गुफा के बारे में बताया जाता है कि ऊपर से नीचे की ओर खोदी गयी थी। मंदिर की छत पर जाकर देखने पर एक अलग ही चमत्कारिक दृश्य की तरह सहेज सकेंगे इसे तस्वीरों और स्मृतियों में।
जैन और बौद्ध धर्म के रंग में रंगी, उनके आध्यात्म में मगन गुफाएँ भी अपनी अद्भुत शांति में लिपटा लेती हैं।
Ellora पुस्तक के लेखक श्री एम. के. धवालीकर कहते हैं कि- “ये गुफ़ा मंदिर किसी खुदाई में नहीं निकले हैं, बल्कि ये एक कंस्ट्रक्शन का प्रोसेस है जो अलग अलग समय और प्रयासों में बना है, इनकी अद्वितीयता के आगे फिर ये मायने नहीं रखता कि ये कितने पुराने हैं।”
इसकी कार्विंग और संरचना का परफेक्शन लोगों को चौंका देता है। पुरातन काल में विस्मृत कर देने वाली एडवांस तकनीक व औजार रहे होंगे निश्चित रूप से।
इतिहास और कला सदा ही अपनी गाथा कंदराओं में हमें खींचते रहते हैं, यदि आप भी उस खिंचाव को, उस जुड़ाव को महसूसते हैं तो औरंगाबाद की इन गुफ़ाओं तक जरूर घूमियेगा। फ़ख्र करेंगे हमारे इतिहास में दबी समृद्धि पर।
– प्रीति राघव प्रीत