आलेख
लोक संवेदना के यथार्थ सर्जक: नागार्जुन
– कृष्ण कुमार यादव
साहित्य और संवेदना का अटूट रिश्ता है। यह रिश्ता जब वास्तविक जीवन में भी फलीभूत होता है तो विलक्षण रचनाधर्मिता का जन्म होता है। साहित्य सिर्फ रचने का नाम नहीं बल्कि जीने का भी नाम है। तभी तो कहा गया है कि सार्थक साहित्य वह है, जो जीवन के साथ चले। ऐसे ही स्वभाव के साहित्यकार थे- बाबा नागार्जुन। अपने फक्कड़ मिजाज, यायावरी, ठेठ लहजे और बेलौस कविताई के लिए प्रसिद्ध नागार्जुन हमेशा लोक-चेतना व संघर्ष के साथ चले और सदैव शोषित मानस का पक्ष लिया। जनसंघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हैं। समकालीन विसंगतियों, विद्रूपताओं और जटिलताओं को चुनौती देते उनके तेवर बार-बार परिलक्षित हुए और इसे उन्होंने अपनी एक कविता ‘प्रतिबद्ध हूँ’ में दो-टूक लहजे में स्पष्ट भी किया-
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ-
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त-
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के ख़िलाफ़
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
नागार्जुन (30 जून 1911-5 नवम्बर 1998) का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। 30 जून 1911 को गाँव सतलखा, मधुबनी, बिहार में जन्मे नागार्जुन ने हिन्दी साहित्य में ‘नागार्जुन’ तथा मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से रचनाएँ कीं। उनके पिता गोकुल मिश्र जी तरउनी गाँव के एक साधारण किसान थे और खेती-बाड़ी के अलावा पुरोहिती के सिलसिले में आस-पास के गाँवों में आया-जाया करते थे। ऐसे में उनके साथ-साथ नागार्जुन भी बचपन से ही ‘यात्री’ हो गए। नागार्जुन की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई किन्तु आगे स्वाध्याय पद्धति से ही उनकी शिक्षा बढ़ी। चूँकि वे बचपन से ही यायावर थे, अत: उन्हें ऐसे लोगों की संगति पसंद थी। राहुल सांकृत्यायन की यायावरी जग-जाहिर है, ऐसे में उनके द्वारा किये गए ‘संयुक्त निकाय’ का अनुवाद पढ़कर नागार्जुन का मन हुआ कि यह ग्रंथ मूल पालि में पढ़ा जाए। फिर क्या था, उनका यायावरी मन उद्धिग्न हो उठा और इसके लिए वे श्रीलंका चले गए, जहाँ वे स्वयं पालि पढ़ते थे और मठ के भिक्षुओं को संस्कृत पढ़ाते थे। यहीं वे बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए।
नागार्जुन की यह यायावरी सिर्फ घूमने और ज्ञानार्जन तक ही नहीं रही बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी यह यायावरी और फक्कडपन परिलक्षित होता है. उन्होंने 20 वीं सदी के तीसरे दशक में साहित्य में कदम रखा, जब उनकी उम्र करीब 25 साल की थी. तात्कालिक राजनैतिक परिवेश का उन पर गहरा प्रभाव पड़े. वे राजनैतिक परिवर्तन की लालसा रखने वाले कवि थे. यह वह दौर था देश की आजादी के लिए लड़ाई का, आंदोलनों का और साहित्य भी इससे अछूता नहीं था. उस समय हिन्दी साहित्य में छायावाद उस चरमोत्कर्ष पर था, जहाँ से अचानक तेज ढलान शुरू हो जाती है. ऐसे ही माहौल में नागार्जुन ने अपनी अभिव्यक्तियों को शब्द देने आरंभ किये. उन्होंने 1936 में लेखन की शुरुआत की. वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की उनकी एक कविता ‘उनको प्रणाम’गौरतलब है-
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
– उनको प्रणाम!
नागार्जुन की आरंभिक कविताओं के तेवर से ही स्पष्ट है कि वे विज्ञापन या चकाचौंध की बजाय जमीनी हकीकत को ज्यादा महत्व देते हैं. वे उनकी बात करते हैं जो वाकई जमीन से जुड़े हुए हैं, संघर्षों से जुड़े हुए हैं, खुरदुरे यथार्थों से रोज टकराते हैं. इस रूप में उनकी कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। 1940 में लिखी उनकी कविता ‘भारतेंदु’ उनकी साहित्यिक चेतना को दर्शाती है-
हिंदी की है असली रीढ़ गंवारू बोली,
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हममें घोली,
हे जनकवि सिरमौर!
सहज भाषा लिखवइया,
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे बाबू भईया.
वस्तुत: नागार्जुन का रचना-संसार अपने अन्दर एक विविधता लिए हुए है. सिर्फ विधाओं के स्तर पर ही नहीं, भाषाओँ और बोलियों के स्तर पर भी. देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती इत्यादि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उन्हें और समृद्ध बनाता है. पर इस बात का उन्हें कोई घमंड नहीं था, बल्कि इसका उपयोग कई बार वे सामान्य से लगने वाले स्थानीय दृश्यों या अनुभव-प्रसंगों को उनकी भाषा में उकेरकर सहज महसूस करते थे. चर्चित आलोचक नामवर सिंह की मानें तो, तुलसी के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता की पहुँच किसानों की चौपाल से लेकर काव्य रसिकों की गोष्ठी तक है. अपनी इसी विशेषता के कारण वे श्रमशील जनता के पक्ष में खड़े होते थे. उन्हें इस बात का गर्व था कि वे एक कवि थे और कवि का कार्य समाज के सामने सच रखना है.
जनता मुझे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ ?
जनकवि हूँ मैं सत्य कहूँगा, क्यों हकलाऊँ
यही कारण है कि नागार्जुन को भावबोध और कविता के मिज़ाज के स्तर पर सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़कर देखा गया है. उनका ‘फक्कडपन’ और ‘यायावरी’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है. कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि, नागार्जुन का सक्रिय, गतिशील और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित होता है-
‘अपने खेत’ में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है/बाजारू बीजों की
निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट/कर देगी!
जी, आप/अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
यह भी एक अजीब संयोग है कि नागार्जुन की कविताओं को आरंभ में उनके समकालीनों ने महत्व नहीं दिया. वे अपनी पुस्तकें खुद ही झोले में लेकर बांटते और बेचते थे. यह शायद बचपन की पुरोहिती और यायावरी का ही प्रभाव था कि वे हमेशा ज्ञान बांचा करते थे. उसके लिए उन्हें कोई मंच नहीं चाहिए था, कोई अवसर विशेष नहीं चाहिए था, किसी प्रकाशक या पत्र-पत्रिका की कृपा दृष्टि नहीं चाहिए थे. 1952 में उनका प्रथम काव्य-संकलन ‘युगधारा’ प्रकाशित हुआ. इसके बाद सतरंगे पंखों वाली (1959), तालाब की मछलियाँ (1974), खिचड़ी विपल्व देखा हमने, हजार-हजार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबार की छाया में, ओम मंत्र, भूल जाओ पुराने सपने, रत्नगर्भ, अपने खेत में (1988) इत्यादि एक दर्जन से ज्यादा कविता-संग्रह प्रकाशित हुए. चना जोर गरम, खून और शोले, प्रेत का बयान इत्यदि काव्य-पुस्तिकाएं भी चर्चा में रहीं. मैथिली में लिखा उनका ऐतिहासिक काव्य-संग्रह ”पत्रहीन नग्न गाछ” काफी प्रसिद्ध हुआ और इस पर उन्हें 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कालांतर में साहित्य अकादमी ने 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में उन्हें नामांकित कर सम्मानित किया।
नागार्जुन का कविता-कर्म लोक सरोकारों से जुड़ा हुआ था. तभी तो उन्हें ‘जन आंदोलनों और सामाजिक सरोकारों का कवि’ या ‘क्रन्तिकारी कवि’ कहा गया. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले पर उनकी कविता इन सब वादों से परे अपना स्वतन्त्र वजूद बनाती और अपने काव्य-सरोकार ‘जन’ से ग्रहण करती. ‘अकाल और उसके बाद’ कविता की पंक्तियाँ मन को झकझोरकर रख देती हैं-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त.
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि लम्बे समय तक लोग उन्हें कवि नहीं मानते. 1978 में जब प्रभाकर माचवे के संपादन में ‘आज के लोकप्रिय कवि’ श्रृंखला में पहली बार नागार्जुन का नाम शामिल हुआ, उस समय तक उनका कोई काव्य-संग्रह किसी प्रकाशक ने नहीं प्रकाशित किया था. जबकि इससे पूर्व उनके उपन्यास प्रकाशकों ने प्रकाशित किया था. वस्तुत: नागार्जुन ने कभी भी किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की लीक का निर्माण किया. दरभंगा के महाराज के बुलावे पर वे कविता नहीं पढ़ने गए. उन्होंने सत्ता-प्रतिष्ठानों की परवाह कभी नहीं की. ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के आगमन पर उनका कवि-मन ‘आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी’ कविता के माध्यम से व्यंग्य रूप में अपना विद्रोह प्रकट करता है-
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो.
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो.
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो.
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की.
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी.
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की.
यही हुई है राय जवाहरलाल की.
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!
राजनैतिक आंदोलनों को नागार्जुन ने उनके अंतर्द्वंधों के साथ करीब से देखा. सर्वोदय के नटवरलालों पर वे अपनी कविता ‘तीनों बन्दर बापू के’ में करार व्यंग्य करते हैं. बिनोबा भावे के भू-दान आन्दोलन की निरर्थकता पर भी उन्हीने तीखी टिपण्णी की. आखिर वे उसी बिहार की पैदाइश हैं, जहाँ आज भी जमीन की लड़ाई को लेकर न जाने कितनी सेनाएं बनी हुई हैं. आपात काल के दौरान उन्होंने उन्होंने इंदिरा गाँधी को लेकर न सिर्फ लिखा-कहा, बल्कि जेल भी गए-
क्या हुआ आपको ?
क्या हुआ आपको ?
सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को.
इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको ?
तो जेल से छूटने के बाद जयप्रकाश नारायण के खिलाफ भी बयान दिया. जिस चीज का अहसास जे.पी. को जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद हुआ, उसे नागार्जुन ने उसी दौर में समझ लिया था. तभी तो उन्होंने जनता पार्टी के शासन-काल के दौर को ‘खिचड़ी-विप्लव’ का नाम दिया. इसके अलावा भी ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन’, ‘तीन दिन, तीन रात’, ‘जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतंत्र की’ जैसी उनकी कविताएँ व्यंग्यात्मक रूप में सत्ता-प्रतिष्ठान को ललकारती नजर आती हैं. कई बार आलोचक उन्हें ‘राजनैतिक प्रोपोगंडा वाला कवि’ कहते थे. नागार्जुन के इस व्यवहार पर समालोचक प्रो. मैनेजर पांडेय की टिप्पणी गौर करने लायक है- ”एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते हैं, किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं. इसलिए जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं तो कई बार वामपंथी दलों के राजनीतिक और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं. जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं. नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है…..यही कारण है कि खतरनाक सच साफ बोलने का वे खतरा उठाते हैं.”
अख़बारों की सुर्ख़ियों को कविता के माध्यम से कहने का जो अप्रतिम गुण नागार्जुन में था, वह विरले ही देखने को मिलता है. उनकी कविताएँ घुमा-फिराकर नहीं बल्कि सीधे बातों पर आ जाती हैं. प्रसिद्ध आलोचक केदारनाथ सिंह की मानें तो -”तात्कालिकता पर कविता लिखना जोखिम मोल लेने से कम नहीं है, लेकिन नागार्जुन ने इसे कविता की समसामयिक ज़रूरत बताया. इसी कारण स्थूल घटना को गहरी संवेदना में रूपांतरित करने वाले कवि होने का गौरव उन्हें प्राप्त है.” जब देश आजादी की रजत जयंती मनाने की घोषणा कर रहा था, तब वे देश के कर्णधारों पर सवाल उठा रहे थे-
फटे वस्त्र हैं घर से बाहर निकलेगी कैसे लजवन्ती.
शर्म न आती मना रहे वे महँगाई की रजत जयंती.
नागार्जुन साहित्य में घुसती राजनीति को भी करीब से महसूस कर रहे थे. जब बिहार के एक प्रतिष्ठित साहित्यकार को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो उन्होंने बेझिझक लिखा-
ओ बिहार के गोर्की,
ओ कवि कमल दिवाकर,
तुमको हम देखते रहेंगें मुँह बा-बा कर.
कोशी उमड़े अर्थनीति पर डालर छाए.
मौज मनाओ, राजनीति चूल्हे पर जाए.
प्रेस, रेडियो, मंच सभी पर हावी होना.
मिट जायेगा प्यारे जीवन भर का रोना.
नागार्जुन के लिए कवि-कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि खुरदुरेपन का अहसास है, जिससे आम-जन रोज जूझता है. वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं. जीवन को उन्होंने जिस रूप में पाया, उसी रूप में स्वीकार किया. कभी दूसरों का देखकर लालच नहीं किया. जहाँ धर्म और दर्शन ईश्वर की अपनी व्याख्याएं करते हैं, वहीँ नागार्जुन इन सबको एक सिरे से नक्कारते हुए ‘अन्न-पचीसी’ कविता में लिखते हैं-
अन्ना ब्रह्म ही ब्रह्म है, बाकी ब्रह्म पिशाच.
औघड़ मैथिल नाग जी अर्जुन यही उवाच.
कभी कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था. धर्म के नाम पर बढ़ते पाखंड, ईश्वर के नाम फैलाया जाता आतंक जनमानस को धर्मभीरु और अकर्मण्य बना देता है. ऐसे में कविवर नागार्जुन ईश्वरीय सत्ता की चुनौती को भी स्वीकार करते हैं और ‘कल्पना के पुत्र हे भगवान’ में आह्वान करते हैं, जो उनके वश का ही लिखना था-
चाहिए मुझको नहीं वरदान.
दे सको तो दो मुझे अभिशाप.
चाहिए मुझको नहीं यह शांति.
चाहिए संदेह, उलझन, भ्रांति.
रहूँ मैं दिन-रात ही बेचैन.
आग बरसाते रहें ये नैन.
करूँ मैं उद्दंडता के काम.
लूँ न भ्रम से भी तुम्हारा नाम.
करूँ जो कुछ, सो निडर, निश्शंक.
हो नहीं यमदूत का आतंक.
नागार्जुन सर्वहारा वर्ग की कठिनाइयों, उनकी पीड़ा, समाज में व्याप्त विसंगतियों पर खूब कलम चलाते थे. समाज को प्रगतिशील और जागरूक बनने में रूढियों को वे बाधा के रूप में देखते थे और बेलौस लिखते थे-
हमें नहीं चाहिए तुम्हारी ऐसी करुणा.
हमें नहीं चाहिए वे माता श्यामा-अरुणा.
कितना खून पीया है जाती नहीं खुमारी.
सुर्ख और लम्बी है मैया जीभ तुम्हारी.
झाड़-फूंक कर सामान्य-जन को बहलाने-फुसलाने और अपना उल्लू सीधा करने वालों पर भी नागार्जुन बरसते हैं. ऐसे पाखंडियों का मजाक उड़ाती उनकी कविता ‘मंत्र कविता’ दिलचस्प है-
ओं भैरो, भैरो, भैरो, ओं बजरंगबली
ओं बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ओं डालर, ओं रूबल, ओं पाउंड
ओं साउंड, ओं साउंड, ओं साउंडओम् ओम् ओम्
ओम् धरती, धरती, धरती, व्योम् व्योम व्योम्
ओं अष्टधातुओं की ईंटों के भट्ठे
ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पट्ठे
ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा
हरि: ओं तत्सत् हरि: ओं तत्सत्.
नागार्जुन ने अपनी कविताओं में व्यंग्य की धार से लोक चेतना और सामाजिक सरोकारों के करीब अपने को पाया. सामान्य जनमानस भी उनकी इन चुटीली पर कड़वी बातों को गहराई से महसूस करता था, क्योंकि बाबा ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा, वह यथार्थ जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है. उनकी कविताएँ लोगों से संवाद करती नजर आती थीं. अपनी कविताओं के इस पैनेपन, व्यंग्य की धार और सहजता के कारण ही नागार्जुन मंचों पर भी छाए रहे. उन्हीं की जुबानी सुनें- ”कवि-सम्मेलनों में बहुत जमते हैं हम. समझ गए ना? बहुत विकट काम है कवि-सम्मेलन में कविता सुनाना. बड़े-बड़ों को, तुम्हारा, क्या कहते हैं, हूट कर दिया जाता है. हम कभी हूट नहीं हुए. हर तरह का माल रहता है, हमारे पास. यह नहीं जमेगा, वह जमेगा. काका-मामा सबकी छुट्टी कर देते हैं हम….. समझ गए ना?” नामवर सिंह ने नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताओं के संकलन की भूमिका में इस ओर इंगित करते हुए लिखा है कि- ”व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं…..इसलिए यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के इतने व्यंग्यचित्र हैं कि उनका एक विशाल एलबम तैयार किया जा सकता है. ”
कई बार नागार्जुन की निगाहें ऐसे पहलुओं पर भी जाती थीं, जहाँ अन्य की नहीं पहुँचती. वे कविताएँ गढ़ते नहीं थे, बल्कि परिवेश देखकर उनकी जुबान से स्वत: कविता निकलती थी. उनकी कवि-दृष्टि के सम्बन्ध में डॉ. रामविलास शर्मा ने सही ही कहा है-” नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और सामंजस्य की समस्या को जितनी सफलता से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम कवि-हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी-हल कर पाए हैं.” वास्तव में नागार्जुन की दृष्टि रोजमर्रा के ही उन दृश्यों-प्रसंगों के जरिए वहाँ तक स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती थी, जहाँ दूसरे कवियों की कल्पना-दृष्टि पहुँचने से पहले ही उलझ कर रह जाए. उनकी एक कविता ‘पैने दाँतोंवाली’ में व्यक्त भाव और चित्रण देखें-
धूप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सुअर…
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनोंवाली!
नागार्जुन का रचना-संसार बड़ा विस्तृत है. एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली;(हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह के साथ-साथ छः से अधिक उपन्यास, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य “धर्मलोक शतकम” तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता रूप में साहित्य संसार में उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी है. उनकी कृतियों में- रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नयी पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, कुंभीपाक, पारो, आसमान में चाँद तारे (सभी उपन्यास), अन्न हीनम क्रियानाम (निबंध संग्रह), अभिनंदन (व्यंग्य), कथा मंजरी भाग-1, कथा मंजरी भाग-2, मर्यादा पुरुषोत्तम, विद्यापति की कहानियाँ (सभी बाल साहित्य) का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. इसके अलावा मैथिली कृतियों में – पत्रहीन नग्न गाछ (कविता-संग्रह), हीरक जयंती (उपन्यास) तो बांग्ला कृति में- मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद) चर्चित हैं.
आज आजादी के एक लम्बे अंतराल बाद भी जब जनता अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है, कुछ लोग उसके हकों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं, भ्रष्टाचार की विषबेल तेजी से फ़ैल रही है, मंहगाई सुरसा की भांति हर साल अपना मुँह फैलाये ही जा रही है, आम जन की आवाज़ को लाठियों के दम पर सत्ता-तंत्र द्वारा दबा दिया जाता है, वहाँ नागार्जुन की प्रासंगिकता स्वत: रेखांकित हो जाती है. वह सिर्फ एक कवि नहीं थे, बल्कि जन-सरोकारों और जन-आंदोलनों को धार देने वाले एक फक्कड़ सेनानी भी थे. शायद उनके जिन्दा रहते उनके शब्दों को उतनी तवज्जो नहीं दी गई, पर आज उनके आलोचक भी उनके योगदान को स्वीकार करते हैं और उनके कृतित्व के पुनर्मूल्यांकन की बात करते हैं. इसके मूल में यही भाव छुपा है कि नागार्जुन ने रचनाधर्मिता के स्तर पर तमाम प्रयोग किए, पर उनके मूल में जन-सरोकार ही रहे. एक बार इब्बार रबी ने तुलनात्मक रूप में लिखा कि- ”वह समाज जो आदमी का शोषण कर रहा है, उसकी मानसिकता को उजागर करते हैं अप्रत्यक्ष रूप से श्रीकांत वर्मा; उसके स्रोतों की पोल खोलते हैं रघुवीर सहाय; और उससे लड़ना सिखाते हैं नागार्जुन।” वास्तव में देखा जाय तो निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। नागार्जुन की कविताओं में जीवन के विभिन्न रंग हैं. उनमें राजनीति से लेकर समाज, प्रकृति, संस्कृति, व्यंग्य, दलित, किसान, आदिवासी, स्त्री सभी शामिल हैं. चर्चित आलोचक नामवर सिंह से शब्द उधार लेकर कहें तो -”कविता में विषय वस्तु से लेकर रचना विधान तक जितने प्रयोग नागार्जुन ने किए, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. जिन विषयों को दूसरे कवियों ने अछूत समझा, उन पर भी नागार्जुन ने खूब कलम चलाई. उन्होंने अपनी कविता में समाज के आखिरी आदमी को हीरो बनाया.”
– कृष्ण कुमार यादव