जो दिल कहे
लॉकडाउन और घरेलू हिंसा
परिवार की महत्ता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। रिश्तों के ताने-बाने और उनसे उत्पन्न मधुरता, स्नेह और प्यार का सम्बल ही परिवार का आधार है। परिवार एकल हो या संयुक्त, पर रिश्तों की ठोस बुनियाद ही उन्हें ताजगी प्रदान करती है। एक तरफ जहाँ परिवार के लोगों की वैयक्तिक जरूरतों के साथ सामूहिकता का तादात्मय परिवार को एक साथ रखने के लिए बेहद जरूरी है, वहीँ परिवार और काम के बीच का संतुलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के लिए उसका परिवार बहुत महत्वपूर्ण होता है। व्यक्ति के जीवन को स्थिर और खुशहाल बनाए रखने में उसका परिवार बेहद अहम भूमिका निभाता है।
हमारी संस्कृति और सभ्यता कितने ही परिवर्तनों को स्वीकार करके अपने को परिष्कृत कर ले, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई भी आंच नहीं आई। वह बने और बन कर भले टूटे हों लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। उसके स्वरूप में परिवर्तन आया और उसके मूल्यों में परिवर्तन हुआ लेकिन उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। हम चाहे कितनी भी आधुनिक विचारधारा में हम पल रहे हो लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़ कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि अनुभव करते हैं। भारत ‘परिवारों का देश है’। परिवार शब्द हम भारतीयों के लिए अत्यंत ही आत्मीय होता है।
अथर्ववेद में परिवार की कल्पना करते हुए कहा गया है- ”अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥’ अर्थात पिता के प्रति पुत्र निष्ठावान हो। माता के साथ पुत्र एकमन वाला हो। पत्नी पति से मधुर तथा कोमल शब्द बोले।
वर्तमान में कोरोना वायरस के बढ़ते प्रसार ने वैश्विक आबादी को घरों में रहने को मज़बूर कर दिया है। भारत सहित विश्व के लगभग सभी देशों में स्वास्थ्य क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में चल रही समस्त मानवीय गतिविधियों को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर संपूर्ण लॉकडाउन को अपना लिया गया है। इस समय लॉकडाउन का एकमात्र उद्देश्य मानवीय जीवन की रक्षा करना है।
अत्यधिक संक्रामक कोरोनावायरस के लिए अभी तक कोई वैक्सीन या कोई प्रमाणित इलाज उपलब्ध न हो पाने के कारण इस बीमारी के प्रसार को कम करने के लिए ‘सामाजिक दूरी’, एक महत्वपूर्ण रणनीति के रूप में उभरी है और दुनिया भर में सरकारों द्वारा अलग-अलग स्तर के लॉकडाउन लागू किए जा रहे हैं। घर पर रहने के भयावह आदेशों के परिणामस्वरूप दोनों, विकसित एवं विकासशील देशों से अचानक घरेलू हिंसा की खबरों में एक बड़ा उछाल आया है।
कोरोना वायरस के लिए किया गया लॉकडाउन घरों में रिश्तों को समय की कसौटी पर कस रहा है। सोशल मीडिया पर लॉकडाउन को लेकर पति-पत्नी के रिश्ते को लेकर तमाम मीम्स वायरल हैं। ज्यादातर में पति को पीड़ित और पत्नी को हमलावर दिखाया जा रहा है लेकिन वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत है। घरों में महिलाओं खासतौर से पत्नियों पर हिंसा की घटनाएं जारी हैं। जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ रहा है घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि हो रही है।
‘लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में लोगों का ध्यान बंटा रहा। नई तरह की सूचनाएं आ रही थीं, लंबे समय बाद परिवार के साथ पूरा समय बिताने को मिल रहा था तो लोगों में झगड़े और विवाद कम हुए। लेकिन समय बीतने एवं लॉक डाउन प्रथम चरण से बढ़ कर चौथे चरण की बढ़ चली, फलस्वरूप आय के सीमित संशाधन, नियोजन की अनिश्चित्तता, रोजगार के जाने का भय एवं लॉकडाउन के समाप्ति के बाद अनियंत्रित महंगाई की आशंकाओं को लेकर तनाव का बढ़ना, लॉकडाउन के चलते आय पर प्रभाव पड़ा जिसका नतीजा झगड़ों के रूप में आने लगा।
जब पुरुषों और महिलाओं को रोज़गार मिलता है, तो घरेलू हिंसा में गिरावट आती है क्योंकि पति-पत्नी दोनों अपने-अपने कार्यालय के दायित्वों की पूर्ति में ही व्यस्त होने के कारण आपसी टकराहट कम हो जाती है। लॉकडाउन के कारण दंपति के सामने रोज़गार की असुरक्षा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है, जिससे महिला और पुरुष दोनों तनावग्रस्त हो गए हैं, तनाव के कारण पारिवारिक कलह बढ़ गयी जो अंततः घरेलू हिंसा में परिणत होती गई।
इसके साथ ही मध्यमवर्ग और निम्न मध्यमवर्ग में पुरुषों और महिलाओं के बीच काम का विभाजन बहुत ज्यादा है। पति और बच्चों के दिन भर घर में रहने से महिलाओं का काम बढ़ा गया। इसके चलते काम में हाथ बंटाने को लेकर विवाद होते हैं। ज्यादा समय साथ-साथ रहने के लिए परिपक्वता की जरूरत होती है। कोई भी दो इंसान सारी बातों में सहमत हों, ऐसा नहीं हो सकता है।
लॉकडाउन के कारण बच्चों के स्कूलों में भी अनिश्चितकालीन अवकाश कर दिया गया है और पार्कों में खेलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है, जिससे बच्चे घर में ही खेलकूद करते हैं परिणामस्वरूप अनावश्यक शोरगुल होता है, जो बच्चों व महिलाओं के प्रति हिंसा का कारण बनता है।
लॉकडाउन के दौरान सामाजिक स्तर पर लोगों का मेल-मिलाप प्रतिबंधित हो गया है, जिससे लोग अपना समय व्यतीत करने व अपने परिजन व मित्रों से बात करने के लिये सोशल नेटवर्किंग साइट्स व मोबाइल फोन का अत्यधिक प्रयोग करने लगे हैं जो दंपतियों के बीच कलह का प्रमुख कारण बन गया है।
लॉकडाउन के बाद से महिला पर परिवार, बच्चों की देखरेख, घरेलू कार्य के अलावा पति की यौनाचार इच्छाओं की पूर्ति की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी से दबाव बढ़ गया है। मुंबई के एक गैर-सरकारी संगठन को अपने सर्वे में एशिया के सबसे बड़े स्लम धारावी से कुछ चौंकाने वाले आँकड़े मिले। लॉकडाउन अवधि में जिन दम्पत्तियों ने यौन संबंध बनाये, कोरोना से संक्रमित होने वालों में ऐसे लोगों का प्रतिशत ज्यादा था। बहुत सारे दम्पत्तियों ने सामाजिक दूरी के दायित्व का पालन करते हुए यौनिक क्रियाओं से खुद को दूर तो रखा, परिणामस्वरूप उनमें अवसाद में वृद्धि होने से पारिवारिक कलह बढ़ गया।
घरेलू हिंसा की वैश्विक स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतरेस ने ऐसे हालात में महिलाओं एवं बच्चों के प्रति घरेलू हिंसा के मामलों में ‘भयावह बढ़ोत्तरी’ दर्ज किये जाने पर चिंता जताते हुए सरकारों से ठोस कार्रवाई का आहवान किया। अपने संदेश में यूएन महासचिव ने बताया कि हिंसा महज़ रणक्षेत्र तक ही सीमित नहीं है बल्कि महिलाओं एवं बच्चों के लिये सबसे ज़्यादा ख़तरा तब होता है जब उन्हें अपने घरों में सबसे सुरक्षित होना चाहिये। कोरोना काल में स्पेन से खबरें आईं कि कुछ महिलाओं ने घरेलू यातना से बचने के लिये खुद को कमरे या बाथरूम में बंद करना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप स्पेन की सरकार को लॉकडाउन के कड़े नियमों के बावजूद महिलाओं के लिये ढील बरतनी पड़ी।
अपने देश की भी सतही स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। चाइल्डलाइन इंडिया (गैर-सरकारी संगठन) के अनुसार, मात्र 11 दिनों (25 मार्च से 4 अप्रैल) में घरेलू हिंसा की 92,000 से अधिक शिकायतें टेलीफोन/ मोबाइल कॉल से प्राप्त हुई। एक समाचार पत्र के अनुसार ‘गरिमामयी जीने के अधिकार’ (अनुच्छेद—21) के तहत देश के भीतर विभिन्न थानों/ महिला थान/ महिला आयोगों/ मानवाधिकार आयोग/ नारी मुक्ति केंद्रों/ नारी चेतना…….. जैसे सरकारी/ गैर सरकारी स्थलों पर अबतक 93 हजार से ज्यादा महिला उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज कराई जा चुकी है, जो लॉकडाउन के दूसरे पहलू का एक भयावह दृश्य को प्रस्तुत कर रहा है।
भूमंडलीकरण और सूचना क्रांति के इस दौर में परिवार का दायरा बढ़ रहा है, पर भावनाएं सिमटती जा रही हैं। परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। संवाद रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फर्ज है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में, परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है। परिवार एक संसाधन की तरह होता है। परिवार की कुछ अहम ज़िम्मेदारियां भी होती हैं। इस संसाधन के कई तत्व होते हैं। जैनेन्द्र ने इतस्तत में कहा है, परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परम्परा में कुछ जनों की इकाई हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है”। महानगरों में बच्चों का नैतिक विकास बहुत कम हो रहा है और समाज में नैतिकता के पैमाने घटते जा रहे हैं। समाज में घटती नैतिकता के दुष्परिणाम हम सबके सामने हैं ही। घरेलू हिंसा का सबसे व्यापक प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। जिन बच्चों ने घरेलू हिंसा में अपना जीवन बिताया है उनकी सीखने, संज्ञानात्मक क्षमता और भावनात्मक विनियमन की शक्ति प्रभावित हो जाती है।
– नीरज कृष्ण