ख़ास-मुलाक़ात
लेखन का उद्देश्य सदैव जीवन का परिष्कार करना होता है: हरेराम समीप
वरिष्ठ हिन्दी ग़ज़लकार, कवि, दोहाकार और ग़ज़ल-आलोचक हरेराम राम समीप जी से पिछले दिनों पत्रिका के प्रधान संपादक के. पी. अनमोल की साहित्य के विभिन्न बिन्दुओं पर विस्तार से बातचीत हुई, जिसमें कई महत्त्वपूर्ण बातें उभरकर आयीं। अपने बड़ों से सम्वाद इसलिए ज़रूरी होता है कि हम अपने इतिहास, अपने परिवेश, अपने भविष्य को भली प्रकार से समझ सकें। यहाँ हस्ताक्षर के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है वह ख़ास-बातचीत।
के. पी. अनमोल- हरेराम समीप जी! सबसे पहले आप अपने आरम्भिक जीवन के बारे में कुछ बताएँ।
हरेराम समीप- अनमोल जी! मैं, मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक बेहद पिछड़े गाँव मेख में एक सामान्य किसान परिवार में पैदा हुआ। मेरे पिता स्वर्गीय शंकरलाल नेमा, एक समाजसेवी और विद्वान व्यक्ति थे। वास्तव में मेरे पिताजी और बड़े भाई श्री पुरुषोत्तम दास नेमा ही मेरे व्यक्तित्व के निर्माता रहे। बचपन से उन्होंने मेरी रचनात्मक दृष्टि को तराशा और मेरी सोच को सार्थक दिशा प्रदान की। युवा होते होते मैंने अपने परिवार में, अपने गाँव में और आसपास भयानक अभाव, अन्याय, अपमान, अज्ञानता और अंधविश्वास के चलते अनेक सत्ताओं की अमानवीय क्रूरताएँ देखी थीं, जिससे मेरा मन प्रश्नों का एक गोदाम बनता चला गया था। जीवन की विसंगतियों और विद्रूपताओं के प्रति यह प्रश्नाकुलता और यह बेचैनी एक प्रतिरोध के रूप में मुझमें सक्रिय होने लगी थी। इस प्रतिरोध चेतना से उर्जस्वित होकर मैंने अनेक जनांदोलनों में सक्रिय भाग लिया, पत्रकारिता शुरू की, लेख लिखे, विरोध किए और आपातकाल में भूमिगत रहकर प्रतिरोध किया। तभी 1975 में फरीदाबाद आकर एक औद्योगिक कम्पनी में नौकरी करते हुए श्रमिकों के साथ मिलकर आन्दोलन किये। कई बार नौकरी से निकाला भी गया, अभाव और दमन झेले। यही दौर था, जब मैंने मार्क्सवाद की वैज्ञानिक अवधारणा का गहन अध्ययन किया और उसे आत्मसात किया। संभवत: इन्हीं सबसे मिलकर मेरी लेखकीय प्रतिबद्धता और जनधर्मी सोच की पुख्ता ज़मीन बनी।
के. पी. अनमोल- आपका साहित्य की ओर रुझान कब और कैसे हुआ?
हरेराम समीप- यूँ तो साहित्य के संस्कार मुझे बचपन से माँ और पिता के धार्मिक साहित्य के नियमित पारायण को सुनकर मिले थे लेकिन कविता से साक्षात्कार मुझे मेरे मामा कविता-मर्मज्ञ श्री किशोरीलाल नेमाजी ने कराया। मेरे मामा का घर तब साहित्यिक पुस्तकों का भंडार था। मैं स्कूल की लम्बी छुट्टियों में उनके घर में रहता। उन्होंने घर में रखीं हिन्दी कविता की असंख्य पुस्तकों में से मुझे कबीर, तुलसी, निराला, प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त आदि के साहित्य से परिचित कराया, जिससे कविता के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ने लगी। जब जबलपुर के एक कॉलेज में दाखिला मिला तो वहाँ प्रसिद्द कथाकार प्रोफेसर ज्ञानरंजन का मार्गदर्शन मुझे मिल गया। संयोग से उन्हीं दिनों से महान कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के बड़े बेटे अजय चौहान जी द्वारा संचालित जिज्ञासा नामक साहित्यिक पुस्तक विक्रय केंद्र में पार्ट टाइम नौकरी भी मिल गयी, जहाँ मैंने दो बरस तक काम किया। चूँकि यह प्रेमचंद के बेटे अमृतराय जी की ससुराल थी और हंस प्रकशन का वितरण केंद्र भी था, जो मैं सम्भालता था। यहाँ हिन्दी साहित्य से परिचित हुआ। इन्हीं दिनों मेरे कवि का अंकुरण सन 1971 के आसपास गीतों के साथ हुआ। मेरी अन्य रूचियाँ जैसे- चित्रकारी, गायन और संगीत भी तब कुलबुलाती रहती थीं लेकिन इनमें से कोई भी सही शक्ल ग्रहण नहीं कर पायी। जब मैं पत्रकारिता की ओर झुका तब मैंने यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए सामयिक लेख और कथा-लेखन भी किया लेकिन मैं गीत, ग़ज़ल, दोहे और कविता के ही अधिक समीप रहा हूँ।
के. पी. अनमोल- आपका विशेष रचनात्मक लेखन दोहा और ग़ज़ल विधा का है। इन विधाओं में आप कैसे आये और आपकी प्रेरणा कौन रहे?
हरेराम समीप- मेरा मानना रहा कि यह कतई महत्वपूर्ण नहीं है कि कोई कितनी विधाओं में लिखता है बल्कि देखना यह है कि वह उस लिखने में रचता कितना है। लेखन की सार्थकता के इसी निकष को याद कर प्रारम्भ में अक्सर गीत सुनाते हुए मुझे बार-बार महसूस होता कि मैं गीतों द्वारा अपने समकालीन जीवन को सार्थक अभिव्यक्ति नहीं दे पा रहा हूँ और मुझे कोई अन्य विधा तलाश लेनी चाहिए। इसी प्रयास में मैंने पहले ग़ज़ल और फिर दोहा को अपनाया।
सन 1974 में जब मैं जबलपुर में ‘देशबंधु’ दैनिक अख़बार में काम करता था, वहाँ अख़बार में छपने के लिए कविताएँ और ग़ज़लें आती रहती थीं। इसी दौरान प्रखर ग़ज़लकार भवानीशंकर से मेरी मुलाक़ात हुई और उनकी ग़ज़लों के शेरों की बाहरी व भीतरी अर्थवत्ता ने मुझे इतना आकर्षित किया कि मुझमें ग़ज़ल–लेखन का बीज अंकुरित हो गया, जो फरीदाबाद की अदबी महफिलों में आकर पल्लवित व पुष्पित हुआ। लेकिन मैं सबसे अधिक प्रभावित दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों से ही हुआ।
दोहा लेखन मैंने बहुत बाद में शुरू किया। ख़ास बात यह रही कि जो भी दोहा लेखन हुआ, उसका अधिकाँश मैंने महानगर से उपनगर के बीच सफर करते हुए किया है। सन 1980 के आसपास जब मुझे नौकरी करने फरीदाबाद से दिल्ली जाना होता था। सुबह साढ़े सात बजे निकल कर और दो घंटे की यात्रा कर दफ्तर पहुँचता था, फिर शाम को उतनी ही यात्रा कर घर लौटना मेरी दिनचर्या बन गयी थी। कुछ लिखे बिना मुझसे रहा नहीं जाता था, तो भीड़ भरी ट्रेन में ही दोहे लिखने लगा।
के. पी. अनमोल- कृपया बताएँ कि आज का दोहा अपनी भाव-भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में पिछले दोहे से किस तरह भिन्न है?
हरेराम समीप- दोहा छन्द अपनी भाव-भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीन और मध्य काल से लेकर आज तक निरंतर पूरी ताज़गी के साथ अपने समय का साक्षी बनकर उपस्थित रहा है। इसका प्रमाण हैं वे लोकप्रिय दोहे, जो हमारे साहित्य और लोकजीवन के अक्षुण्ण अंग बनकर, हमारी संस्कृति में रच बस गए हैं। लेकिन निश्चित रूप से परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहे का सौन्दर्यबोध बदला है। अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आमजन के दुखों का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, शोषित है, बेबस है। वे इस आमजन के संघर्ष में साझेदार हैं। इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिम्बित हो रहा है। अत: जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है। इनमें आस्वाद का अंतर प्रमुखता से उभरा है।
के. पी. अनमोल- ग़ज़ल आपके लिए क्या है? आप उसकी क्या प्रमुख विशेषताएँ मानते हैं?
हरेराम समीप- ग़ज़ल के बुनियादी ढांचागत शिल्प की चर्चा को यदि छोड़ दूँ तो ग़ज़ल मेरे लिए फिक्र और फ़न की एक संवादधर्मी गेय विधा है। फ़िक्र अर्थात संवेदना दिल से निसृत होती है और किसी अन्य के दिल तक पहुंचाने के उद्देश्य से ग़ज़ल के शेर के द्वारा संप्रेषित की जाती है। शर्त यही है, अगर यह फ़िक्र वहाँ तक पहुँच गयी तो शेर सफल वरना फुस्स। वहीं फ़न अर्थात शिल्प इस संप्रेषण की नयी-नयी तरकीब निर्धारित करने का सौष्ठव प्रयत्न है। यह प्रयत्न ग़ज़लकार की ग़ज़ल के प्रति गहरी निष्ठा, लगन, समर्पण और साधना से सफल होता है। आशय यही है कि ग़ज़ल की प्रमुख विशेषताओं में उसकी गजलियत या शेरीयत सबसे अहम है और इसकी कसौटी शेर का प्रभावी होना ही है।
इसीलिये माना जाता है कि एक अच्छी ग़ज़ल के शेरों में सूक्ष्म सांकेतिकता हो, संवाद क्षमता हो, अनुभूति की तीव्रता हो, लयात्मकता हो, भावों की सशक्त संप्रेषणीयता हो, विषय की व्यापकता हो और जैसा पहले कहा गया है कि ज़बर्दस्त ग़ज़लियत हो। मैंने इन्हीं विलक्षण खूबियों के कारण ग़ज़ल को अपनाया है।
के. पी. अनमोल- आधुनिक ग़ज़ल का मिज़ाज कैसा है?
हरेराम समीप- आधुनिक ग़ज़ल उर्दू की परम्परागत इश्किया शायरी से बाहर निकल कर आसन्न सामाजिक व सांस्कृतिक विषयों को अभिव्यक्त कर रही है। उसकी प्रतिबद्धता वर्तमान मनुष्य की बदहाली, विसंगति और विद्रूपता को उजागर करने में है। इसके लिए आधुनिक ग़ज़ल ने अपनी नयी भाषा गढ़ी है, जिसमें उसने व्यंग्य के प्रतिरोधी तेवर को प्रभावी माध्यम बनाया है, नये बिम्ब और नए प्रतीकों का प्रयोग शुरू किया है ताकि वह व्यापक जनसामान्य की भावनाओं को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित कर सके।
के. पी. अनमोल- आधुनिक ग़ज़ल की इस नयी भाषा के बारे में ज़रा विस्तार से बताएँ?
हरेराम समीप- हम जानते हैं कि ग़ज़ल में भाषा की अहम भूमिका होती है। साथ ही यह भी कि ग़ज़ल को भाषा का सहज रूप ही रास आता है। भाषा की यही सहजता उसकी सम्प्रेषणीयता का मूल आधार भी बनती है। ग़ज़लकार जानता है कि उसके पाठक या श्रोता को कौनसी भाषा रास आयेगी, जिससे उसकी ग़ज़ल के शेर उसके ज़ेहन में सहजता से उतर जाएँगे। आज के ग़ज़लकार को यह भी पता है कि उसे आम आदमी के जीवन का चित्रण करना है, इसलिए वह उसी आम आदमी की आम फ़हम भाषा में ग़ज़ल कहता है, जिसे वह ख़ुद भी ओढ़ता-बिछाता है। अत: आधुनिक ग़ज़ल की नयी भाषा जनसामान्य की यही हिन्दुस्तानी भाषा है।
ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखें तो हम पाते हैं कि भारत में वली दकनी से लेकर आधुनिक शायरों तक की परम्परा से सम्पन्न यह ग़ज़ल कथ्य और भाषा के स्तर पर उत्तरोत्तर जनसामान्य के क़रीब ही आई है।
के. पी. अनमोल- हिन्दी ग़ज़ल में शब्दों के मात्रा भार को लेकर कई संशय हैं। आयातित भाषाओं के शब्दों, जिन्हें हिन्दी अब पूरी तरह अपना चुकी है, को लेकर कई बार भ्रम की स्थिति बनती है। इस समस्या का कोई उपाय?
हरेराम समीप- मेरे लिए ग़ज़ल का रचना शिल्प विलक्ष्ण है। सच कहूँ तो अरूज की अनेक पुस्तकें पढ़ कर और अनेक उस्ताद शायरों से मिलकर भी मैं उपरोक्त सन्दर्भ में कोई निश्चित धारणा नहीं बना पाया हूँ। अंतत: मुझसे ग़ज़ल में जो सध पाता है, मैं वही करता हूँ। सही-ग़लत के चक्कर की जगह मैं शेर के कथ्य और तगज्जुल पर अधिक मेहनत करना पसंद करता हूँ, मेरे लिए वही ग़ज़ल के प्राण हैं। यद्धपि मैं मानता हूँ कि ग़ज़ल की संरचना का यह महत्वपूर्ण पक्ष है और आपने इस विषय पर शोधपरक गम्भीर काम किया है, इस सम्बन्ध में अनेक लेख लिखे हैं, अत: इसकी विस्तार से चर्चा होनी चाहिए ताकि नए ग़ज़लकार भाषा की इन बारीकियों पर भी अमल कर सकें।
के. पी. अनमोल- आपकी नज़रों में आधुनिक ग़ज़ल का भविष्य क्या है?
हरेराम समीप- किसी विधा का भविष्य उसकी जीवन के प्रति दृष्टि और समय के साथ उसकी गतिमयता या प्रासंगिकता ही निर्धारित करती है। ग़ज़ल के लगभग सात-आठ सौ सालों के इतिहास से साफ पता चलता है कि ग़ज़ल को अपने समय के साथ चलना आता है। प्रेम या रूमान से चलकर अध्यात्म, दर्शन, फिर नीति, फिर देशभक्ति या राष्ट्रीय चेतना, फिर सामाजिक सौहार्द्र, विसंगत वर्तमान और पतनशील मानवीय मूल्य जैसे विषयों की मुखर अभिव्यक्ति करते हुए ग़ज़ल ने अपने विकास की असीम संभावना के प्रति हमें आश्वस्त कर दिया है। एक और बात है कि आज ग़ज़ल जनसंवाद की विधा के रूप में भाषाओं की सरहदें पार कर अनेक क्षेत्रीय भाषाओं में लोकप्रिय हो रही है, तब हम निस्संदेह कह सकते हैं कि ग़ज़ल का भविष्य उज्ज्वल और सुदृढ़ है।
के. पी. अनमोल- आपका मानना है कि आप एक प्रतिबद्ध लेखक हैं। लेखन एक सार्थक उद्देश्य के साथ हो। ऐसा क्यों?
हरेराम समीप- लेखन का उद्देश्य सदैव जीवन का परिष्कार करना होता है। जीवन, चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक, लेखक को उससे गहरे स्तर तक जुड़ना ही होता है, तभी वह जीवन-यथार्थ की अभिव्यक्ति पूरी ईमानदारी से कर पाता है।
मैंने कभी शौकिया या समय बिताने या सिर्फ वाहवाही लूटने के ध्येय से कुछ नहीं लिखा। मुझे लगता है कि मेरी गजलें, दोहे, कविताएँ या कहानियाँ अपने समय की बेचैनियों से ही उपजे हैं। मैंने इतना प्रयास अवश्य किया है कि इनमें जीवन का ताप मौजूद रहे और इनसे पाठक का जीवनबोध विकसित होता रहे. यही मेरे लेखन का अभीष्ट भी रहा है।
के. पी. अनमोल- अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएँ?
हरेराम समीप- मेरे लिए लेखन एक स्वस्फूर्त आत्म-संवाद है। अपने दिल की बात किसी आत्मीय से करने के बाद जैसा सुकून मिलता है, लगभग वैसा ही सुकून मैं कविता या ग़ज़ल लिख कर पाता हूँ। यह लेखन एक नितांत निजी कर्म है। इसकी एक सतत अन्वेषण प्रक्रिया है, जो मेरी संवेदना व अनुभूति को शब्दों में रूपायित करती रहती है।
मुझे अध्ययन में बहुत रूचि है। जब ग़ज़लें लिखना चाहा तो उर्दू का एक वर्ष का कोर्स किया और उर्दू ग़ज़ल पर अनेकानेक पुस्तकें लाइब्रेरी से लाकर पढ़ीं। लगभग सभी प्रमुख उर्दू शायरों की पुस्तकें खरीदीं और पढी फिर अपने समकालीनों को पढ़ा और अब नयी पीढ़ी को भी चाव से पढ़ रहा हूँ। इसके साथ लगभग सभी बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं को मैं मंगा कर नियमित पढ़ता हूँ।
के. पी. अनमोल- आपकी हर एक रचना में उसका समय बोलता है। साहित्य में उसका समय और परिस्थितियों का मौजूद होना कितना ज़रूरी है?
हरेराम समीप- मुंशी प्रेमचंद ने ‘साहित्य समाज का दर्पण’ ठीक ही कहा है। दर्पण में हम जब तक होते हैं तभी तक दिखाई देते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि आप वहाँ से चले जाएँ फिर भी वहाँ आपकी तस्वीर आती रहे या आप पिछले किसी की तस्वीर पर टिप्पणी कर पायें। दरअस्ल साहित्यकार जिस समय में जीता है, जो देखता है, जो भोगता है और जिन समकालीन विसंगतियों से प्रतिवाद करता है, उसे चित्रित करना चाहता है। दरअस्ल ये मेरे प्रश्नाकुल मन के उत्तर खोजते दोहे और शेर हैं, जो आपके समक्ष आये हैं।
के. पी. अनमोल- हम देख रहे हैं कि आधुनिक कविता विशेष रूप से ग़ज़ल में प्रेम की अभिव्यक्ति नितन्तर क्षीण होती जा रही है, जिससे जीवन के प्रति लगाव, आनन्द और जागरण के भाव घट रहे हैं। क्या प्रेम से विमुख होकर भी कविता लिखी जा सकती है?
हरेराम समीप- प्रेम हृदय की एक अनिवर्चनीय अनुभूति है, एक अनूठा एहसास है, जिसे किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता है। दरअस्ल प्रेम मनुष्य की कोमल भावनाओं का प्रतीक होता है, जो उसे सतत संवेदनशील, सौहार्द्रपूर्ण और उदार बनाए रखता है और सदैव उसमें कल्याणकारी भाव विकसित होता रहता है।
इसी वजह से कविता परम्परा के आरम्भ से लेकर आज तक प्रेम, कविता का केन्द्रीय विषय रहा है। कविता में प्रेम दो तरह से अभिव्यक्त हुआ है- एक वैयक्तिक अनुभूति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में, जो रूमान और अध्यात्म के शिखर की ओर यात्रा करता है। वहीं दूसरा यथार्थवादी संवेदना की तुर्श प्रतिरोधी मुद्रा में अपनी सम्पूर्ण जनधर्मी सोच को लेकर उतरता है और जो आज की कविता का स्वर बनता है लेकिन यह भी सत्य है कि बदलते वक्त के साथ प्रेम के मायने भी बदले हैं। अब प्रेम के अनेक रूप उभरते हैं, उसकी अनेक छवियाँ नज़र आती हैं।
जहाँ तक आज की ग़ज़ल का सवाल है, उसमें प्रेम का वह आत्मीय चेहरा जैसे अदृश्य हो गया है, जो पहले कभी दमकता था। ऐसा लगता है कि आज की ग़ज़ल लगभग प्रेम से विमुख होती जा रही है। उम्मीद है कि यह प्रेम-विमुखता जल्द समाप्त होगी। पिछले बरसों में कुछ नये ग़ज़लकार बिलकुल नये अंदाज़ में प्रेम की शानदार अभिव्यक्ति कर रहे हैं, यह एक सुखद समाचार है। इनमें प्रताप सोमवंशी, गौतम राजऋषि, के. पी. अनमोल आदि ग़ज़लकार प्रमुख रूप से रेखांकित किये जा सकते हैं। उनकी ग़ज़ल में जितना प्रेम स्त्री-पुरुष का अभिव्यक्त हुआ है, उतना ही प्रकृति से, पहाड़ से, समुद्र से, नदिया से और मनुष्यत्व का भी हुआ है, जो उनके लेखन को अधिक चेतना सम्पन्न और उल्लेखनीय बनाता है। बहरहाल, मेरा मानना है कि प्रेम एक शास्वत भाव है, जो कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। इसलिए साहित्य के सन्दर्भ में प्रेम सदैव ज़रूरी और प्रासंगिक तत्व बनकर रहेगा।
के. पी. अनमोल- आपका हिन्दी ग़ज़ल की आलोचना के बारे में क्या कहना है। आपने भी तो इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया है?
हरेराम समीप- नहीं भाई ‘समकालीन ग़ज़लकार: एक अध्ययन’ पुस्तक श्रृंखला हिन्दी ग़ज़ल की आलोचना पर काम नहीं है, बल्कि हिन्दी ग़ज़ल की पिछले चालीस वर्षों की विकास यात्रा को एक नए अंदाज़ में प्रस्तुत करने की एक कोशिश भर है। इस पुस्तक श्रृंखला में मैंने एक-एक ग़ज़लकार के व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रस्तुतिकरण आलेखों के रूप में किया है।
लोग यह कह रहे हैं कि हिन्दी ग़ज़ल की आलोचना पर काम नहीं हो रहा है। मेरा मानना यह है कि अभी तो हिन्दी ग़ज़ल ही उस आलोचक के पास तक नहीं पहुंची है, जिससे उसे आलोचना की अपेक्षा है। वह आलोचक और कोई नहीं वह आम जन है। अत: हिन्दी ग़ज़ल की आलोचना आमजन के बीच से ही निकलेगी, बाकी सभी समीक्षात्मक प्रयास या तो स्वयं ग़ज़लकारों के आत्मात्मलोचन के रूप में आ रहे हैं या प्रायोजित आलोचना के रूप में पारस्परिक आदान-प्रदान की तरह हैं। ऐसी प्रायोजित आलोचनाएँ, समीक्षाएँ, लेख आदि रचना का विज्ञापन तो कर सकते हैं, उसकी मार्केटिंग भी कर सकते हैं लेकिन उसे आलोकित नहीं कर सकते। आलोकित तो केवल आलोचना ही कर सकती है। मेरा आग्रह है कि समाज के बीच स्वयं रचना को ही अपनी आलोचना की ज़मीन तैयार करनी चाहिए।
के. पी. अनमोल- ‘समकालीन ग़ज़लकार: एक अध्ययन’, ‘समकालीन महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन दोहाकोश’ जैसे विशेष और अपनी तरह के काम करने के बाद आपकी भविष्य की क्या योजनाएँ हैं?
हरेराम समीप- भाई! लेखन तो एक अविराम यात्रा है। लिखे बिना अब चैन कहाँ आता है। फिलहाल तो ‘समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन’ के पांचवें खंड के लिए आलेख तैयार करने में व्यस्त हूँ। पिछले चार खंडों में 118 ग़ज़लकारों पर लेख लिखने के बाद भी बहुत से ऐसे ग़ज़लकार छूट गए हैं, जिन्होंने हिन्दी ग़ज़ल के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है।
के. पी. अनमोल- आपके दो कविता संग्रह आये हैं- ‘मैं अयोध्या’ और हाल ही में ‘शब्द के सामने’। बरसों पहले ‘मैं अयोध्या’ कविता संग्रह विवादों में रहा, उस विवाद के बारे में कुछ बताइये।
हरेराम समीप- मैं बुनियादी तौर पर छांदस कवि हूँ लेकिन अपवाद स्वरूप जिन रचनाओं ने छंद में आने से साफ़ मना कर दिया तो उन्हें मैंने छंद मुक्त कविता के रूप में सहेज लिया। ‘मैं अयोध्या’ संग्रह में दो लम्बी कविताएँ हैं, जिनमें से एक बाबरी मस्जिद के गिरने के दिन लिखी कविता है, जिसका शीर्षक ‘मैं अयोध्या’ है इस कविता में समय की अदालत में अयोध्या नगर अपने जन्म से आज तक का अपना साझा सांस्कृतिक इतिहास का बयान दर्ज करता है लेकिन साथ ही गुहार लगाता है कि आज की द्वेषभरी साम्प्रदायिक ताकतों से उसे बचाया जाए। जनवरी 1993 में जब इसका नुक्कड़ पाठ मंडी हाउस पर हुआ तो शहर की कट्टर हिन्दू ताकतों ने मुझ पर हमला भी किया और धमकाया कि इस कविता को मैं नष्ट कर दूँ वरना वे मुझे मार देंगे। इस प्रकरण में पत्रकारों ने भी मेरी बहुत सहायता की थी। खैर बाद में इसे मैं भूल गया था लेकिन श्री रामकुमार कृषक जी और स्व. कुबेर दत्त जी ने इसे कविता संग्रह में शामिल करने की सलाह दी और शीर्षक भी इसी कविता का ही सुझाया। स्वयं कुबेर दत्त जी ने इसके आवरण हेतु अपनी प्रसिद्ध पेंटिंग का फोटो भी दिया। दूसरी लम्बी कविता ‘सत्येन’ एक क्रांतिकारी की नकली मुठभेड़ में की गयी हत्या और प्रतिरोध की संस्कृति के दमन की मार्मिक कथा है, जिस पर भी बहुत आपत्तियाँ दर्ज की गयी थीं और आरोप लगा की यह नक्सलवादी आन्दोलन की सहानुभूति में लिखी है। मुझे आश्चर्य तब हुआ जब 2008 में हरियाणा साहित्य अकादमी का 2008 का श्रेष्ठ कृति पुरस्कार इसके लिए घोषित हुआ, जिसे बाद में नामवर जी द्वारा चंडीगढ़ में प्रदान किया गया।
के. पी. अनमोल- पिछले कुछ वर्षों में युवा ग़ज़लकारों ने तेज़ी से ध्यान खींचा है। वे कथ्य और विषय-वस्तु दोनों में विस्तार कर रहे हैं। कितना सन्तुष्ट हैं आप इनसे।
हरेराम समीप- दुष्यंत के बाद निश्चित रूप से हिन्दी ग़ज़ल ने अनेक सीमान्त पार किये हैं। शिल्प, कथ्य और उसके मिज़ाज के स्तर पर उसमें नवीनता स्पष्ट दिखाई दे रही है। इसमें कुछ युवा ग़ज़लकारों ने सबका ध्यान खींचा है, जिनमें के. पी. अनमोल, प्रताप सोमवंशी, वीरेन्द्र खरे, डॉ. भावना आदि प्रमुख हैं। उनमें अनेक स्तर पर नवीनता देखी जा सकती है। वे उन जनवादी मूल्यों से जुड़े भी हैं, जो ग़ज़ल के नये अंदाज़, नए तेवर और नई भाषा हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा को आगे बढ़ाने में सहायक हैं।
बस चिंता अब भी वही है कि आज फैशन की तरह अनेक ग़ज़लकार धड़ाधड़ ग़ज़लें पेल रहे हैं और शार्टकट मार कर प्रसिद्धि प्राप्त करने की होड़ में लगे हैं, जिससे बड़े भ्रम की स्थिति है कि किसे ठीक माना जाए, किसे नहीं। दरअस्ल, सृजन का मूल्यांकन उसके परिमाण से नहीं हो सकता कि आपने कितनी सौ ग़ज़लें लिखी हैं या कितने ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए हैं अपितु उनकी गुणवत्ता से होता है कि उनमें जनता को उद्वेलित करने वाली ग़ज़लें कितनी हैं? मसलन दुष्यंत ने पचासेक ग़ज़लें ही लिखी हैं और वे आज भी शिखर पर हैं, वहीं दूसरे हैं जिनके दसों ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं परन्तु उनकी एक ग़ज़ल तक जनता की कंठहार न बन पायी।
अत: ज़रूरी है कि नए ग़ज़लकार कुछ सार्थक करने के लिए ग़ज़ल की अपनी परम्परा की निर्मम व्याख्या करें, अपने समय से निर्भीक साक्षात्कार करें और फिर अपनी ग़ज़लों से अपने भविष्य की नई प्रस्तावना गढ़ें। इसके लिए उन्हें स्पष्ट काव्यदृष्टि के साथ स्पष्ट जीवन-दृष्टि भी रखनी होगी। मुझे लगता है, इन गजलकारों को अपनी परम्परा के गहन अध्ययन की आवश्कता है। उम्मीद है कि अध्ययन और अभ्यास से ही ग़ज़ल में परिपक्वता आयेगी तथा शब्द सामर्थ्य में वृद्धि होगी। मेरा विचार है कि नयी पीढ़ी को ग़ज़ल को लेकर एक केन्द्रीय पत्रिका की शुरुआत भी करना चाहिए, जिसके माध्यम से समग्र ग़ज़ल पर एक सार्थक विमर्श का वातावरण निर्मित किया जा सके। मुझे विश्वास है कि इससे हिन्दी ग़ज़ल के नए क्षितिज तलाशने में हमे अवश्य मदद मिलेगी। मैं हिन्दी ग़ज़ल के नए भविष्य का आह्वान करता हूँ।
के. पी. अनमोल- आपने हमें अपना अमूल्य समय दिया और हमें अनेक जानकारियों से समृद्ध किया। पत्रिका परिवार आपका ह्रदयतल से आभारी है।
हरेराम समीप- आपका भी धन्यवाद भाई।
– हरेराम समीप