लिखने के पूर्व वैचारिक दृष्टि का साफ़ होना आवश्यक है- महेश कटारे सुगम
आज ‘ख़ास-मुलाक़ात’ पन्ने के अंतर्गत हम मिलेंगे एक ऐसी शख्सियत से जो ख़ुद स्वभाव से बहुत सुगम है, लेकिन आम लोगों के दुर्गम जीवन की जटिल समस्याओं को अपनी कलम की आवाज़ देकर एक अरसे से माँ शारदा की साधना में लीन हैं।
मध्यप्रदेश के सागर ज़िले के छोटे से गाँव बीना के रहवासी वरिष्ठ साहित्यकार महेश कटारे ‘सुगम’ जी वैसे तो कई विधाओं में लिखते हैं लेकिन इनकी ग़ज़लों की बात ही निराली है। दुष्यंत और अदम गोंडवी की परंपरा की इनकी हिन्दुस्तानी ग़ज़लें आज के दौर की बड़ी से बड़ी विसंगतियों को सरल लहज़े में प्रस्तुत कर पाठकों के हृदय में अपना अलग स्थान बनातीं हैं। इनकी रचनाओं से आम इंसान ख़ुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है और अपने मन में दबी पीड़ा को गुनगुनाता है।
अपनी लेखन के माध्यम से देश भर में प्रसिद्ध ‘सुगम’ जी की अब तक विभिन्न विधाओं की कई क़िताबें प्रकाशित हो चुकी है। दूरदर्शन और आकाशवाणी से इनकी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है, तो इन्हें कई पुरस्कारों/सम्मानों से भी नवाज़ा जा चुका है। इनकी एक ख़ासियत यह भी है कि इन्होंने ही बुंदेली भाषा में सर्वप्रथम ग़ज़ल लिखी और उसे देशभर में स्थापित किया। इनकी कई रचनाएँ स्कूली पाठयक्रमों में भी पढ़ाई जाती है तथा इनके साहित्य पर शोध-कार्य भी हो चुका है।
माँ शारदा के ऐसे प्रतिभावान पुत्र का ‘साक्षात्कार’ किया है हमारी पत्रिका के प्रधान संपादक और उम्दा ग़ज़लकार अनमोल ने। उनके मध्य हुई वार्ता आप सबके लिये प्रस्तुत है-
अनमोल- आपके लेखन की शुरुआत किस विधा में और कैसे हुई?
सुगम- कविता में रुझान तो नवीं क्लास से ही शुरू हो गया था। हुआ यूँ था कि वी. सी. हायर सेकेंडरी स्कूल, ग्वालियर के वार्षिक जल्से में व्यंग्य गीतकार स्वर्गीय मुकुटबिहारी सरोज जी का काव्य-पाठ सुनकर ही मुझमें कविता लिखने की प्रेरणा जागी और कविता के बीजों का प्रस्फुटन हुआ।
नौकरी में भिण्ड आने के बाद मेरा परिचय भाई ए. असफल, रामानंद स्वर्ण, दरवेश, ओमप्रकाश नीरस आदि से हुआ, जो सभी बाल कहानियों के प्रतिष्ठित रचनाकार थे। आर्थिक स्थिति नाज़ुक थी ही, उस समय लगभग सभी पत्रिकाएँ मानदेय दिया करतीं थीं। ‘सरिता’ उस समय अच्छा मानदेय देती थी सो दिल्ली प्रेस प्रकाशन की सभी पत्रिकाओं में और जहाँ भी अच्छा मानदेय मिलता उसमें लिख भेजता। इस तरह लेखन की शुरुआत हुई।
अनमोल- लेखन के शुरुआती दौर में किन-किन रचनाकारों ने आपको प्रभावित किया? कुछ पसंदीदा लेखकों के नाम भी बताएँ।
सुगम- सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एवं कहानीकार श्री महेश कटारे ग्वालियर वाले मेरे सबसे नज़दीक थे। उनकी कहानियों से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ। ग्रामीण परिवेश पर उनकी कहानियाँ बेजोड़ हैं। अन्य रचनाकारों में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मन्नू जी के साथ नयी पीढ़ी में ए. असफल, मनोज रूपदा, गीतांजलि श्री, उर्मिला शिरीष और इनके जैसे बहुत सारे नए कहानीकारों ने भी प्रभावित किया। हाँ, प्रेमचंद तो आदर्श और प्रेरक कथाकार तो थे ही।
अनमोल- इनमें से किसी के साथ कोई मज़ेदार वाक्या है, जो आप हमारे पाठकों को बताना चाहेंगे?
सुगम- जी, मज़े की बात यह है कि महेश कटारे जी (ग्वालियर वाले) तो प्रतिष्ठित कथाकार थे ही, तभी मैंने भी कहानियों में अपने हाथ आज़माना शुरू कर दिया। कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होने लगीं। लेकिन जो पाठक महेश कटारे जी (ग्वालियर वाले) को पढ़ चुके थे, उन्हें मेरी कहानियाँ कमज़ोर लगतीं। कई पाठक महेश कटारे जी (ग्वालियर वाले) के पते पर खरी-खोटी प्रतिक्रियाएँ भी भेज देते। महेश कटारे जी (ग्वालियर वाले) उन्हें बताते-बताते परेशान हो जाते कि वो उनकी कहानी नहीं है, महेश कटारे सुगम की कहानी है। इस तरह उन्हें मेरी वजह से ख़ूब खरी-खोटी सुननी पड़ी।
अनमोल- हा हा हा हा…एक बार तो मैंने भी आपको सूचित कर दिया था कि ज्ञानोदय के साहित्य वार्षिकी अंक में आपकी एक कहानी छपी है, जबकि वो कहानी महेश कटारे जी (ग्वालियर वाले) की थी।
सुगम- हाँ, एक और वाकया याद आ रहा है। 1987 में मेरी कहानियाँ ख़ूब छप रहीं थीं और मैं ‘हंस’ में कहानी भेजने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। तभी स्वर्गीय राजेन्द्र यादव जी का एक व्यक्तिगत पोस्ट कार्ड मिला- “प्रिय सुगम, कोई कहानी भेजें।” उनके इस आत्मीय सन्देश को पढ़कर मैं अभिभूत हो गया और उन्हें एक कहानी भेज दी, प्रकाशन के बाद जिसकी ख़ूब चर्चा हुई।
अनमोल- अच्छा ये बताइये कि बाल साहित्य और कहानियाँ लिखते-लिखते आपकी लेखनी ग़ज़ल की और किस प्रकार प्रवृत्त हुई?
सुगम- जी, भिण्ड में मेरे एक रचनाकार मित्र गोविंद सक्सेना जी ग़ज़ल कहा करते थे। उनकी ग़ज़लें मुझे बहुत अच्छी लगतीं थीं। इसी बीच मैं दुष्यंत जी का ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ पढ़ रहा था, तो अचानक ख़याल आया कि यदि बुंदेली में ग़ज़ल कही जाये तो कैसा रहेगा!
मैंने सक्सेना जी से इस बारे में विमर्श किया और सीधे बुंदेली ग़ज़ल पर काम करना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में बुंदेली ग़ज़ल ‘हंस’ से लेकर सभी अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी।
1987 में मेरा ट्रांसफर विदिशा ज़िले की कुरवई तहसील में हो गया। कुरवई नवाबी स्टेट हुआ करती थी सो यहाँ शायरों का अच्छा-खासा जमावड़ा था। उनके साथ रहकर फिर पूरे 25 वर्षों तक सिर्फ ग़ज़ल और बुंदेली ग़ज़ल पर ही काम किया और सारी विधाएँ पूरी तरह पीछे छूट गयीं।
अनमोल- मतलब बुंदेली ग़ज़ल के प्रणेता का श्रेय आपको जाता है! कैसा महसूस करते हैं एक ऐतिहासिक कार्य करके, जिस वजह से आपको सदियों तक याद रखा जायेगा?
सुगम- निश्चित रूप से ख़ुशी होती है और इसलिए भी कि बुंदेली लोक कवि ईसुरी के बाद बुंदेली में गंभीर लेखन नहीं हुआ था। तब तक बुंदेली के लेखन को हास-परिहास के लिए ही जाना जाता था।
अनमोल- आपको इस पावन कार्य के लिये बहुत बहुत साधुवाद। मेरे विचार में आम आदमी की वेदना ही आपकी ग़ज़लों का मुख्य स्वर है, आप क्या कहेंगे?
सुगम- जी, मेरा लेखन पूरी तरह से प्रतिबद्ध लेखन है। मेरी प्रतिबद्धताएँ पूरी तरह आम आदमी के साथ हैं।
अनमोल- आपकी ग़ज़लें हिन्दुस्तानी के महान शायर दुष्यंत कुमार व अदम गोंडवी की अगली कड़ी की रचनाएँ लगतीं हैं। इनका कोई ख़ास प्रभाव?
सुगम- ये मेरे प्रेरणा स्रोत हैं और इनको पढने के बाद ही मुझे इस तरह की ग़ज़लें लिखने की ऊर्जा मिली या कहूँ कि इन्होंने ही मेरी चेतना को अपने मुकाम तक पहुँचाया।
अनमोल- आज हिन्दुस्तानी ग़ज़ल को किस मुकाम पर पाते हैं आप? इस क्षेत्र में युवाओं से क्या आशा है?
सुगम- ग़ज़ल आज हिंदी साहित्य की सबसे लोकप्रिय और सबसे ज़्यादा लिखी जाने वाली विधा है। युवाओं में विभिन्न समस्याओं को लेकर जो आक्रोश है वह ग़ज़ल के माध्यम से सामने आ रहा है। ग्रामीण परिवेश में भी दूसरी विधाओं की अपेक्षा ग़ज़ल ने अपनी ज़्यादा पकड़ बनाई है। मैं तो गाँव-गाँव में बुंदेली की ग़ज़ल-गोष्ठियाँ करवाता रहता हूँ।
अनमोल- आपकी नज़र में एक अच्छी ग़ज़ल में क्या विशेषताएँ होनी चाहिए?
सुगम- ग़ज़ल में सम्प्रेषणीयता की भूमिका को मैं प्राथमिकता के तौर पे देखता हूँ। दिल में बेचैनी पैदा करने वाली ग़ज़ल को मैं अच्छा मानता हूँ। मनोरंजन करने वाली कोई भी साहित्यिक विधा मुझे नहीं भाती।
अनमोल- आप लम्बे अरसे से साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। अपनी युवावस्था के समय और वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक परिदृश्य में क्या अंतर पाते हैं?
सुगम- भाई अनमोल जी, अंतर तो बहुत आ गया है। बाज़ारवाद ने साहित्यिक परिदृश्य को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। पहले रचनाकार का मूल्यांकन करने वाले लोग आपको आशीर्वाद देने की ख़ुद पहल करते थे। आज तो रचना गौण हो गयी है, चेहरा ही केंद्र में रहता है। आपकी पहुँच, पकड़ ही ज़्यादा मायने रखने लगी है। पुरस्कार की रेवड़ियाँ भी चुन-चुनकर बाँटी जाने लगी हैं। हाँ, आज भी कुछ लोग और संस्थाएँ पूरी ईमानदारी से साहित्य-सेवा में जुटी हुई हैं लेकिन इनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं।
अनमोल- विमर्श अथवा वाद पर आपके क्या विचार हैं? क्या साहित्य को विभिन्न वादों अथवा विचारधाराओं में बांटा जाना सही है?
सुगम- हर लेखक अपने-अपने सरोकारों से जुड़ा हुआ है। अब कोई किसी के कहने से अपने स्वार्थ के सरोकारों को छोड़ देगा क्या? संभव भी नहीं है। इसलिए ये सब तो चलेगा। वैसे एक लेखक को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास ज़रूर होना चाहिए। वाद कोई बुरा नहीं है यदि वह समाज के हितों का पोषक हो। उसमें कोई पूर्वाग्रह न हो और वह किसी आकांक्षा का मुखपक्षी न हो तो।
अनमोल- अच्छा, मैंने सुना है आपके सृजन पर शोध-कार्य भी हुआ है। हमारे पाठकों को इस बारे में जानने की बड़ी जिज्ञासा है।
सुगम- हाँ, कॉलेज की एक प्रोफ़ेसर डॉ. संध्या टिकेकर ने मेरे समग्र रचना संसार पर एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक मेरे पास अभी तक नहीं आ पायी है। हाँ, प्रकाशित ज़रूर हो गयी है।
अनमोल- उम्र के इस पड़ाव पर अपनी सृजन यात्रा से संतुष्ट हैं? यदि नहीं तो क्यों?
सुगम- लेखन से संतुष्टि…..हा हा हा हा……वो तो कभी हो ही नहीं सकती।
अनमोल- आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का उपयोग बहुत अधिक बढ़ गया है। कई साहित्यिक पत्रिकाएँ इन्टरनेट पर अपनी पहचान बना रही हैं। दिग्गज रचनाकार भी फेसबुक के माध्यम से अपने पाठकों से सीधे जुड़ रहे हैं। आप इस स्थिति को किस तरह देखते हैं?
सुगम- ये एक क्रांतिकारी पहल है। इससे जुड़ने का सुखद अनुभव ही तो है जो आज आपसे मुख़ातिब हूँ। फेसबुक न होती तो आपसे भी परिचय न होता। कब से मैं हूँ, कब से आप! एक अपरिचय की स्थिति बनी हुई थी। और भविष्य तो वैसे भी ई-पत्रिकाओं का होगा। इससे बेहतर और हो भी क्या सकता है। देखिये…..आप वहाँ बैठकर मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं, कितना मज़ा आ रहा है। पाठकों को भी एक साथ कई पत्रिकाएँ मुफ़्त उपलब्ध हैं। वाह्ह्ह्ह!!! ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं था। थैंक्स इलेक्ट्रोनिक मीडिया।
अनमोल- आज के भावना शून्य होते समाज में साहित्यकारों का क्या दायित्व होना चाहिए?
सुगम- आज के भावना शून्य समाज में संवेदनाओं का स्फुटन, नैतिक मूल्यों की वक़ालत, दबे-कुचले लोगों में संघर्ष की आग और आत्मविश्वास को विकसित करने की भावना को बढ़ाना एक साहित्यकार का दायित्त्व होना चाहिए। लेखक को लिखने से पूर्व ख़ुद से पूछना आवश्यक है कि आख़िर वह लिख क्यों रहा है। जब उसे ख़ुद से इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर मिल जाये, वह तभी लिखने की भूमिका अदा करे। लिखने के पूर्व वैचारिक दृष्टि का साफ़ होना आवश्यक है।
अनमोल- अपने परिवार के बारे में कुछ बताएँ?
सुगम- अनमोल जी हर बार की तरह इस बार भी क़ामयाबी का श्रेय मेरी पत्नी को जाता है, जिसने साहित्य की ए, बी, सी, डी को न समझते हुए भी मुझे कभी कोई अवरोध पैदा नहीं किया। मेरी पत्नी मीरा कटारे के साथ-साथ अपने दोनों पुत्र प्रभात कटारे व प्रशांत कटारे, दोनों पुत्रवधुओं सोनम कटारे एवं निधि कटारे की भी प्रशंसा करना चाहूँगा कि ज़िम्मेदारियों के समाप्त होते ही सेवाकाल के दो वर्ष पूर्व ही वी.आर.एस. लेने हेतु प्रेरित किया ताकि पूरे मनोयोग से लेखकीय ज़िम्मेदारियों का निर्वहन कर सकूँ। आशीर्वाद का हाथ रखने के लिए 88 वर्षीय माँ है, आशीर्वाद देने के लिए बेटे और बहुएँ और स्नेह करने के लिए दो छोटी-छोटी पोतियाँ और साथ चलने के लिए पूरी तरह स्वस्थ पत्नी है। इनके अलावा मेरी एक शादीशुदा बेटी रश्मि व्यास है, उसकी दो बेटियाँ व एक बेटा मुझे नानाजी का सुख देते हैं इससे ज़्यादा और कुछ चाहत है भी नहीं।
अनमोल- हमारी पत्रिका के पाठकों के लिए कोई संदेश?
सुगम- भाई अनमोल जी के कुशल संपादन में निकलने वाली वेब पत्रिका ‘हस्ताक्षर’ के अभी तक के अंक मैंने देखे है और इसके साथ ही ‘साहित्य रागिनी’ के कुछ अंक भी पढ़े हैं। बेहद मेहनत और लगन के साथ बहुत ही उपयोगी सामग्री का संग्रह अनमोल जी की सूझ-बूझ का ही परिणाम है। हर अंक के साथ उत्तरोतर यश की ऊँचाइयाँ छुए ऐसी मेरी कामना है।
महेश कटारे ‘सुगम’ एक नज़र में-
जन्म- 24 जनवरी, 1954
जन्मस्थान- ललितपुर (उ.प्र.) के पिपरई गाँव में
प्रकाशन- हंस, साक्षात्कार, प्रयोजन, वर्तमान साहित्य, सरिता, अभिनव प्रयास, पराग, चकमक, समाज कल्याण जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
प्रकाशित कृतियाँ- प्यास (कहानी संग्रह), गाँव के गेंवड़े (बुंदेली ग़ज़ल संग्रह), हर दम हँसता-गाता नीम (बाल कविता संग्रह), तुम कुछ ऐसा कहो (नवगीत संग्रह)
विशेष- हिंदी साहित्य में बुंदेली ग़ज़ल विधा के प्रणेता
सम्प्रति- स्वास्थ्य विभाग, कुरवाई ज़िला- विदिशा (म.प्र.) में प्रयोगशाला तकनीशियन के पद से सेवानिवृत
संपर्क- ‘काव्या’ चंद्रशेखर वार्ड, बीना, ज़िला- सागर (म.प्र.)
मो.नं.- 09713024380
– के. पी. अनमोल