उभरते-स्वर
रेत का घरोंदा
बना लिया सागर किनारे घरोंदा
लहर दर लहर उकेर देती उसे
एक आकार देती घरोंदे को
दूसरी मेरे नीरव मन को
प्रकृति के सन्नाटे में जैसे
बुन देता हो कोई सांय-सांय
आज नभ में भी उन्मुक्त
विचर रहे बादल उमड़ रहे
बूँद-बूँद गिरती घरोंदे पर
माटी के तत्व रेशे से बिखर रहे
एकटक-सी देखती हूँ दोनों को
ये जो बह रहा घरोंदा नहीं मेरा
न कोई बाहर की सत्ता इसमें
न कोई आलिंगन जीवन का
है तरल विचलन मेरे मन का
रेत में चंद लम्हों से बिखर
टूट जाते सारे अरमान विकल
यही विधि का नियामक
यही एक अनमोल तत्व
क्या यही होगा जीवन
जिसमें लिखा बह जाना
भीतर का भीतर ही
तेज गर्जना हुई आज
जैसे कोई कह रहा रुकने को
थामने को सारी गति
क्या थम जायेगा मन का
ये तूफान भीतर का
रह जायेगा मेरा भी घरोंदा
न बह पायेगा अब वो
इस जीवन का खेल में
रह जायेगा शेष वो
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ख्व़ाबों का कारवाँ
फिर आज किताब से एक पन्ने ने मुँह खोला
दस्तक शायद खिड़की पर हुई किसी की
जो न लौटा बरसों से इस तरफ
महक उठी हैं फिज़ाएँ फिर उस गली
सुबह के रंगों को दोपहर में पकते देखा
चाँद तारों को आँगन में सजदा करते देखा
ले कलम खुद ही नापे पैमाने ज़िन्दगी के
किया हिसाब अपने हिस्से के हर घूंट का
साँसो संग लम्हे दर लम्हे जो याद आये
हर मोड़ जो था जहन में छुपाये
जिन्दगी का कारवाँ चलेगा कितना न ख़बर
हर शाम यूँ ही ढलेगी सुबह के इंतज़ार में
तकिये पे कुहनी दे एकटक देखती तुझे
रंग उड़ेलती आकार देती तुझे
है इल्म तूने बसाया दूसरे जहां में आशियाना
पर होड़ लगी है मेरी रुह को तेरे ख्व़ाब सजाने की
– डॉ. गरिमा चारण