आलेख
रीतिकालीन कृष्णभक्ति काव्य और नज़ीर अकबराबादी: अशरफ़ अली
व्यक्ति और समाज का नियामक बिन्दु प्राचीन काल से मध्य काल तक धर्म ही रहा है। धर्म जीवन की एक ऐसी दिशा है जो व्यक्ति और समाज को एक सूत्र में बाँधने का काम भी करती है और व्यक्ति और समाज में सामान्य रूप से न भरने वाली खाई खोदकर वर्ग विभेद भी पैदा करती है। इसी धर्म के आधार पर भारतीय समाज एक लम्बे समय से अलग-अलग वर्गों में बँटा हुआ था-हिन्दू समाज-मुस्लिम समाज। धार्मिक सहिष्णुता और धार्मिक समन्वयवाद को आधार बनाकर तत्कालीन कवियों ने दोनों की धार्मिक आस्थाओं को अपनी कविता का विषय बनाया। धर्म का जो विकृत और स्थूल रूप मध्यकालीन समाज में था उसने उस समय के साहित्य को धर्म के स्वस्थ रूप पर विचार करने को विवश किया। भारतीय साधना के इतिहास में उत्तर भारत में कृष्ण भक्ति का उन्मेष एक ऐसा मोड़ था, जहाँ पर बाह्य जीवन में चलने वाले झंझावात में प्रकाश स्तम्भ खोजना अनिवार्य हो उठा। जिस मुगल शासन में कृष्ण-भक्ति का आविर्भाव हुआ वह शान्ति और समृद्धि का युग था। राजनीति में कुछ शासकों में चाहे टीस उठती रही होगी, किन्तु जनसाधारण राजनैतिक जीवन से तटस्थप्राय था, वह बाह्य संघर्ष में कोई रूचि नहीं लेता परिलक्षित होता। यदि उसे राजनीति में रूचि होती तो रावण-दलनकारी प्रभु रामचन्द्र यशोदा नन्दन कृष्ण से अधिक प्रिय हुए होते। किन्तु यह ऐतिहासिक तथ्य है कि कृष्ण-भक्ति ही अधिक लोकप्रिय हुई। ईश्वर के जिस रूप को कृष्ण-भक्ति ने अपनाया वह धर्म रक्षक, विजेता न होकर, रंजक, ललित, मनोज्ञ क्रीड़ाप्रियता का है।
रीतिकालीन कवियों ने समय-समय पर ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, राजनीति, धर्मनीति आदि का भी गुणगान किया है लेकिन उनका प्रिय विषय शंृगार ही रहा है। कविगण नायक-नायिकाओं के मिलन ओर विरह, मान और अभिसार की सरस चर्चा में तत्लीन थे। विलासिता के इस युग में राजा और नवाबों के अन्तः पुर भिन्न-भिन्न वय और रूचि, रूप और सौन्दर्य की नायिकाओं से भरे रहते थे। परिणाम यह हुआ कि रीतिकाल की काव्य रचना में शृंगार की बाढ़ सी आ गई। इस काल में कवि की प्रतिभा भी बहुत गिर गई। ‘‘कविर्मनीषी, परिभभू, स्वयंभू’’ के गौरव से मंडित कवि इस काल में राज-सभा के रसिक चाटुकार बन कर रह गए। इस प्रकार के कवियों के लिए साधारण जन-जीवन का कोई महत्त्व न था। उन्होंने कभी इसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। रीतिकालीन कवि राजदरबारों में नायिका के नख-शिख वर्णन के साथ राधा-कृष्ण को साधारण नायक-नायिकाओं के रूप में चित्रित कर रहे थे। श्री कृष्ण का रीतिकाल में जिन विशेषणों के साथ चित्रत किया गया है, उनमें श्याम, साँवले, सँवलिया, देवकीनन्दन, मुरलीघर, बंशीधर, द्धारिकाधीश, माधव, केशव, मुकुन्द, राधारमण, गोपीनाथ, वासुदेव, वृन्दावन बिहारी इत्यदि प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण इस युग में आसानी से रिरिधर से मुरलीधर बन गये। यहाँ यह बात स्पष्ट होती है कि श्री कृष्ण का वह मनमोहक स्वरूप राधा की आभा से प्रकाशित होता था। रीतिकाल में शंृगार रस की अधिष्ठाजी के रूप में राधा की स्थापना की गयी। यह राधा सर्वशक्ति-सम्पन्ना हैं। राधा के प्रकाश से ही श्री कृष्ण प्रकाशित होते हैं-
‘‘मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ
जा तन की झाँई परैं, स्यामु हरित-दुति होइ।’’1
भगवान कृष्ण जो भारतवर्ष की बहुत बड़ी जनता के परमाराध्य हैं और जिनको परम ब्रह्मा का पूर्णवतार माना जाता है, कृष्णस्तु भगवान स्वयम्। उनको साधारण नायक के रूप में चित्रित कर हमारे उपास्य की छवि धूमिल कर रहे थे। ऐसे समय में मियाँ नज़ीर अकबराबादी ने भगवान् कृष्ण की विविध लीलाओं का सरस गान किया और कहीं कामुकता की छींट भी नहीं छू सकी। सर्वत्र कवि की आस्था, श्रद्धा और भक्ति के दर्शन होते हैं। भारत एक विशाल विस्तृत हिन्दू प्रधान देश है। नज़ीर के अविर्भाव काल में भारत विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का पुष्पवत्तक रहा है। हिन्दू, मुस्लिम, जैन-बौद्ध, सिख, ईसाई विभिन्न धर्मानुयाय नज़ीर के समय में मौजूद थे। शासक वर्ग मुस्लिम एवं अल्पसंख्यक था, जबकि शासित वर्ग हिन्दू और बहुसंख्यक था। भक्ति का पखेरू अपने पंख समेट चुका था फिर भी विभिन्न सम्प्रदाय प्रेम और भक्ति पर बल दे रहे थे। तात्पर्य यह है कि ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति में इन सम्प्रदायों का पूर्ण विश्वास था। पुराणों में व्याख्यायित देवी देवताओं के प्रति भी जन-मानस में श्रद्धा थी। कृष्ण-भक्ति की प्रधानता के साथ-साथ लोगों में शिव जी के प्रति भी भक्ति भावना थी।
नज़ीर का संबंध मुख्यतः ब्रज-क्षेत्र से था। इसलिए नज़ीर का अन्य देवी-देवताओं के साथ कृष्ण के प्रति मुख्य रूप से आकर्षित होना नैसर्गिकता का प्रतीक हैं। नज़ीर का संबंध शिक्षा-दीक्षा अथवा बुद्धिजीवी वर्ग से था। वे मिश्रित समाज के अभिन्न अंग थे। हिन्दू अथवा मुसलमान सभी में उनकी श्रद्धा थी और सभी उनके प्रति प्रेम एवं श्रद्धा-भाव रखते थे। अध्यापन और समाज के प्रत्येक वर्ग की निकटता ने नज़ीर को जो हिन्दू धर्मगत यथार्थ-बोध प्रदान किया नज़ीर ने उसे श्रद्धा की आत्मा प्रदान करके काव्य के रूप में अभिव्यक्त कर दिया।
कृष्ण के प्रति विशेष आकर्षण ने नज़ीर को विवश किया कि वे लेखनी के माध्यम से अपनी श्रद्धा अथवा कृष्ण-भक्ति को अभिव्यक्त करे। इसलिए नज़ीर ने हरि की तारीफ़, हरिजी का सुमिरन, कृष्ण-कन्हैया की तारीफ़, श्री कृष्ण जी की तारीफ़ में, कंस का मेला, जन्म कन्हैया जी, बालपन, बाँसूरी, खेलकूद कन्हैया जी (कालिया-दमन) कन्हैया जी की रास, ब्याह कन्हैया का, दसम-कथा, रूम्मिनी का ब्याह, श्री कृष्ण व नरसी महत्ता और सुदामा-चरित्र जैसी महान रचनाएँ करके कृष्ण को काव्यात्मक श्रद्धांजलि अर्पित की। ये समस्त रचनाएँ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में कृष्ण से संबंधित हैं जो इस बात का सबल प्रमाण है कि सम्पूर्ण देवी देवताओं अथवा अवतारों में कृष्ण नज़ीर के मन-मस्तिष्क पर सर्वाधिक रूप में विराजमान रहे।
नज़ीर ने कृष्ण के जीवन का क्रमिक विकास कविताओं के माध्यम से जनमानस तक पहुँचाया। उन्होंने कृष्ण के जन्म, उनके खेलकूद, बाँसुरी-वादन, विवाह, रास, मित्रता एवं उनकी प्रशंसा का वर्णन करके उनके प्रति श्रद्धा अर्पित की। ‘जन्म-कन्हैया, कविता में कृष्ण के जन्म से संबंधित जनमानस में व्याप्त धारणा तथा प्रचलित मान्यताओं के वर्णन के साथ-साथ उन्होंने कृष्ण को विशेष्य मानकर उनके विशेषणात्मक नामों का जिस प्रकार बख़ान किया है वैसा उदाहरण कृष्ण भक्ति के महाकवि ‘सूरदास’ में भी दृष्टिगत नहीं होता। उन्होंने मात्र छह पंक्तियों में कृष्ण के लगभग बीस विशेषणात्मक नामों का प्रयोग करके यह प्रमाणित कर दिया कि उनकी दृष्टि में कृष्ण का क्या महत्त्व है। उदाहरणार्थ-
‘‘फिर आया वाँ एक वक़्त ऐसा जो आए गर्भ में मनमोहन
गोपाल, मनोहर, मुरलीधर, श्री किशन, किशोरन, कंवल नयन
घनश्याम, मुरारी, बनवारी, गिरधारी, सुन्दर श्याम बरन
प्रभुनाथ बिहारी कान्ह लला, सुखदाई, जग के दुःख भंजन
जब साअत परगट होने की, वाँ आई मुकुट धरैया की
अब आगे बात जनम की है, जै बोलो किशन कन्हैया की।’’2
बाल्यावस्था में कृष्ण से संबंधित माखन और दही चोरी की घटनाओं का उल्लेख कृष्ण काव्य में न्यूनाधिक सभी कवियों ने किया है। कृष्ण गोपियों के घर ख़ाली देखकर उनमें प्रवेश कर जाते, माखन दही खाते, शेष को धरती पर गिराकर चले आते। इस विषय में ‘बालपन बाँसुरी बजैया का’ कविता की निन्न पंक्तियाँ उदाहरण स्वरूप दृष्टव्य हैं-
‘‘थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा
जिस घर को ख़ाली देखा उसी घर में जा फिरा
माखन, मलाई, दूध जो पाया सो खा लिया
कुछ खाया कुछ ख़राब किया, कुछ गिरा दिया
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन
क्या-क्या कहँू मैं किशन कन्हैया का बालपन।’’3
बचपन में बालक खेलकूद में अपना समय व्यतीत करते हैं। कृष्ण भी बाल-मानसिता से कैसे वंचित रह जाते। कृष्ण का खेल भी जनमानस के हित को ध्यान में रखकर की गई उनकी अनुपम लीला सिद्ध हुआ। खेल-खेल में ही कृष्ण ने कालिय-दमन कर दिया और उसका यह खेल उनकी अनुपम लीला सिद्ध हुआ। नज़ीर ने इस घटना अथवा कृष्ण की बाल लीला का वर्णन ‘खेलकूद कन्हैया जी का’ नामक कविता में अत्यधिक सुन्दर ढंग से किया है-
‘‘जब काली ने सो पेच किये फिर एक कला वाँ श्याम ने की
इस तौर बढ़ाया तन अपना जो उसका निकसन लागा जी
फिर नाथ लिया उस काली को एक पल भर भी ना देर लगी
वह हार गया और स्तुति की, हर नागिन भी फिर पांव पड़ी
यह लीला है उस नंद ललन, मन मोहन जसुमत छैया की
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की।’’4
नज़ीर ने कृष्ण की बाल्यवस्था को छोड़कर युवावस्था में पर्दापण करते ही उनके विवाह की ओर माता यशोदा के ध्यान आकर्षित होने का वर्णन ‘ब्याह कन्हैया का’ नामक कविता में किया है। इस विषय में उनकी एक अन्य कविता ‘दसम-कथा’ अथवा ‘रूम्मिनी का ब्याह’ भी विशेष महत्व रखती है।
‘‘जो सुध संभाली तो किशन क्या-क्या लगे फिर अपनी छवि दिखाने
जगह-जगह पर लगे ठिठकने, अदा से बंसी लगे बजाने
वह बिछड़ी गौओं को साथ लेकर, लगे खुशी से वनों में जाने
जो देखा नंद और जसोदा ने यह कि श्याम अब तो हुए सियाने
यह ठहरी दोनों के मन में आकर करें अब उनकी कहीं सगाई।’’5
इन रचनाओं के अतिरिक्त नज़ीर ने हरि की तारीफ़, हरि जी का सुमिरन, श्री कृष्ण की तारीफ़ में और कृष्ण कन्हैया की तारीफ़ जैसी कविताएँ लिखीं-
‘‘मैं क्या-क्या वस्फ़ कहूँ यारों उस श्याम बरन अवतारी के
श्री किशन कन्हैया मुरलीधर मनमोहन कुँज बिहारी के
गोपाल मनोहर साँवलया धनश्याम अटल बनवारी के
नंद लाल दुलारे सुन्दर छब ब्रज चन्द मुकट झलकारी के।’’6
किन्तु नज़ीर का मन इन रचनाओं के पश्चात् भी सन्तोष प्राप्त न कर सका। कृष्ण की प्रशंसा की इस ललक और तृष्णा ने उन्हें यह कहने पर विवश कर दिया कि-
‘‘तारीफ़ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूँ
श्री वेद व्यास जी ने बनाए कई पुरान
लिखने में तो भी आया नहीं कृष्ण का ध्यान
लिख-लिख के थक रहे हैं हर एक नाविश्त ख़्वान
कहती है जो कलम मेरी वह है जली ज़बान।’’7
नज़ीर की दृष्टि में श्री कृष्ण सर्वत्र दुखहरन, कृपाकरन और परमाराध्य ही हैं। मुसलमान होते हुए भी वे श्री कृष्ण जी को महान् से महान् और परमेश्वर तक मानते हैं। उनके लिए कृष्ण पैगम्बर जैसे हैं। यथा-
‘‘तू सबका खुदा, सब तुझ पै फिदा, अल्लाहो गनी, अल्लाहो गनी
ऐ किशन कन्हैया, नन्दलला, अल्लाहो गनी, अल्लाहो गनी
सूरत में नबी, सीरत में खुदा, ऐ सल्ले अलाह, अल्लाहो गनी, अल्लाहो गनी
तालिब है तेरी रहमत का, बन्दा ये नाचीज़ ‘नज़ीर’ तेरा
तू बहरे करम है नन्दलला, अल्लाहो गनी, अल्लाहो गनी।’’8
यही नही हिन्दू जन-जीवन, संस्कार, देवी-देवता और श्रद्धास्पदों के सम्बन्ध में वे अत्यन्त भावावेग के साथ काव्य रचना करते हैं। मुसलमान होते हुए हिन्दू धर्म से सम्बन्धित अनेक अन्तर्कथाओं, प्रतीक विम्बों और उपमानों का सफल प्रयोग करके वे पाठकों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। उनका जीवन हिन्दू-मुस्लिम के बीच सुन्दर सेतु स्वरूप है।
नज़ीर बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। उनका ध्यान युगीन समाज में प्रचलित प्रत्येक धर्म एवं समाज पर केन्द्रित था। कृष्ण-जन्म स्थली होने के कारण ब्रज-क्षेत्र अथवा आगरा-मण्डल के जन में कृष्ण के प्रति श्रद्धा होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं। अकबराबाद में जीवन-यापन करते हुए समन्वित समाज के अभिन्न अंग के रूप में नज़ीर ने अपनी काव्य प्रतिभा का प्रदर्शन किया। अकबराबाद की परिवेशगत युगीन हिन्दू संस्कृति ने नज़ीर के मन पर जो चित्र अंकित किए वही उनकी आस्था में परिवर्तित हो गए। ब्रजमण्डल की भक्तिमयी संस्कृति में नज़ीर का मन ऐसा रमा कि वह इसे अवचेतन मन का एक अंग बना बैठे। अकबराबाद ब्रज क्षेत्र के अन्तर्गत आता है और इसी क्षेत्र में सहस्राब्दियों से कृष्ण-भक्ति परम्परा भारतीय जनमानस में भक्ति की स्वर लहरियाँ, आनन्द और उत्साह उत्पन्न करती रही हैं। कृष्ण की रास लीलाओं और उनके रसिक शिरोमणि रूप ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में जनमानस को अवश्य आकर्षित किया है। नज़ीर भी इस रसास्वादन से स्वयं को मुक्त न रख सके। उन्होंने भी कृष्ण के नाना रूपों को नाना प्रकार से काव्यात्मक स्वीकृति प्रदान की। उन्होंने कृष्ण के जन्म प्रकरण, खेलकूद, रासलीलाओं तथा उनके विवाह को अपनी कविता का विषय बनाकर तथा अविस्मरणीय रचनाएँ प्रस्तुत करके श्री कृष्ण जी के प्रति विशेष आकर्षण और आस्था को प्रकट किया।
इस प्रकार मियाँ नज़ीर अकबराबादी में सभी धर्मों के प्रति समान श्रद्धाभाव दिखाई देता है। वे भारतीय धर्म निरपेक्षता के साकार प्रतीक हैं। धर्म और मजहब की दीवारों को तोड़-फोड़ कर वे ऊँचे से ऊँचे उठते चले गए हैं और उसी ऊँचाई से वे घोषणा करते हैं- यहाँ कोई धर्म और मजहब का झगड़ा न करे। जो जहाँ पर है वहीं खुश रहे। चाहे गले में यज्ञोपवीत पहने कोई पक्का हिन्दू हो अथवा बगल में कुरान शरीफ लिए हुए कोई पक्का मुसलमान। इनमें कोई अन्तर नहीं। सच्चा इन्सान तो इन्सानियत को प्यार करने वाला होता है वह हिन्दू या मुसलमान नहीं होता। यथा-
‘‘झगड़ा न करे मिल्लतो मजहब का कोई यां
जिस राह में जो आन पड़े खुश रहे हर आं
जुन्नार गले या कि बगल बीच हो कुरआं
आशिक तो कलन्दर है न हिन्दू न मुसलमां।’’9
सन्दर्भ-
1. जगन्नाथ दास रत्नाकरः बिहारी रत्नाकर, तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, पंचम संस्करण (सप्तम् आवृत्ति), सन्-1990ई॰, छन्द सं॰-1, पृ॰-1
2. प्रो॰ नज़ीर मुहम्मदः नज़ीर ग्रन्थावली, उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान, लखनऊ, सन् 1992ई॰, (जन्म-कन्हैया का), छन्द सं॰-11, पृ॰-556
3. वहीः वही, (बालपन बाँसुरी बजैया का), छन्द सं॰-20, पृ॰-565
4. प्रो॰ अब्दुल अलीमः नज़ीर अकबराबादी और उनकी विचार धारा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, सन् 1992ई॰, (खेल कूद कन्हैया जी का), ‘कालिय दमन’, छन्द सं॰-6, पृ॰-206
5. प्रो॰ नज़ीर मुहम्मदः नज़ीर ग्रन्थावली, उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान, लखनऊ, सन् 1992ई॰, (ब्याह कन्हैया का), छन्द सं॰-2, पृ॰-576
6. फिराक़ गोरख़पुरीःनज़ीर की बानी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, सन् 2001ई॰, (हरि की तारीफ़), छन्द सं॰-1, पृ॰-203
7. प्रो॰ नज़ीर मुहम्मदः नज़ीर ग्रन्थावली, उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान, लखनऊ, सन् 1992ई॰, (कृष्ण कन्हैया की तारीफ़), छन्द सं॰-1, पृ॰-79
8. वहीः वही, (श्री कृष्ण जी की तारीफ़ में), छन्द सं॰-1,8,11 पृ॰-81,82,83
9. प्रो॰ अब्दुल अलीमः नज़ीर अकराबादी और उनकी विचार धारा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, सन् 1992ई॰, (फ़नाएजहाँ व बक़ाए रहमाँ), छन्द सं॰-4, पृ॰-215-216
– डॉ. अशरफ़ अली