आलेख
राम-काव्य परम्परा में पंजाब का योगदान: डॉ. बोस्की मैंगी
हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में प्रत्येक अहिन्दी प्रदेश की कुछ-न-कुछ विशेष भूमिका रही है। इसी क्रम में पंजाब प्रदेश का योगदान भी विचारणीय है। साहित्य में राम-काव्य ऐसा विषय है जो भारतवर्ष के लगभग प्रत्येक भाषा के साहित्य में लिखा गया है। इस प्रकार निःसन्देह भक्तिकालीन रामकाव्य धारा का प्रभाव पंजाब प्रांत के कवियों की रचनाओं में भी देखा जा सकता है। यह बात शत-प्रतिशत सत्य है कि कवि परम्परा में तब तक कोई कवि संतुष्ट नहीं होता, जब तक वह राम विषय पर कलम न चला ले। प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त का कथन है-
राम तुम्हारा वृत स्वयं ही काव्य है
कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है।
संभवयता गुरूओं की इस पावन भूमि पंजाब से जुड़े लेखक-समुदाय ने ‘राम’ को केन्द्र में रखकर हिन्दी साहित्य के विपुल एवं समृद्ध भण्डार में अपने अमूल्य योगदान का परिचय दिया है। डाॅ. बलराज शर्मा का इस संदर्भ में मत विचाराणीय है। उनका कथन है- “पंजाब इस परम्परा से कैसे असंप्रस्त रह सकता था। विशेषतया जबकि पंजाब ऐसा प्रदेश है, जिसको आर्यों की सभ्यता का उद्गम स्थल माना जाता है और भगवान राम जिसके पावनतम् एवं उज्ज्वलतम् आदर्श माने जा चुके है।”
राम-कथा में ही भारतीय समाज के समस्त आदर्शों को खोजा गया है। नर से नारायण बनने की जीवन यात्रा भी ‘राम’ के आदर्श पात्र से प्राप्त होती
है। इसीलिए कवियों की रचनाओं में राम लोकरक्षक की भूमिका का निर्वाह करते हैं। हर काल के राम भक्त कवियों ने तत्कालीन परिस्थितियों से जूझने और निजात दिलाने हेतु राम को अपना चरित-नायक बनाना ही उचित समझा। पंजाब प्रदेश के कवियों (राम-काव्य धारा से सम्बन्धित) ने भी इस धारणा को अपनाया क्योंकि पंजाब की परिस्थितियां भी शेष भारतवर्ष से अलग नहीं थीं। भारत का सिंह द्वार कहलाने वाले प्रदेश पंजाब को इससे भी गम्भीर एवं विकट परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ रहा था।
पंजाब में राम-काव्य परम्परा 15 वीं-16 वीं शताब्दी में केन्द्र में आने लगी। डाॅ. मनमोहन सहगल का भी मानना है कि- “पंजाब में पन्द्रहवीं-सोलहवीं शती से ही राम-काव्य की चर्चा होने लगी थी। जो धीरे-धीरे प्रचारित होती बीसवीं शती विक्रमी तक अनेक रामकाव्यों में ढलती चली गई।” पंजाब के कवियों ने राम-काव्य सृजन में आत्मीय रूप से प्रादेशिक रंग भर कर इसे अलंकृत करने का कार्य किया, साथ ही उच्चस्तरीय, समृद्ध, भावाभिव्यांजना युक्त साहित्य-साम्रगी जुटाने में अपना योगदान दिया है। हम इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि इतिहास-पुराण के वे महान पात्र जो जाति के आत्मसम्मान, त्याग एवं बलिदान करने के भाव जगाते हैं, वह चिर-स्मरणीय होते हैं। उनकी कर्मशीलता, प्रासंगिक कथाएं जन मानस के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहित करने का कार्य करती हैं। दूसरे शब्दों में ऐसे पात्र किसी ‘रोल माॅडल’ से कम नहीं होते। वस्तुतः राम का चरित भी रोल माॅडल ही है। डाॅ. सतपाल गुप्त का मानना है कि- “पंजाब के कवियों की दृष्टि में भगवान राम जहां संसार की रक्षा करने वाले थे। वहां वे जात-पात के बन्धनों से दूर रहकर दुःखी व्यक्ति की पुकार सुनते थे।” राम को रोल माॅडल मानने के संदर्भ में डाॅ. सतपाल गुप्त का यह कथन मेरे विचार से सटीक बैठता है। वहीँ पंजाब के गुरूओं ने बहुत पहले इस बात को (तथ्य को) समक्ष लिया था। दसवें गुरू एवं रीतिकालीन कवि गुरू गोबिंद सिंह जी ने इसी प्रेरणा-स्त्रोत द्वारा अन्याय के विरूद्ध आहवान करते हुए चण्डी-चरित्र, रामावतार रचनाओं का प्रणयन किया। इस संदर्भ में डाॅ. हरिभजन सिंह का कथन है- “पंजाब में हिन्दी काव्य को प्रचारित एवं हिन्दी कवियों को प्रोत्साहित करने का श्रेय मुख्यतः सिक्ख गुरूओं को ही है। उन्होंने स्वयं ब्रज भाषा को अपनी वाणी का माध्यम बनाया एवं पूर्वकालीन भक्त कवियों की रचनाओं का प्रचार पंजाब में किया।”
राम का चरित्र अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध संधर्ष का प्रतीक है। यही कारण है कि पंजाबी राम काव्य परम्परा से जुड़े कवि-समुदाय ने राम को अपनी कृतियों में चरित-नायक घोषित किया। राम आदर्शों की संस्था है। रामकाव्य का मूल स्वर अन्याय, शोषण का अन्त कर समन्वय भाव की स्थापना है। इस प्रकार राम-काव्य का मन्तव्य शोषित जनमानस में स्फूर्ति का संचार कर, जागरण का आह्वान करना है।
पंजाब में रचित हिन्दी राम-काव्य परम्परा का श्री गणेश 1604 ई. में गुरू अर्जुन देव द्वारा सम्पादित ‘ग्रंथ-साहिब’ से होता है। गुरू ग्रंथ साहिब भारतीय चिन्तन और संस्कृति का ऐतिहासिक दस्तावेज है। यह पंजाब की प्रथम सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कृति है जिसमें ‘राम’ नाम को उजागर किया गया है। यहां तक कि निर्गुण ब्रह्म को भी सर्वव्यापक होने के कारण ‘राम’ ही पुकारा गया है। वैयक्तिक ईश्वर-धारणा के नाते इस ग्रन्थ में राम रघुराइ आदि शब्दों का बहुधा प्रयोग हुआ है। पंजाब में रचित राम-काव्य में श्रद्धा-भक्ति, निर्गुण-सगुण का समन्वय, भ्रातृभाव, शोषण का विरोधी स्वर आदि की सम्पूर्ण झलक दिखाई है। इसका उदाहरण गुरू गोविन्द कृत रामावतार है। राम का चरित इसलिये भी पंजाब में प्रिय रहा क्योंकि यह पंजाब के जनमानस को अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये हर कदम पर प्रेरणा एवं जागृति प्रदान करता है।
पंजाब के कवियों में प्रमुख हृदयराम भल्ला की रचना हनुमन्नाटक को विशेष प्रसिद्धी मिली। इसमें राम-सीता विवाह से लेकर राम द्वारा रावण वध की कथा ब्रज भाषा में उपलब्ध होती है। इसमें राम विरह का वर्णन विशेष तन्मयता से किया है-
श्री रघुवीर अधीर तिया बिन
नीर भरै अंजुरी अरू रौवे ।
महाकवि तुलसी के रूप में जाने जाने वाले कवि संतोख सिंह की रामकाव्य परम्परा में सराहनीय भूमिका है। “भाव भाषा, कला और कौशल में कवि तुलसी और संतोख सिंह को एक ही स्तर पर रखा जा सकता है।”5
आपके द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण प्रमुख रूप से करुणा प्रधान रचना है। राम वनवास, सीता विरह, लक्ष्मण मूर्छा आदि प्रसंगों में यह करुणा यथार्थ रूप ग्रहण करती है।
कवि कपूरचन्द कृत लघु रचना ‘रामायण’ में राम जी के पूर्ण जीवन की कथा संक्षेप में अति तीव्र प्रवाह से पाठक तक पहुँचती है। जैसे दशरथ को मिले अभिशाप व पुत्र विरह में दशरथ की मृत्यु का अंकन इस प्रकार हुआ है-
पूत के बिछोहे राजा दशरथ पछार खाई,
अंध की स्राव लगो सरवन के सर को।
इनका लघुत्म राम काव्य राम के प्रति आस्था-श्रद्धा-भक्ति का प्रतीक है। अगले क्रम में ‘लव-कुश’ कथा में छः खण्ड हैं। कथा का आरम्भ सीता जी की अग्नि परीक्षा से होता है। यह कृति इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अन्य कवियों की रचनाओं में लव-कुश का अभाव पाया जाता है। साथ ही राम अपना लोकधर्म निभाने हेतु सीता का त्याग करते हैं, प्रसंग बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। दूसरी ओर कवि कृष्ण लाल कृत ‘राम-चरित्र’ अपनी ऐतिहासिकता और भक्ति परक महत्व रखती है। सात खण्डों में विभक्त रचना में तीसरे, चौथे, पांचवें खण्ड में युद्ध-चित्रण हुआ है, जिसमें वीर, रौद्र, वीभत्सव रस देखे जा सकते हैं-
‘अंगद तन जिउ फूले पलासा, असुर सूरहि रण मांहि प्रकासा
रिसक बरि दौरिओ बलवाना, इन्द्रजीत के सीस भइ आना
एक लात सो तों रथ तोरिओ, गिरओ धरणी राखस मुख मोरिओ ।6
राम-काव्य परम्परा में साधु गुलाब सिंह निर्मला का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने पुराण, शास्त्र, एवं वेद वेदांग की पृष्ठ पीठिका पर ब्रज-भाषा काव्य की रचना की। इनकी प्रमुख देन ‘अध्यात्म रामायण’ है। सात कांडों में रचित इस कृति में राम के मर्यादा पुरुषोतम की व्याख्या की गई है। इसी क्रम में हरिनाम कवि आते हैं, इन्होंने केशव की प्रसिद्ध कृति रामचन्द्रिका का अपने आश्रयदाता के आदेशानुसार व्याख्या की इसके मूल पाठ के आरम्भ में लिखा है-
‘निहाल सिंघ नर राइ हुक्म पाई तिन पढ़न हित
लिखीस अरथ बनाइ रामचन्द्र की चन्द्रका’7
इस तरह राम-काव्य परम्परा में पंजाब के अन्य अनगणित कवि आते हैं, जिन्होंने रामकाव्य परम्परा में अपना योगदान दिया- साहिब राम, सूरदास, सन्त सिंह, वीर सिंह बल, हरि सिंह, गोपाल सिंह आदि कवियों ने राम के भव्य स्वरूप के माध्यम से जनमानस को समदातः प्रेरित एवं प्रभावित किया।
निष्कर्ष रूप में पंजाब के कवियों द्वारा राम चरित का यशोगान करने का मूल उद्देश्य आदर्श जीवन के सर्वाग का प्रदर्शन एवं जनता में नीति विवेक, सही जीवन मूल्यों एवं स्वस्थ परम्पराओं का प्रचार-प्रसार करने की धारणा रही है। निश्चय ही राम काव्य परम्परा में पंजाब के कवियों का योगदान अमूल्य है।
संदर्भ सूची-
1. प्रभाकर माचवे, हिन्दी साहित्य को महाराष्ट्र की देन (सपा.) मलिक मोहम्मद, प्रकाशक राजपाल एण्ड संज, 1977, पृ. 215
2. मनमोहन सहगल, पंजाब में रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रकाशक निर्मल पब्लिकेशन्स्, दिल्ली, 2012
3. डाॅ. हरमहेन्द्र सिंह वेदी, डाॅ. कुलविंदर कौर; पंजाब के हिन्दी साहित्य का इतिहास, निर्मल पब्लिकेशन्स्, दिल्ली, 2004 पृ.36
4. वही, पृ. 50
5. डाॅ. हरमहेन्द्र सिंह बेदी, गुरुमुखी लिपि में उपलब्ध हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन, प्रकाशक- गुरू नानक देव विश्वविद्यालय, 1993, पृ. 139-140
6. कवि कृष्ण लाल; ‘राम-चरित्र’, प्रकाशक, सन्मार्ग दिल्ली
7. डाॅ. कुलविन्दर कौर, डाॅ. ह.स. बेदी; पंजाब के हिन्दी साहित्य का इतिहास; निर्मल पब्लिकेशन्स्, दिल्ली 2004, पृ. 95
– डाॅ. बोस्की मैंगी
प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
हिन्दू कन्या महाविद्यालय,
धारीवाल, गुरदासपुर (पंजाब)
– डॉ. बॉस्की मैंगी