रचना-समीक्षा
मुख़्तसर और मुकम्मल इश्क के बीच की सूफियाना कहानी है ‘क्रश-व्रश’
मैंने इस रचनाकार के नवगीत पढ़े थे और एक बार नहीं कई बार पढ़े बल्कि यूँ कहूँ तो ठीक रहेगा कि बार-बार पढ़े। इस बार भी कोई नवगीत ही ढूंढ रहा था कि इनकी एक कहानी हाथ लग गयी। असल में ये इनकी दूसरी कहानी है जो मैंने पढ़ी है। आज के समय में इस तरह की सहज और आत्मीयता में पिरोयी हुई सभ्य व शालीन कहानियां कम ही पढने को मिलती हैं। आज की कहानी में फूहड़ता और अश्लीलता तो मानो कूट-कूटकर भरी पड़ी है। ऐसे समय में मोरवाल की तरह के रचनाकार साहित्य को समृद्ध करेंगे, ऐसा मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है।
जी, मैं बात कर रहा हूँ रजनी मोरवाल जी की कहानी ‘क्रश-व्रश’ के बारे में। साधारण-सी लगने वाली ये कहानी दिल को अनायास ही छू जाती है। जनाब, छूती भी क्यों नहीं है, आदम के अंश जो ठहरे……हम में से लगभग हर एक ने कभी न कभी किसी न किसी से तो प्रेम किया ही है और एक पल के लिए ये कहानी हमारे सामने उस समय की महकी-बहकी सी फुहारें और अभिभावकों (पेरेंट्स) की सख्ती का शामियाना तान देती है, जिससे भीगना हर किसी के बस की बात नहीं है। असल में हम उस नादान और अधकच्ची सी उम्र में समझ ही नहीं पाते कि वो विशुद्ध प्रेम होता है या मात्र आकर्षण!
इसी आकर्षण को आज की पीढ़ी ‘क्रश-व्रश’ की संज्ञा से अलंकृत करती है, लेकिन असल में वो सिर्फ ‘क्रश’ नहीं बल्कि ‘विशुद्ध प्रेम’ ही होता है जिसे जान-बूझकर उस उम्र में डिस्ट्रॉय करना पड़ता है, उसी को इस कहानी में बखूबी दिखाया है। कुल मिलाकर स्थिति कुछ वैसी ही है जैसे एक नन्हे से पौधे की कोंपल निकलते ही उसे नोंच डालो। निःसंदेह, वो उतना हरा-भरा तो नहीं होगा लेकिन झाड़-झंखाड़ के रूप में अपना अस्तित्व अवश्य रखेगा जब तक कि उसे समूल नष्ट नहीं किया जाता।
‘क्रश-व्रश’ कहानी वैसे तो अपने आप में कई प्रश्न उकेरती है और पाठक से जवाब भी लेती चलती है लेकिन असल में वो जवाब ही आज के समय में पुनः प्रश्न बन चुके हैं। लेखिका ने पात्रों की वय की कोमलता को भी बखूबी निभाया है और उसी के अनुकूल पूरी कहानी अपने चरम तक पहुँचती भी है। उम्र के उस सोपान को बड़ी खूबसूरती के साथ उकेरते हुए ये कथन भी महत्वपूर्ण है कि, “लड़कियाँ उस गुलाबी उम्र की चटखन में वह सब कहाँ जान पाती हैं? वह अनजाना अहसास जो उनके मन और तन पर से गुजरता हुआ उन्हें जवान बना जाता है, उनके सपनों को परिपक्व कर जाता है। हाँ, किन्तु मौसम की धूप दिखाने के लिए उन अहसासों को फिर-फिर से धो-पोंछकर रखती जाती हैं….वही सब अहसास जो वे सबसे छुप-छुपाकर अपने घर के आँगन में या कहीं घर के पिछवाड़े में संजोकर रखती हैं….कुछ कच्च्पक्का-सा मन..कुछ अधकच्चे-से सपने…कुछ इठलाने के राज़…कुछ शर्म-हया की बात….बहुत कुछ जो उनका निजी होता है, कभी-कभी ऐसा ही बेतुका होता है!”
वहीँ कहानी का एक दूसरा कथन जिसमें ऋतु उम्र में काफी बड़ी हो गयी है और उसके पास भूपेंद्र का फोन आता है, जिसमें उसकी असहजता और उम्र का खुरदुरापन जाहिर होता है……. “यस,आय एम ऋतु सहाय…अब पति के सरनेम के साथ लिखती हूँ।”
मनोविज्ञान भी कहता है कि बचपन के दोस्त ज्यादा प्रिय और दोस्ती ज्यादा मजबूत होती है कहीं न कहीं इस कहानी में भी इस बात को प्रश्रय मिलता है और ऋतु महज निशा के रूठने भर से ही उम्र भर के लिए भूपेंद्र से वो अनजान रिश्ता तोड़ लेती है, जिसके कारण उसे चांटा भी पड़ता है और अपने आप से ताउम्र नाराजगी भी।
कहानी का अंत हृदयोद्घाटन तो है ही साथ ही फिर से कई प्रश्न भी उभार जाता है।
वो प्रश्न है……
● क्या ऋतु का भूपेंद्र के प्रति प्रेम था या आकर्षण..?? अगर वो प्रेम था तो क्यों वह निशा के समझौते और माँ के चांटे की मोहर से फीका हो गया जबकि प्रेम का रंग तो सुर्ख लाल होता है…??
● क्या प्यार की शुरुआत के लिए कोई समय बिंदु होता है..??
● आकर्षण और प्यार में क्या महीन अंतर है जिसे पहचानना जरुरी है…??
● क्या समय वास्तव में इतना बदल गया है कि आज बच्चे इतनी आसानी से अपने माँ-बाप से ये भी कह सकते हैं कि निशा आंटी का भूपेंद्र के प्रति सिर्फ क्रश था।
इस कहानी का अंत बड़ा अजीब है जो पाठक को मौन होकर सोचने पर विवश कर देता है और बचपन की गलियों में लौटने को भी मजबूर कर देता है, जहाँ वो अपनी ही कोई प्रेम कहानी तलाशता है। कुल मिलाकर कोमल धरातल पर कोमल शब्दों में अत्यंत कोमल भावों की कोमल कहानी है ‘क्रश-व्रश’।
इसी कहानी को पढ़ते समय मुझे हिंदी साहित्य की दो और कहानियां प्रत्यास्मरण हो आयी…. जिसमें पहली कहानी तो है ‘उसने कहा था’ जो सैद्धांतिक रूप में कहीं ज्यादा ही सही पर इसी कहानी की पूर्ववर्ती कहानी है, जिससे ये कहानी विषय के स्तर पर ही नहीं बल्कि संवेदना के स्तर पर भी मिलती हुई सी जान पड़ती है। दूसरी राजेन्द्र यादव की कहानी ‘टूटना’ जिसे इस कहानी का अगला सौपान भी कह सकते हैं या इसी कहानी की दूसरी परिणिति भी कह सकते हैं अगर ऋतु ‘टूटना’ कहानी की पात्र ‘लीना’ की तरह बर्ताव कर बैठती तो, लेकिन हकीकत ये है कि ये कहानी ‘टूटना’ के कई साल बाद लिखी गयी है। प्रश्न ये भी सामने आता है कि क्या इतने साल बाद भी लड़कियों को अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से करने का अधिकार नहीं दिया गया है? अगर ऐसा है, तो क्यों है और इसकी परिणिति क्या है…?? ‘क्रश- व्रश’ या “टूटना”….???
इस कहानी को आप इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं http://www.hastaksher.com/rachna.php?id=185
– के.डी. चारण