मूल्यांकन
रंगीनियों से भरी दुनिया का तारीकियों से लबरेज़ चेहरा दिखाता मजमुआ ‘सराबों में सफ़र करते हुए’: फ़ानी जोधपुरी
निदा फ़ाज़ली अपने एक शेर में कहते हैं-
जो खो जाता है मिलकर ज़िन्दगी में
ग़ज़ल है नाम उसका शाइरी में
ग़ज़ल शाइरी की उस सिन्फ़ का नाम है, जो सब से ज़ियादा मक़बूल हुई है। जिसे हर ज़ुबान ने अपनाया और सब से ज़ियादा तब’अ आज़माइश ग़ज़ल में ही हुई। इसी सिन्फ़ के एक क़लमकार का नाम है कृष्ण सुकुमार, जिनका मज्मुआ-ए-ग़ज़ल ‘सराबों में सफ़र करते हुए’ मुझे अनमोल भाई के मार्फ़त मिला, जिसे मैंने हर्फ़ दर हर्फ़ पढ़ा तो पाया कि वाकई सुकुमार जी के लहजे में एक नई तरह की ताज़ग़ी है, जो बात तो सराब (मृगतृष्णा) की करती है मगर ये सराबों का सफ़र अन्दर की तिश्नगी बुझा के क़ारी (पाठक) को सैराब (तृप्त) करती है। कृष्ण सुकुमार की शाइरी हिन्दोस्तान की तहज़ीब की तर्जुमानी करती है, गंगा-जमनी तहज़ीब का असर दिखता है इनकी शाइरी में। उन्हीं का एक शेर है-
निरर्थक ज़िन्दगी का सार्थक उन्वान कुछ तो है
मेरे जीने का मक़्सद है मेरी पहचान कुछ तो है
अदबी लोगों में शायद ये बहस हो कि सुकुमार हिन्दी के शायर हैं या उर्दू के शाइर, मगर मेरी नज़र में वो ग़ज़ल के बेहतरीन शाइर हैं, जो उर्दू और हिन्दी को एक ही प्लेटफ़ॉर्म पर ले आते हैं। सुकुमार की शाइरी बेशक हालात की ख़ुदा-दाद शाइरी है, उन्हें पढ़ के यकबारग़ी यही लगता है। इसी किताब के एक शेर में उन्होंने कहा है-
ख़ुदा का शुक्र मैं गिरते हुए अपनी ज़मीं पर था
बुलन्दी से अगर गिरता तो चकनाचूर हो जाता
सुकुमार के एहसासात, तज़र्बात और मे’अयार की एक अलग ही ज़मीं है, जहां पे वो पैर जमाए मुस्तैदी से खड़े हैं। गिरने या चढ़ने से उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और यही सोच उन्हें सूफ़ियाना टच भी देती है, जहां आ के ग़ज़ल शाइर की क़लम से अदा होके रौशनी की तरह फैल जाती है।
सुकुमार जी की ग़ज़लें कभी उदास नहीं करतीं मगर कुछ सोचने पे मजबूर ज़रूर करती हैं-
मोहब्बत की मुझे दौलत मिली है
सभी का उसमें से हिस्सा निकालूँ
मैंने एक प्रोग्राम में कहा था कि शाइर के दिल में इतनी वुसअत (फैलाव) होती है कि सारी दुनिया भी अगर आ जाए तो भी जगह बच जाती है और ये बात सुकुमार जी की शाइरी में है जो क़ारी (पाठक) को known to unknown यानी ‘ज्ञात से अज्ञात’ की ओर ले जाती है। उनका एक शेर है-
बहुत ही बदनुमा दुनिया में है तू
तमाशा देख शाइर की नज़र से
वाकई सुकुमार अपने अशआर में बहुत कुछ दिखाते हैं मगर वो तमाशा नहीं होता बल्कि रंगीनियों से भरी दुनिया का तारीकियों से लबरेज़ चेहरा होता है। इन तारीकियों को देखने के बाद भी, हक़ीक़त का हलाहल पीने के बाद भी सुकुमार अपने अन्दर की मासूमियत को बरक़रार रखने में कामयाब हैं। ज़माने के तेज़ाब ने उनकी शाइराना हस्ती को तेज़ाबी नहीं किया बल्कि और भी मासूम बना दिया है। इसी किताब में एक जगह वो कहते हैं-
हमें जो अपना लगता है तो अपना मान लेते हैं
हमारे देश में चन्दा को मामा मान लेते हैं
सुकुमार की शाइरी में वतनपरस्ती भी दिखती है ,ये वो शाइर हैं जो अपनी पोटली में जज़्बात, मोहब्बत और वतनपरस्ती को यकजां रखता है, मगर ऐसा भी नहीं की शाइर को दौरे-हाज़िर से कोई शिकवा न हो, उन्होंने सियासत पे कई बार भरपूर तन्ज़ किया है। एक शेर में वो कहते हैं-
मोहब्बत के मुख़ालिफ़ थे सियासत के दवाख़ाने
मरीज़ों को दवा का काम ही बीमार रखना था
बहुत शिकवा है सुकुमार जी की ग़ज़लों को सियासत से और दौरे-हाज़िर की रस्मो-रिवाजों से, और अगर है भी तो ग़लत कहाँ है, ओदबा (साहित्यकारों) का काम ही है मुआशरे को आईना दिखाना और सुकुमार ने अपना फ़र्ज़ निभाने में कहीं भी डंडी नहीँ मारी।
मुझे एक बात और इस किताब में मुतआस्सिर करती है, वो ये कि इस पूरे मज्मुए में लफ़्ज़े दर्या (दरिया) का इस्तेमाल करते हुए कुल 146 अशआर कहे गए हैं और हर बार अलग नोइय्यत (प्रकृति) देखी जा सकती है दर्या लफ़्ज़ की।
ग़ौर तलब बात ये है कि मज्मुए का उन्वान है ‘सराबों में सफ़र’ और क़सरत से अशआर कहे गए हैं दर्या के हवाले से।
मेरा मानना है कि सुकुमार के क़लम की तासीर है ये कि वो सराबों (मृगतृष्णा) में से भी दरिया निकालने की फ़न बख़ूबी जानते हैं, मुझे ये कहने में कोई ग़ुरेज़ नहीं है कि सुकुमार जाने कब से अपनी प्यास पर पानी को पाल रहे हैं या यूँ कहूँ कि प्यास को उस मे’अयार तक ले जाते हैं कि हद्दे-तिश्नगी ख़ुद ही दर्या (दरिया) बन जाती है और इसकी वज्ह ये है कि शायद सुकुमार ने हालात के जंगलों में सफ़र किया है और उसकी हक़ीक़त को समझा है, तभी वो कहते हैं-
उठाने के लिए नुकसान तू तैय्यार कितना है
तेरा झुकना बताता है कि तू ख़ुद्दार कितना है
अजमेर के उस्ताद शाइर डॉ.अब्दुल मन्नान चिश्ती ‘राही’ का कहना है कि शाइरी में ख़याल कभी मजरूह नहीं होना चाहिए। कभी-कभार ख़याल को मजरूह होने से बचाने के लिए अगर अरूज से समझौता कर लिया जाए तो कोई हर्ज नहीं, ख़याल का ज़िन्दा रहना ज़रूरी है। सुकुमार जी ने ख़याल को भी ज़िन्दा रक्खा और फ़न्नी हय्यत से भी समझौता नहीं किया। कवर पेज से लेकर काग़ज़ और शाइरी की क्वालिटी सब उम्दह हैं। मेरी दुआ है कृष्ण सुकुमार जी के लिए कि उनका कलाम और मक़बूल हो और उनकी शाइरी आम आदमी तक पहुँचे।
आख़िर में यही कहूँगा, “अल्लाह करे ज़ोरे-क़लम और ज़ियादह!”
समीक्ष्य पुस्तक- सराबों में सफ़र करते हुए
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- कृष्ण सुकुमार
प्रकाशक- अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 100 रू. (हार्ड बाउंड)
– फ़ानी जोधपुरी