यही वो समय है….जब बोलना आवश्यक है
इसमें कोई दो राय नहीं कि आतिशबाज़ी से वायु एवं ध्वनि प्रदूषण होता है। परेशानी इस मापदंड से है कि जो आज उचित नहीं, वह अन्य अवसरों पर कैसे सही मान लिया जाता है? शादियों के मौसम में जमकर आतिशबाज़ी होती है, नेताओं की जीत पर भी और हमारे खिलाड़ियों के अच्छे प्रदर्शन पर भी! तब इस प्रकार के विचार हमारे मस्तिष्क के द्वार क्यों नहीं खटखटा पाते?
दीवाली और आतिशबाज़ी एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं। फुलझड़ी, अनार सब पहचान हैं, दीपावली की! घर के कोने-कोने की सफाई करना, मिठाई और विविध प्रकार के पकवानों का बनना, नये वस्त्र खरीदना, पूजा-अर्चना करना, दीयों की रौशनी से घर को जगमग कर देने के बाद ये पटाखों का फोड़ना ही तो बच्चों को सबसे ज़्यादा आकर्षित करता आया है। पूजा के बीच में भी कितनी बार कोहनियाँ मारकर, आँखों-आँखों में पूछ ही लेते हैं, “कितनी देर है?” व्यावहारिक यह होगा कि पटाखों की संख्या में कमी कर दी जाए, बम-रॉकेट न चलाए जाएँ और स्पष्ट है कि बच्चों की सुरक्षा की दृष्टि से इन्हें बड़ों की निगरानी में ही चलाया जाए….पर यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि ये प्रतीक हैं, उत्सव का, जश्न का, खुशी का, उल्लास का! ठीक वैसे ही, जैसे होली में रंगों का महत्व है, ईद में सेंवई का, क्रिसमस में ‘क्रिसमस ट्री’ को सजाने का और ऐसे ही हमारे हर त्योहार किसी-न-किसी प्रतीकात्मक कार्य से जुड़े हुए हैं।
तर्क आ सकता है कि इतिहास में कहाँ आतिशबाज़ी का ज़िक्र है…? पर यह तर्क अपने ही चेहरे पर न जाने कितने प्रश्न छोड़ जाएगा! आस्थाओं के इस देश में तमाम मान्यताओं के साक्ष्य फिर कहाँ से आएँगे?
बड़ों की उलझन भरी दुनिया में बच्चों के हिस्से आता ही क्या और कितना है? आतिशबाज़ी से बच्चों का बड़ा गहरा नाता है। इसे कम किया जा सकता है पर जड़ से उखाड़ देना इन मासूमों के साथ ना-इंसाफ़ी होगी। यदि बाज़ार में मिल रहा है तो उनका मन तो होगा ही। इन दिनों यूँ भी स्कूली बस्ते के भारी बोझ, माँ-पिता की असंख्य अपेक्षाओं के बीच बचपन बहुत कम हँसता है। उन्हें उनकी हंसी की फुलझड़ी चाहिए, उन्हें उनकी उमंगों की चकरी घुमानी है कि रौशनी से उनका मन और छुट्टियाँ जगमगा उठें।
सौ बात की एक बात, जब आप हर मौके पर उत्साहपूर्वक पटाखे फोड़कर, आनंद प्रदर्शित करते हैं तो उस त्योहार पर ही इसका घोर विरोध क्यों, जिससे इसका सीधा संबंध रहा है?
यदि इतनी ही मुश्किल है तो इस तरह की सामग्रियों के उत्पादन पर रोक लगानी चाहिए और इनसे जुड़े लोगों को अन्य कोई रोज़गार उपलब्ध कराना चाहिए तथा इस वर्ष की सामग्री की क़ीमत उन्हें मिलनी चाहिए अन्यथा जिन्होंने माल भर लिया है; उनका तो इस दीवाली, दीवाला निकल जाएगा।
आम जनता का सहयोग अवश्य मिलेगा परन्तु फ़िलहाल यह आदेश ठीक वैसा ही है जैसा कि धूम्रपान और एल्कोहलयुक्त पदार्थों के पैक पर यह लिखा होना कि “इनका सेवन सेहत के लिए हानिकारक है।” पर ये उपलब्ध हर जगह होते हैं।
मात्र अच्छे संदेश फैलाने से कुछ नहीं होने वाला! वैसे भी यह पर्यावरण-संरक्षण का स्थायी तरीक़ा नहीं। यदि हम अपने वातावरण को सुरक्षित रखने के प्रति इतने सजग हैं, तो इन विकल्पों पर अवश्य दृष्टिपात किया जाए-
* सर्वप्रथम तो इस विषय की गंभीरता को समझते हुए वृक्षों को काट-काटकर, जंगल उजाड़ने, नई इमारतें खड़ी करने की बजाय इन वृक्षों की सुरक्षा करें, यदि एक वृक्ष कटे तो चार और लगाए जाएँ। हमें न केवल शुद्ध प्राणवायु प्राप्त होगी बल्कि राहगीरों, मवेशियों को छाया और पंक्षियों को उनका खोया आसरा भी मिलेगा।
* एल्कॉहल और स्मोकिंग पर बैन लगाएँ, ये सिर्फ़ स्मोकर के लिए ही नहीं, बल्कि उसके आसपास मौजूद सभी लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, वातावरण तो दुर्गंध से भरता है, ही! ये बात यहाँ तक ही सीमित नहीं रहती क्योंकि इसके बाद इनसे हुई शारीरिक व्याधियों के इलाज के लिए इंसान भटकता है और उसकी मृत्यु के साथ ही उसका परिवार भी ख़त्म होने लगता है।
हास्यास्पद यह है कि पहले इनके विक्रय के लाइसेंस दिए जाते हैं, फिर इन आदतों को छुड़ाने के लिए ‘सुधार गृह’ बनाए जाते हैं। दवाइयाँ डेवलप होती हैं। कुल मिलाकर इन लतों ने कई अन्य व्यवसायों को पनपने का सुनहरा अवसर दे दिया है। जिन पर कितने करोड़ों का व्यय होता होगा, यह आंकड़ा भी आम आदमी की समझ से बाहर है। इनकी जड़ें उखाड़ना बेहद आवश्यक है। इससे पर्यावरण ही नहीं, नशे की आड़ में होने वाले अपराधों की संख्या में भी कमी आएगी। पर इस दिशा में निष्क्रियता का कारण अवश्य कोई प्रशासनिक /आर्थिक विवशता ही रही होगी।
* ‘स्वच्छ भारत अभियान’ भी पूरी तरह से सफल तभी हो सकता है, जब पान, गुटका, तंबाकू और इसी तरह के अन्य उत्पादों के क्रय-विक्रय पर रोक लगे। देश में 60 फीसदी गंदगी और दुर्गंध इन्हीं की वजहों से है। विश्वास न हो, तो एक दिन समय निकालकर देश के बस-स्टेंड, रेलवे-स्टेशन, हॉस्पिटल, सड़क किनारे की दीवारें और ऐसी ही अनगिनत सर्वसुलभ जगहों का मुआयना कर आइए, वहाँ की दीवारें खुद अपनी कहानी कह देंगीं। खून के आँसू उन पर साफ़ नज़र आएँगे।
* सप्ताह में एक दिन ‘वाहन मुक्त दिवस’ मनाएँ। वर्ष के लगभग पचास दिन, स्वस्थ रहेंगे।
* सभी वाहनों की नियमित जाँच हो, और जो भी प्रदूषण फ़ैलाएँ, उनका लाइसेन्स रद्द हो। नियम तो खूब बन चुके हैं, पर छोटे शहरों में, यदि आप पाँच मिनट भी किसी ऑटो या ट्रक के पीछे, सौ मीटर की परिधि में भी आ गये, तो वो तो आगे बढ़ जाएँगे. पर तब तक दम घुटने से आपकी मौत की सम्पूर्ण व्यवस्था हो चुकी होगी।
यद्यपि कलयुग के इस दौर में, सलाह देना और नियमों का पालन ओखली में सिर को डाल लेना ही है। जहाँ स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी तमाम तथाकथित व्यवस्थाओं, सुविधाओं से दिन-रात जूझते हुए ईमानदारी, सच्चाई और सभ्यता का उजला आवरण ओढ़े हर आम आदमी रोज चारों खाने चित्त नज़र आता है। उधर बेईमानी, झूठ और असभ्यता…..भ्रष्टाचार, लालच और धन के सुगम रास्तों से विशिष्ट बन कुलाँचे भरती खिलखिलाकर निकल जाती है। इस तरह विश्वास की लम्बी, तनी हुई डोर में रोज एक गाँठ बंधती चली जाती है।
यहाँ प्रजा उपस्थित है और तंत्र भी परन्तु ‘प्रजातंत्र’ का अर्थ कहीं ढूँढे नहीं मिलता!
बाबा हैं, शिष्या हैं, ज़बरदस्त मीडिया कवरेज है।
लाश है जिसका कोई हत्यारा नहीं!
लचर कानून व्यवस्था है जिसकी ओर हाथ जोड़े खड़ी और न्याय की बाट जोहती सैकड़ों जोड़ी बेबस आँखें हैं। जो कभी भौंचक्की हो आँखें मीड़ती तो कभी खिसियाती नज़र आती हैं। बहुधा उसी चौखट पर दम ही तोड़ देती हैं।
पर शिकायतों से क्या मिला? यह हमारा देश है, इसके विकास में एक क़दम अब हमारा भी हो।
इसलिए यही वो समय है….जब बोलना आवश्यक है
यही वो समय है….जब आपको मौन कर दिया जाएगा
यदि बिजली का गिरना तय है….और तय है बादलों का फट जाना
तब भी न हारना तुम कभी
हो अकेले ही सही…सत्य पथ पर निरंतर चलते चले जाना
राह अँधेरी जब लगे, आशाओं का एक दीप तुम भी जलाना
हे साथी! निर्भय हो, हरना तम सर्वदा
दीपावली का उत्सव अब प्रतिदिन मनाना!
– प्रीति अज्ञात