स्मृति
मैं सब कुछ छोड़कर जाता हूँ देखो हौसला मेरा
आज दूसरे पहर ये पता चला कि अनवर जलालपुरी साहब हमारे बीच नहीं रहे। गुज़िश्ता 28 दिसम्बर को उन्हे ब्रेन स्टॉक हुआ था, तब से ही वो ज़ेरे-इलाज थे और 2 जनवरी की सुब्ह वो अपने तमाम मुहिब को छोड़ कर चले गए।
अनवर साहब 6 जुलाई को जलालपुर में पैदा हुए। शुरूआती तालीम मक़तब करामतिया दारूल फ़ैज़ से हासिल की। फिर शिबली डिग्री कॉलेज आज़मगढ़ से ग्रेजुएशन और अलीगढ़ से पोस्टग्रेजुएशन किया और फिर अंग्रेज़ी में पी-एचडी भी यहीं से की।
19 जुलाई 1973 से आप नरेन्द्र देव इंटर कॉलेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर की ख़िदमात अंजाम दे रहे थे। ‘उर्दू शाइरी में गीता’ उनकी एक किताब है, जो काफ़ी मक़बूल है। उनको यू.पी सरकार ने यश भारती अवार्ड से भी नवाज़ा।
अनवर जलालपुरी साहब की नज़रें माज़ी-ओ-मुस्तक़बिल को यकसां झिंझोड़ा करती थीं और उसके बाद जो मिलता, वो अपने अशआर में पिरो देते तभी तो वो कहते हैं कि-
कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िन्दगी है क्या
ज़मीं से एक मुट्ठी ख़ाक लेकर हम उड़ा देंगे
ज़िन्दगी को इतने आसान तरीक़े और अल्फ़ाज़ से समझना और समझाना सिर्फ़ अनवर जलालपुरी साहब का ही काम है।
मैंने लिक्खा है उसे मरियमो-सीता की तरह
जिस्म को उसके अजन्ता नहीं लिक्खा मैंने
अनवर जलालपुरी साहब को ये तो पता था कि क्या लिखना है मगर ये भी ख़ूब पता था कि किसे क्या नहीं लिखना, मैं अपनी ज़बान में यूँ कहूँ कि क़लम की शरियत को बहुत पाबन्दी से क़ायम रखने वाली शख़्सियत का नाम है अनवर जलालपुरी।
इसके अलावा अनवर जलालपुरी साहब की निज़ामत ने हिन्दोस्तान के साथ-साथ जहाँ भी उर्दू है, शाइरी है, वहाँ-वहाँ अपनी छाप छोड़ी, पाटदार आवाज़, ठहरा हुआ लहजा और अल्फ़ाज़ को ठहर-ठहर के अवधी लहजे में अदा करने का जो फ़न उनको पास था और कहीं नहीं मिलता। मैं भी उनसे दो बार मुलाक़ात का शरफ़ हासिल कर चुका हूँ।
मुसलसल धूप में चलना, चराग़ों की तरह जलना
ये हंगामे तो मुझको वक़्त के पहले थका देंगे
अनवर जलालपुरी आज हमारे बीच नहीं रहे, मगर उनके क़लम की ज़िया हमेशा रौशनी बिखेरती रहेगी। उनका जाना अदब का ऐसा नुकसान है, जो पूरा नहीं हो सकता। उनकी वफ़ात पर उनको ख़िराजे-अक़ीदत पेश करता हूँ।
– फ़ानी जोधपुरी
अनवर जलालपुरी साहब की कुछ ग़ज़लें
ग़ज़ल-
मेरी बस्ती के लोगो! अब न रोको रास्ता मेरा
मैं सब कुछ छोड़कर जाता हूँ देखो हौसला मेरा
मैं ख़ुदग़र्ज़ों की ऐसी भीड़ में अब जी नहीं सकता
मेरे जाने के फ़ौरन बाद पढ़ना फ़ातेहा मेरा
मैं अपने वक़्त का कोई पयम्बर तो नहीं लेकिन
मैं जैसे जी रहा हूँ इसको समझो मोजिज़ा मेरा
वो इक फल था जो अपने तोड़ने वाले से बोल उठा
अब आये हो! कहाँ थे ख़त्म है अब ज़ायक़ा मेरा
अदालत तो नहीं, हाँ, वक़्त देता है सज़ा सबको
यही है आज तक इस ज़िन्दगी मे तज़रबा मेरा
मैं दुनिया को समझने के लिये क्या कुछ नहीं करता
बुरे लोगों से भी रहता है अक्सर राब्ता मेरा
ग़ज़ल-
ख़्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है
वैसे अभी मरने का इरादा भी नहीं है
हर चेहरा किसी नक्श के मानिन्द उभर जाए
ये दिल का वरक़ इतना तो सादा भी नहीं है
वह शख़्स मेरा साथ न दे पाएगा जिसका
दिल साफ़ नहीं, ज़ेहन कुशादा भी नहीं है
जलता है चिराग़ों में लहू उनकी रगों का
जिस्मों पे कोई जिनके लबादा भी नहीं है
घबरा के नहीं, इसलिए मैं लौट पड़ा हूँ
आगे कोई मंज़िल कोई जादा भी नहीं है
ग़ज़ल-
पराया कौन है और कौन अपना सब भुला देंगे
मता-ए-ज़िन्दगानी एक दिन हम भी लुटा देंगे
तुम अपने सामने की भीड़ से होकर गुज़र जाओ
कि आगे वाले तो हरगिज़ न तुमको रास्ता देंगे
जलाये हैं दिये तो फिर हवाओं पर नज़र रखो
ये झोकें एक पल में सब चिराग़ों को बुझा देंगे
कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िन्दगी क्या है
ज़मीं से एक मुठ्ठी ख़ाक लेकर हम उड़ा देंगे
गिला, शिकवा, हसद, कीना के तोह्फ़े मेरी किस्मत है
मेरे एह्बाब अब इससे ज़ियादा और क्या देंगे
मुसलसल धूप में चलना, चिराग़ों की तरह जलना
ये हंगामे तो मुझको वक़्त से पहले थका देंगे
अगर तुम आसमां पर जा रहे हो, शौक़ से जाओ
मेरे नक्शे-क़दम आगे की मंज़िल का पता देंगे
ग़ज़ल-
उससे बिछड़ के दिल का अजब माजरा रहा
हर वक्त उसकी याद रही, तज़किरा रहा
चाहत पे उसकी ग़ैर तो ख़ामोश थे मगर
यारों के दरमियान बड़ा फ़ासला रहा
मौसम के साथ सारे मनाज़िर बदल गये
लेकिन ये दिल का ज़ख़्म हरा था, हरा रहा
लड़कों ने होस्टल में फ़क़त नाविलें पढ़ीं
दीवान-ए-मीर ताक़ के ऊपर धरा रहा
वो भी तो आज मेरे हरीफ़ों से जा मिले
जिसकी तरफ़ से मुझको बड़ा आसरा रहा
सड़कों पे आके वो भी मक़ासिद में बँट गए
कमरों में जिनके बीच बड़ा मशविरा रहा
ग़ज़ल-
उम्र भर ज़ुल्फ़-ए-मसाएल यूँ ही सुलझाते रहे
दूसरों के वास्ते हम ख़ुद को उलझाते रहे
हादसे उनके क़रीब आकर पलट जाते रहे
अपनी चादर देखकर जो पाँव फैलाते रहे
जब सबक़ सीखा तो सीखा दुश्मनों की बज़्म से
दोस्तों में रहके अपने दिल को बहलाते रहे
मुस्तक़िल चलते रहे जो मंज़िलों से जा मिले
हम नजूमी ही को अपना हाथ दिखलाते रहे
बा-अमल लोगों ने मुस्तक़बिल को रौशन कर लिया
और हम माज़ी के क़िस्से रोज़ दोहराते रहे
जब भी तनहाई मिली हम अपने ग़म पर रो लिये
महफिलों में तो सदा हँसते रहे, गाते रहे
– अनवर जलालपुरी