स्मृति
सुप्रसिद्ध साहित्यकार व शैक्षिक प्रकोष्ठ अधिकारी ओमपुरोहित कागद (59 वर्ष) का एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया। यह घटना हनुमानगढ़ टिब्बी के गांव सलेमगढ़ मसानी के पास शुक्रवार रात हुई, जहाँ अज्ञात कार चालक उनको टक्कर मार कर फरार हो गया। उन्हें गंभीर अवस्था में जिला अस्पताल लाया गया तथा स्थिति बिगड़ने पर श्रीगंगानगर रेफर कर दिया गया। लेकिन उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। इससे साहित्य जगत में शोक़ की लहर दौड़ गई।
कागद जी कई वर्षों से हिन्दी व राजस्थानी में साहित्य साधना में लीन थे। उनकी संपादित पुस्तक ‘थार सप्तक’ विशेष चर्चित रही। हड़प्पा सभ्यता के कालीबंगा पर उनका राजस्थानी में लिखा गया काव्य संग्रह भी उल्लेखनीय है। कागद जी ने दो दर्जन के करीब पुस्तकें लिखी थीं। इनमें धूप क्यों छेड़ती है, थिरकती है तृष्णा, कागज पर सूरज (कविता संग्रह) व मरूधरा, जंगीरों की जंग आदि शामिल हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी का प्रसिद्ध सुधेंद्र पुरस्कार सहित साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कार मिले। राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के आंदोलन से कागद लंबे समय से जुड़े थे।
‘हस्ताक्षर’ परिवार की ओर से ओमपुरोहित कागद जी को अश्रुपूरित नमन एवं श्रद्धांजलि!
परिचय-
जन्म: 05 जुलाई 1957
निधन: 12 अगस्त 2016
उपनाम – कागद
जन्म स्थान- केसरीसिंहपुर, श्रीगंगानगर, राजस्थान
प्रमुख कृतियाँ-
राजस्थानी कविता-संग्रह- अंतस री बळत(1988), कुचरणी(1992), सबद गळगळा(1994), बात तो ही(2002), कुचरण्यां(2002), पंचलडी(2010), आंख भर चितराम(2010)
हिन्दी कविता-संग्रह- मीठे बोलो की शब्द परी(1986), धूप क्यों छेड़ती है(1986), आदमी नहीं है(1995), थिरकती है तृष्णा (1995)
विशेष – राजस्थानी,हिन्दी और पंजाबी भाषाओं में समान रूप से लेखन। राजस्थान साहित्य अकादमी का पुरस्कार, राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर का पुरस्कार
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ओमपुरोहित कागद की कविताएँ –
मैं देशद्रोही नहीं हूँ
मैं देशद्रोही नहीं हूँ
मैं मानता हूँ
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूँ,
लेकिन मैं अजेय नही हूँ।
बस, अपने भीतर दर्द रखता हूँ
इसीलिए अछूत हूँ,
दोषी हूँ ।
मैं अक्षम नहीं हूँ,
भूखा हूँ ।
भले ही आपने मुझ पर
‘गरीबी की रेखा’ पटक कर
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूँ
कि कोई दबा पड़ा है।
सामने न सही
अपने ही मस्तिष्क में
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।
मैं देशद्रोही नहीं हूँ;
भले ही मैं
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूँ
क्योंकि मैं नंगा हूँ।
मैं देशद्रोही नहीं हूँ;
चाहे मैं
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्योंकि मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूँ
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।
मैं बे-बस हूँ।
तभी तो
मैं अपना श्रम बेचता हूँ।
मैं न्याय क्या मांगूँ?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढोकर
अपने गाँव नहीं ला सकता।
मैं निराशावादी हूँ।
तभी तो
मैनें अपनी अंगुली
तुम्हारे मुँह में दे रखी है
खून चूसने के लिए।
मै इंसान नही हूँ;
वोट हूँ।
तभी तो
आश्वासनों पर लुढ़कता हूँ।
पेटी में बंद हो
पांच साल तक
शांत पड़ा रहता हूँ।
मैं मॉं हूँ!
तभी तो सह लेता हूँ
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।
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नहीं मिल रहे शब्द
मन करता है
आज अच्छी कविता लिखूं
…दिल कहता है
पहले प्रीत लिखो
प्रीत में बंधा जगत
बहुत मोहक लगता है
प्रीत ही जगजीत है!
मेरा मैं बोला-
पहले पौरुष लिखो
वीर रस की धारा बहाओ
इस धारा में
सारा जग बह जाएगा
सब तुम्हारे शरणागत होंगे
तुम पढ़े लिखे हो
पढ़ा ही होगा मुहावरा
जिसकी लाठी उसकी भैंस!
जी किया खुल कर हंसूं
हंसाऊं सब को
दिल ने साथ दिया
प्रीत में भी चलेगी हंसी
चलती ही है
प्रीत में हंसी ठिठोली
हुंकारा दम्भी मैं भी
युद्ध के बाद जीत में
चलता है हंसी का दौर
जाओ यहां से तुम
प्रीत-युद्ध-हंसी सब लिख दो
बुद्धि सधे कदमों आई
अचानक बोली-
वह लिखो जो बिकता है
जो सदियों तक टिकता है
बहुत बड़े बड़े पुरस्कार,
बड़े बड़े सम्मान मिले
तुम तो वही लिखो
जो पाठ्यक्रम में आए
संवेदनाएं बोलें न बोलें
तुम्हारी तूती बोलनी चाहिए।
पेट जो मौन था
न जाने कब से खाली था
अचानक चिल्लाया
रोटी लिखो-रोटी!
कपड़ा लिखो-कपड़ा!!
मकान लिखो-मकान!!!
मैंने पेट की बात मानी
लिखने बैठा कविता
तब से
नहीं मिल रहे शब्द
– ओम पुरोहित कागद