उभरते-स्वर
मैं
एक पहेली हूँ मैं
अनसुलझी-सी
एक कविता हूँ मैं
अधूरी-सी
एक कहानी हूँ मैं
अनकही-सी
एक किताब हूँ मैं
बरसों पुरानी
जिसके पन्ने
कुछ भरे कुछ खाली
कुछ अधूरी पंक्तियों से भरे
विचारों में उलझे
नए विषयों और
सही शब्दों की तलाश में
बिखरे पड़े है बेहिसाब…!
उम्मीद है
कि एक दिन ऐसा आएगा
जब दिल के अक्षरों को
दिमाग़ के विचारों के साथ
शब्दों के माध्यम से
उकेरा जाएगा
उसकी पूर्ण पंक्तियों
और
सही अर्थों के साथ
ज़िन्दगी के पन्नों पर…!
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स्त्री होती है वसंत
स्त्री होती है वसंत
फूटती रहती है उसमें
नई उम्मीदों के मोजर
शीत-सा मौन सहते हुए भी
देती है हमेशा
अपनी ममता और करुणा की गरमाहट
संशय और क्रोध की धुंध को
अपने विश्वास से छाँटते हुए
निकाल ही लेती है
संभावनाओं का सूरज
और फिर छाने लगता है
उनके प्रेम का वासंती फूल
चंहुओर
– आस्था दीपाली