उभरते स्वर
मेरे शब्द
तुमसे प्रेरित मेरे शब्द
कुछ अधुरे से हैं
तुममें निहित मेरे भाव
अब पराये से
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
तुम्हारे नाम कोई चिट्ठी फिर
अपना बेपनाह प्यार लिखूँ
तुम पर जो है अंधा एतबार लिखूँ
या अपना अंतहीन इन्तजार लिखूँ
तुम्हीं बताओ
इस कहानी का सार
तुम पर क्या है मेरा अधिकार
मै क्या लिखूँ?
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हार मान ली है
विवश है आत्मा
कुछ रिस रहा है भीतर
जाने क्या
वो शायद तुम हो
हाँ, तुम्हीं हो
थक चुका है
भयभीत है
और अब कमजोर भी
नहीं लड़ सकता
ना तुमसे, ना खुद से
ना उम्र से
ना हाथ की लकीरो से
अनचाहे कुछ दाग
मिटते
मिटाते
हार मान ली है
इस कामना के साथ
कि तुम्हारी जीत हो
तुम अजेय रहो
शाश्वत रहो…..!
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तुम्हारे चले जाने से
तुमसे मेरी पहली मुलाकात
वो एहसास
और उस एहसास की खुशबू
वैसे ही ज़हन में ताजा है
मैं आज तक नहीं भूली
तुम्हारी आँखें,
मन को बहकाने वाली
तुम्हारी बातें
आज मेरी उदास तन्हाईयों की
हसीन साथी हैं
वो सारी यादें
तुम थे तो जैसे मुझे पंख लगे थे
जैसे थाम ली थी
बचपन की बाहें
पर देखो ना
अचानक
तुम्हारे चले जाने से
मेरी उम्र दोगुनी हो गयी है जैसे
मेरे हसीन ख्यालो की दुनिया
सुनी हो गयी है जैसे
– साधना सिंह